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अक्षय तिथि वैषाख शुक्ल तृतीया का क्या महत्व है

आज अक्षय तृतीया का पावन और पुण्य फलदायी दिन है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है “अक्षय” यानि जो “क्षय” न हो।

ज्योतिष के अनुसार तिथि दो प्रकार की होती है एक “व्यवहारिक” और दूसरी “तात्कालिक” ।

हर तिथि कभी न कभी व्यवहार में क्षय अवश्य होती है सिवाय वैसाख शुक्ल तृतीया और कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की नवमी क़े इसीलिए इन दो तिथियों के पूर्व “अक्षय” विशेषण लगाया जाता है ।

यह भी जानना आवश्यक है सिर्फ “व्यवहारिक” तिथि ही क्षय होती है, “तात्कालिक” तिथि कभी भी क्षय नहीं होती है।

“तिथिक्षय” से अभिप्राय यह है जब कोई तिथि सूर्योदय के उपरांत आये और अगले सूर्योदय के पूर्व ही समाप्त हो जाये उसे “क्षय” तिथि कहते हैं यानि जिस तिथि में सूर्योदय न हो।

व्यवहारिक तिथियों के सम्बन्ध में निर्णयाक भूमिका संप्रदाय विशेष की परंपरा , धर्म ग्रंथो, संहिता ग्रंथो व् पुराण इत्यादि की होती है यही कारण है हिन्दुओ में अधिकांश तिथियों के निर्णय में मतैक्य नहीं होता है। क्योकि अधिकांश हिन्दू किसी न किसी मत यत् सम्प्रदाय के अनुयायी होते है और तिथि एवम् पर्व अपने अपने सम्प्रदाय के अनुसार ही मानते हैं।

“तात्कालिक” तिथि का निर्णय शुद्ध रूप से गणितीय है जो सूर्य से चन्द्रमा की दूरी के आधार पर किया जाता है न कि सूर्योदय अथवा पूर्व या परविद्धा के आधार पर अतः तात्कालिक तिथि में कभी भी दो मत नहीं होते यह सदैव एक ही होती है।

गणित के हिसाब से एक तिथि का मान सूर्य से चंद्रमा की 12 अंश की दूरी के बराबर होता इसलिए 12 अंश ×30 तिथि बराबर 360 अंश यानि भचक्र पूर्ण हो जाता है।

ऐसा कोई समय नहीं होता जब कोई न कोई तिथि उपलब्ध न हो अतः गणित में, ज्योतिष में तिथि क्षय की कोई संभावना नहीं है।

अक्षय सिर्फ वह हो सकता है जो स्थायी हो,सदैव है और स्थायी भाव होता है सत्य में तथा सत्य परमात्मा को ही माना जाता है अतः “अक्षय तृतीया” को “ईश्वर तिथि” भी कहते है।

इसी दिन बद्री नारायण के कपाट दर्शन हेतु खोले जाते है।

अक्षय तृतीया युगादि तिथि भी है इसी दिन से “त्रेता युग ” तथा “कृत युग” जिसे सतयुग कहते है का भी शुभारंभ हुआ था। अक्षय तृतीया को ही भगवान परशुराम का भी जन्म हुआ था।

साढ़े तीन स्वयं सिद्ध मुहूर्तों में से एक है अक्षय तृतीया। अन्य मुहूर्त है चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानि नव संवत्सर,विजया दशमी तथा कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा जो की अर्ध बली होने के कारण इन मुहूर्तों को ज्योतिष में साढ़े तीन स्वयं सिद्ध मुहर्त की संज्ञा है।

इन मुहूर्तों में पंचांग शुद्धि देखने की आवश्यकता नहीं होती है।