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न्यायिक प्रणाली की प्राथमिकता क्या हो?

प्रत्येक नागरिक समाज में न्यायाधीशों /न्यायमूर्ति, विषय विशेषज्ञ एवं विद्वान को सर्वोच्च सम्मान दिया जाता है। इस सम्मान के पीछे नैतिक आभार उनका अपने कार्य संस्कृति के प्रति अत्यधिक लगाव है ।एक समय की बात है कि डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी को एक पुरस्कार वितरण में जाना था ,लेकिन उनकी कथाएं भी थी ,अपने कार्य संस्कृति की प्राथमिकता के लिए पुरस्कार वितरण समारोह में जाने से अस्वीकार कर दिए। उनका कहना था कि कार्य – संस्कृति की उत्कृष्टता एवं चारित्रिक सौंदर्यता से व्यक्तित्व का प्रबल पक्ष का उन्नयन होता है। इसी प्रकार न्यायिक व्यवस्था को उनके न्यायिक कार्य संस्कृति के कारण इस समाज में विशेष उपादेयता है, न्यायाधीश /न्यायमूर्ति को उनके कार्य उपादेयता के कारण ही विवेक का सोपान/ पदयात्रा कहा जाता है। राजनीतिक चिंतक,दार्शनिक और सरकारों के वैज्ञानिक अध्ययन करने वाले विचारक अरस्तु का कहना था कि न्याय इच्छा विहीन है।

न्यायपालिका के समक्ष संसाधनों व संख्या की चुनौती है, फिर भी नागरिक समाज में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा न्यायपालिका कर रही है ।न्यायपालिका ही ऐसी शक्ति( सरकार का अंग ) है, जो नागरिकों के मूल अधिकारों को सरकार (विधायिका एवं कार्यपालिका) के अतिक्रमण से सुरक्षा प्रदान करती है, इसलिए उच्चतर न्यायपालिका को नागरिकों के मूल अधिकारों का संरक्षक कहा जाता है। मूल अधिकारों के रक्षक के रूप में कार्य करते हुए सरकार के विभिन्न अंगों को अपने निर्धारित कार्य क्षेत्र में रहने के लिए विवश करती है ।

भारत गणराज्य में संविधान की सर्वोच्चता के सिद्धांत को स्वीकार किया गया है, भारत का संविधान राज्य( देश) की मौलिक विधि है;और केंद्र तथा राज्य सरकारों की राजनीतिक सत्ता तथा नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों का स्रोत है ।सर्वोच्च न्यायालय संविधान की संरक्षा करता है और उसे किसी भी सरकार अथवा शक्ति के द्वारा अतिक्रमण से बचाता है। भारत का संविधान न्यायपालिका को न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार दिया है ,जिसके द्वारा न्यायपालिका केंद्रीय विधायिका एवं राज्य विधायिका के द्वारा बनाए गए कानूनों की संवैधानिक ता का परीक्षण कर सकती है; और यदि उपर्युक्त कानून संविधान की भावना के अनुरूप उचित व न्यायिक नहीं है अर्थात लोक कल्याणकारी राज्य की भावनाओं को पूरित नहीं कर रहा है तो न्यायपालिका कानून को असंवैधानिक घोषित कर देती हैं ।इस प्रकार भारत की संसद एवं राज्य विधायिका( विधानमंडल) उन्हीं विषयों पर कानून बना सकते हैं, जिन विषयों पर संविधान अधिकृत किया है।

न्यायपालिका के समक्ष चुनौतियां भी हैं ;4.5 करोड़ पेंडिंग मामले हैं ,जिसको सरकार एवं न्यायालय मिलकर इनका समाधान करें, तो कल्याणकारी राज्य की भावना का गत्यात्मक विकास हो सकता है ;अनुबंधों को लागू करने में सरलीकरण के मामले में भारत की स्थिति को सुधारने की जरूरत है ,जिससे निवेशक आकर्षित हो सकें ;पेंडिंग के मामलों को त्वरित विचारण की आवश्यकता है ।दुर्भाग्यवश न्यायालयों में अवर संरचना का अभाव जिसको विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका को मिलकर समाधान करना चाहिए।

प्रत्येक उच्चतर न्यायपालिका के न्यायाधीश को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करना चाहिए कि नागरिकों को समय पर न्याय देना न्यायिक आभार है ,जिससे नागरिकों में ऊर्जावान एवं खुशामद के माहौल का निर्माण होता है ।अनुबंधों को लागू करने में सरलीकरण नागरिक समाज के बुनियादी आवश्यकता है ।पेंडिंग मामलों को समाप्त करने के लिए एक समय पर योजना तैयार करनी चाहिए। एक ऐसा योजना जिसमें प्रौद्योगिकी का उपयोग हो, अद्यतन उच्चतम न्यायालय में केसेस के मामले में अद्यतन जानकारी के लिए एंड्रॉयड फोन दिया गया है, जिससे सर्वोच्च न्यायालय के कर्मचारी सूचना प्राप्त कर सकें ।लोकप्रिय विषयों के बजाय अधिक दबाव वाले मामलों को प्राथमिकता से निपटाया जाना चाहिए ;न्यायिक प्रणाली को अपने प्राथमिक कार्य को सर्वोपरि एवं विशेष रुप से ध्यान केंद्रित करना चाहिए ।भारत की आर्थिक विकास की दर को 7.8 % बढ़ने के लिए इसे अनुबंधों को लागू करने में सरलीकरण के लिए शीर्ष 50 देशों में से एक होना चाहिए ।न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति भी सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए, जिससे पेंडिंग मामलों को समयबद्ध सीमा में समाधान किया जा सके। इससे नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक/राजनीतिक न्याय प्राप्त हो सके।