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हम कहाँ से और अब कहाँ के माने जाएँ !

अंकित ने हमारे कंप्यूटर प्रिंटर को चेक करने के बाद पूछा – ‘ सर , आप कहाँ के हैं ‘ । मुझे अटपटा लगा । मतलब ? मेरे इस जवाब पर युवक ने संकोच से बोला ‘ मतलब दिल्ली के या यू पी , एम पी , बिहार या पंजाब के ? आजकल तो सब यही पूछ रहे हैं ‘ । सचमुच अंकित भी तीन चार वर्षों से मेकेनिक के नाते हमारे पास आता रहा है । उसने कभी यह सवाल नहीं किया । मैंने उसे सामने कुर्सी पर बैठाया । कहा – पहले कुछ ठंडा पी लो । उसे ग्लास में कोल्ड ड्रिंक देकर मैंने कहा – ” अंकित कैसे बताऊँ । एक छोटे से गांव में जन्म हुआ । पिताजी दूसरे जिले के गांव में शिक्षक थे । फिर एक से दूसरे गांव में तबादले होते रहे । आठवीं की पढाई तक चार स्कूल बदले । फिर उज्जैन पहुंचे तो वहां भी तीन स्कूल में रहा और फिर उज्जैन इंदौर में पढाई पूरी की । पत्रकारिता में इंदौर , भोपाल , दिल्ली , कोलोन ( जर्मनी ) , पटना और फिर दिल्ली में काम करता रहा हूँ । जिन अख़बारों का संपादक रहा वहां – दिल्ली , इंदौर , रायपुर , पटना , रांची , लखनऊ , जयपुर , चंडीगढ़ , मुंबई , कोलकाता के स्थानीय संस्करणों में नियम कानून के अनुसार वहां का पता देकर संपादक के नाते नाम छपने से लोग वहां का भी समझा गया ।

दिल्ली ही नहीं पटना या मुंबई या अहमदाबाद में भी कभी यह सवाल होता है कि आप कहाँ के हैं ? अब मेहता सरनेम पंजाब , गुजरात , बिहार , उत्तर प्रदेश , राजस्थान , मध्यप्रदेश में भी होता है । यहाँ तक कि विभिन्न इलाकों में जातियां भी अलग हो सकती है । इसलिए इतना ही समझ में आता है कि भैया अब कहीं का मान लो , मैं तो हिंदुस्तानी हूँ । ” इतनी लम्बी दास्ताँ सुनकर अंकित ने हँसकर पूछा ‘ सर , वो सब ठीक है , यदि इलाज कराना पड़ा तो कहाँ का बता सकेंगे ? केजरीवालजी ने कह दिया है ‘ पहले साबित करो कि दिल्ली के हो । ‘ मैंने कहा ‘ भाई इतनी प्रार्थना करो कि इलाज और इस सवाल का जवाब देने की नौबत नहीं आए । ‘ उसे विदा करने के बाद भी मैं विचलित रहा , क्योंकि मेरी तरह लाखों नहीं करोड़ों लोग होंगे । जो भारत ही नहीं दुनिया भर में हैं । उनसे क्या इसी सवाल के सही उत्तर और प्रमाण पर इलाज होगा ?

कोरोना महामारी के संकट ने भारत में प्रादेशिक क्षेत्रीय मुद्दे को गरमा दिया । ये मजदूर मेरा या तुम्हारा , ये सुविधा हमारी या तुम्हारी – इस तरह के दावों से एक खतरनाक मानसिकता भी देश में पैदा हो रही है । यह कोरोना से अधिक घातक है । खासकर सत्ता की राजनीति करने वालों को गंभीरता से सोचना चाहिये । प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी निरंतर एक भारत सशक्त स्वच्छ आत्म निर्भर की बात कर रहे है , लेकिन रामलीला मैदान से शिवाजी पार्क के रसों से सत्ता में आने वाले अरविन्द केजरीवाल , उद्धव ठाकरे , ममता बनर्जी जैसे नेता हमारी दिल्ली – मैं दिल्ली वालों का , आमची मुंबई , मैं मराठा सम्राट , आमार बांग्ला जैसी बाते करके भविष्य के रास्तों पर काँटे बिछा रहे हैं । महात्मा गाँधी और डॉक्टर अंबेडकर का नाम सभी लेते हैं । चलिए गाँधी को ज्यादा नहीं पढ़ा , संविधान की शपथ लेने वालों ने डॉक्टर अंबेडकर को तो थोड़ा पढ़ा होगा।

फिर भी कुछ पंक्तियों का उल्लेख करना जरुरी लगता है । डॉक्टर आंबेडकर ने संविधान सभा में नवम्बर 1949 में अपने अंतिम भाषण में कहा था – ” हमें हमारे राजनीतिक प्रजातंत्र को एक सामाजिक प्रजातंत्र भी बनाना चाहिए । जब तक उसे सामाजिक आधार न मिले राजनीतिक प्रजातंत्र नहीं चल सकता । सामाजिक प्रजातंत्र का अर्थ क्या है ? वह एक ऐसी जीवन पद्धति है , जो स्वतंत्रता , समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वीकारती है । ….. बंधुत्व का अर्थ है सभी भारतियों के बीच एक सामान्य भाईचारे का अहसास , जो हमारे सामाजिक जीवन को एकजुट प्रदान करता है ।बन्धुत्व तभी स्थापित हो सकता है जब हमारा राष्ट एक हो । बन्दुत्व के बिना स्वतंत्रता और समानता रंग की एक परत से अधिक गहरी नहीं होगी । ”

आजकल नेताओं को लगता है कि गाँव , शहर , क्षेत्र , प्रदेश , जाति , धर्म , संप्रदाय , भाषा के नाम पर लोगों को भ्रमित कर तात्कालिक राजनीतिक हित पूरे किये जा सकते हैं । लेकिन इस फॉर्मूले से वे संविधान की भावना का अनादर करते हुए अपनी शपथ को भी झूठी साबित करते हैं । पंचायत से लेकर संसद और सरकार या संगठन को आगे बढ़ाने और बड़े लक्ष्य पाने के लिए एक उदार दिल तथा उदार दिमाग – सोच की जरुरत होती है । छोटी सोच वाले नेता और राष्ट्र कभी बड़ी उपलब्धियां नहीं पा या दिला सकते हैं । जब हम बड़े काम करते हैं तो उनके साथ हमारा कद भी बढ़ता है और हमारे मन भी उदार होते हैं । आज दुनिया में सर्वाधिक युवा भारत में हैं ।

यों सत्तर वर्षों से कहा जाता रहा , लेकिन अब अधिक जरुरी हो गया है कि कोरोना संकट से निपटे हुए सभी क्षेत्रों में उत्पादन में भारी वृद्धि करने , जीवन स्टार ऊँचा करने और रोजगार के अधिकाधिक अवसर उपलब्ध कराने के लिए राजनीतिक क्षुद्रता से हटकर सम्पूर्ण भारत में एक साथ प्रयास किये जाएँ , ताकि आने वाले तीन से पांच वर्षों में भारत सही अर्थों में आत्म निर्भर कहला सके । यह उद्देश्य केवल घोषणाओं , नारों और फैसलों से पूरा नहीं हो सकता । उन पर अमल के लिए पारस्परिक सहयोग , दृढ इच्छा शक्ति की आवश्यकता है । आर्थिक नीति का लक्ष्य होना चाहिए- प्रचुरता । आज की दुनिया में अभावों के अर्थशास्त्र का कोई मायने नहीं है । उत्पादन के साथ जन सामान्य की क्रय शक्ति बढ़ना चाहिए , तभी उत्पादन और उपभोग का चक्र पूरा होगा । इसके लिए सामाजिक सद्भाव , भविष्य निर्माण की राष्ट्रीय भावना जगाये रखने का दायित्व सबका है । इस दृष्टि से भारत सबसे अधिक युवा और सशक्त है । विभिन्न क्षेत्रों में उनके पास अद्भुत क्षमता है । सारी समस्याओं के बावजूद पिछले वर्षों के दौरान पंचायतों में युवाओं और महिलाओं ने ग्रामीण इलाकों में महत्वपूर्ण बदलाव लाने का काम किया है । शिक्षा , स्वास्थ्य , आवास और सड़क के साथ उत्पादन एवं रोजगार के लिए नए अभियान चलने पर देखते ही देखते देश का कायकल्प हो सकता है । राजनेताओं को यह समझना और स्वीकारना होगा कि जोड़ तोड़ से कुछ नहीं होगा और लोगों के उत्साहपूर्ण सहयोग के साथ कड़ी मेहनत कोई विकल्प नहीं है ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)