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यह कैसी मोहब्बत है, जो मज़हब बदलने की शर्त पर की जाती है!

पिछले कुछ दिनों से देश के अलग-अलग शहरों में लव-ज़िहाद के बढ़ते मामले समाज एवं सरकार के लिए चिंता के सबब बने हुए हैं। पूरब से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण तक लगभग सभी प्रांतों और प्रमुख शहरों में लव जिहाद के मामले देखने को मिल रहे हैं। स्वाभाविक है कि इसे लेकर भारतीय समाज उद्वेलित-उद्विग्न रहा है। समाज का एक तबका इसे साजिशन अंजाम दिया कृत्य बताता है तो दूसरा तबका इसे मामूली घटना बताकर अकारण तूल न देने की वकालत करता है। और एक तीसरा तबक़ा भी है, जो यों तो ऐसे मामलों में तटस्थ दिखने का अभिनय करता है पर जैसे ही कोई सरकार इस पर क़ानून लाने की बात कहती है, जैसे ही कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन ऐसी बेमेल शादियों के विरोध में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं, यह अचानक सक्रिय हो उठता है।

क़ानून की बात सुनते ही इन्हें सेकुलरिज्म की सुध हो आती है, संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार याद आने लगते हैं, निजता के सम्मान-सरोकार की स्मृतियाँ जगने लगती हैं। सरकार की मंशा जानते ही मौन साधने की कला में माहिर यह तबका पूरी ताक़त से मुखर हो उठता है। जिन्हें लव ज़िहाद के तमाम मामलों को देखकर भी कोई साज़िश नहीं नज़र आती, कमाल यह कि उन्हें सरकार की मंशा में राजनीति जरूर नज़र आने लगती है। सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों की प्रतिक्रिया में कट्टरता और संकीर्णता दिख जाती है। फिर वे अपने तरकश से अजब-गज़ब तर्कों के तीर निकलना प्रारंभ कर देते हैं। मसलन- क़ानून बनाने से क्या होगा, क्या क़ानून बनाने से महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराध कम हो गए, क्या अब सरकारें दिलों पर भी पहरे बिठाएगी, क्या दो वयस्क लोगों के निजी मामलों में सरकार का हस्तक्षेप उचित होगा आदि-आदि?

सवाल यह है कि यदि उत्तरप्रदेश, हरियाणा या हिमाचल प्रदेश की सरकार अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए कोई क़ानून लाना चाहती है तो उसे लाने से पहले ही पूर्वानुमान लगा लेना या उन पर हमलावर हो जाना या उसमें राजनीति ढूँढ़ लेना कितना उचित है? क्या एक चुनी हुई सरकार को क़ानून बनाने का अधिकार नहीं है? क्या लव-ज़िहाद के अब तक उज़ागर हुए तमाम मामले सत्याधारित नहीं, केवल कपोल-कल्पना हैं? क्या ऐसे मामले समाज में विवाद और विभाजन के कारण नहीं बनते रहे हैं? क्या विवाद और विभाजन के कारणों को दूर कर उनके समाधान के लिए पहल और प्रयास करना अनुचित है? क्या यह सत्य नहीं कि अपरिपक्व एवं भोली-भाली बहन-बेटियों को बहला-फुसलाकर उनका दैहिक एवं मानसिक शोषण करने का कुचक्र रचा जाता है? क्या इसमें भी कोई दो राय होगी कि सीधी-सादी लड़कियों को फाँसने के लिए पद, पैसा, प्रभाव और पहुँच का दुरुपयोग किया जाता है?

क्या छद्म वेश में बदले हुए नाम, पहचान, चाल, चेहरा, वेश-भूषा के साथ किसी को प्रेमजाल में फँसाना धूर्त्त एवं अनैतिक चलन नहीं? क्या सत्य के उज़ागर होने पर ऐसे प्रेम में पड़ी हुई लड़कियाँ स्वयं को ठगी-छली महसूस नहीं करतीं? क्या ऐसी स्थितियों में उन्हें अपने सपनों का घरौंदा टूटा-बिखरा नहीं प्रतीत होता? क्या छल-क्षद्म की शिकार ऐसी विवाहित या अविवाहित लड़कियों को न्याय या सम्मानपूर्वक जीने का कोई अधिकार नहीं मिलना चाहिए? क्या भिन्न मत-पंथ के कारण ऐसे विवाहों की परिणति प्रायः त्रासद नहीं होती? अतः वे प्रपंचों एवं वंचनाओं के शिकार ही न हों, ऐसे पहल एवं प्रयासों में क्या बुराई है या हो सकती है? प्रश्न यह भी उठता है कि बिना शास्त्र या सिद्धांतों-उपदेशों से प्रभावित हुए क्या विवाह मात्र के लिए किसी का धर्म बदलना या बदलवाना औचित्यपूर्ण है? धर्म बदलने के पीछे तो कोई-न-कोई महान उद्देश्य, दिव्य बोध या आत्मसाक्षात्कार जैसी प्रेरणा काम करती आई है? क्या अंतर्धार्मिक विवाहों के अंतर्गत बदले जाने वाले धर्म में भी ऐसी ही प्रेरणा काम करती है? उल्लेखनीय है कि अभी कुछ दिनों पूर्व ही गत 8 अक्तूबर को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मात्र विवाह के लिए धर्म बदलने को अनुचित, अमान्य एवं अवैधानिक क़रार दिया है।

विवाह को एक प्रकार से नए जीवन का शुभारंभ माना जाता है। जिसका आरंभ ही तरह-तरह के छल-क्षद्म, झूठी पहचान और धर्म बदलवाने जैसे स्वार्थ पर केंद्रित हो उसे शुभ कैसे माना जा सकता है? एक ऐसे दौर में जबकि स्त्री सशक्तिकरण, स्त्री-स्वतंत्रता, स्त्री-अधिकारों आदि की बातें जोर-शोर से की जाती हों, सवाल यह भी तो उठाया जा सकता है कि अंतर्धार्मिक विवाहों में केवल स्त्रियाँ ही क्यों अपना धर्म बदलें, पुरुष भी तो बदल सकते हैं। और पुरुषों का स्त्रियों के लिए धर्म बदलना कदाचित नारी सशक्तिकरण की दिशा में एक ठोस एवं सार्थक क़दम भी सिद्ध हो!

और विवाह भारतीय समाज में कभी केवल निजी मसला नहीं रहा। बल्कि विवाह भारतीय परिप्रेक्ष्य में दो आत्माओं के मिलन के साथ-साथ दो परिवारों का भी मिलन माना जाता रहा है। जिसमें निजी विचार-व्यवहार के साथ-साथ परिवारों की रीति-नीति, परंपरा-विश्वास आदि का भी विशेष ध्यान रखा जाता है। इसीलिए विवाह एक पारिवारिक उत्सव भी है। एक ऐसा उत्सव जिसकी प्रसन्नता दूल्हा-दुल्हन से अधिक परिजनों को होती है, माता-पिता को होती है। क्या यह लोक-अनुभव से उपजा सामूहिक निष्कर्ष नहीं कि रिश्तों के निर्वहन में निजी सोच-स्वभाव रुचि-अरुचि के साथ-साथ कुल-परिवार की परंपरा, पृष्ठभूमि, परिस्थिति की भी अपनी भूमिका होती है? इसीलिए यदि समाज अपने सुदीर्घ अनुभव के आधार पर अंतर्धार्मिक विवाह को अमान्य-अस्वीकार करता है, उसके प्रति आशंका से भरा रहता है तो यह एकदम निराधार तो नहीं। समाज की मान्यताओं और विश्वासों का भी हमें सम्मान करना होगा। तब तो और जब निकिता तोमर जैसे हत्याकांडों को सरेआम अंजाम दिया जाता हो।

माना कि विवाह दो वयस्कों की पारस्परिक सहमति का मसला है पर जिस सहमति में वास्तविक पहचान ही छुपाकर रखी जाती हो, वह भला कितनी टिकाऊ और आश्वस्तकारी हो सकती है? और जो लोग इसे मोहब्बत करने वाले दो दिलों का मसला मात्र बताते हैं, वे बड़ी चतुराई से यह सवाल गौण कर जाते हैं कि ये कैसी मोहब्बत है जो मज़हब बदलने की शर्त्तों पर की जाती है? निक़ाह के लिए मज़हब बदलवाने की कहाँ आवश्यकता है? प्रेम यदि एक नैसर्गिक एवं पवित्र भाव है तो इसमें मज़हब या मज़हबी रिवाज़ों-रिवायतों का क्या स्थान और कैसी भूमिका? चूँकि अंतर्धार्मिक सभी विवाहों में जोर धर्म बदलवाने पर ही होता है, इसलिए इसे लव-ज़िहाद कहना कदाचित उचित एवं तर्कसंगत ही है? आधुनिक न्याय-व्यवस्था इस बुनियाद पर टिकी होती है कि दोषी भले बरी हो जाय पर निर्दोषों को किसी क़ीमत पर सज़ा नहीं मिलनी चाहिए। इंसाफ़ के इसी फ़लसफ़े के अनुसार यदि लव ज़िहाद के ख़िलाफ़ क़ानून बनने से एक भी कमउम्र-मासूम बहन-बेटियों की ज़िंदगी बर्बाद होने से बचती हो तो ऐसे क़ानून का तहे दिल से स्वागत किया जाना चाहिए। उस पर बेवज़ह हाय-तौबा नहीं मचानी चाहिए।

प्रणय कुमार
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