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मप्र में क्यों बिखर रहा है कांग्रेस सरकार का कुनबा?

मप्र के उत्तरी अंचल में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी की अंतर्कलह खुलकर सामने आ गई है अंचल में विधानसभा की 34 सीटें है औऱ इनमें से 25 पर काँग्रेस के विधायक है।15 साल बाद मप्र में बीजेपी की सत्ता से विदाई में इसी ग्वालियर चंबल ने निर्णायक भूमिका अदा की थी,लेकिन कमलनाथ के सीएम बनने के साथ ही इस अंचल में काँग्रेस की गुटीय राजनीति चरम पर है ।क्योंकि इस शानदार प्रदर्शन के लिये सिंधिया समर्थक ज्योतिरादित्य सिंधिया को एकमात्र कारक मानते रहे है,जब राहुल गांधी ने सिंधिया की जगह कमलनाथ को सीएम बनाया तभी से सिंधिया समर्थकों में मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह के विरुद्ध माहौल बना हुआ है लोकसभा चुनाव में गुना से सिंधिया की चौकाने वाली शिकस्त ने कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई को खुलकर सड़कों पर ला दिया है।मप्र के सहकारिता मंत्री डॉ गोविन्द सिंह द्वारा क्षेत्र में अवैध उत्खनन का मामला उठाना असल मे सरकार पर दिग्विजयसिंह खेमे का दबाब को बढ़ाने की सोची समझी रणनीति ही है क्योंकि यह तथ्य है कि इस सरकार में दिग्विजयसिंह खेमे के ही विधायक सबसे अधिक है और कमलनाथ के साथ वह भी नही चाहते कि किसी सूरत में सिंधिया मप्र की सत्ता का समानन्तर केंद्र बनें, इसीलिए कल अजय सिंह राहुल के भोपाल बंगले पर दिग्विजयसिंह ,गोविन्द सिंह, केपी सिंह जैसे दिग्गज एक साथ जुटे।इस जमावड़े को सिंधिया खेमे द्वारा पीसीसी चीफ पर दावे के काउंटर के रूप में देखा जा रहा है।सिंधिया समर्थक विद्यायक और मंत्री लगातार यह मांग करते आ रहे है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी सिंधिया को दी जाए।

अब सवाल यह है कि क्या कमलनाथ सिंधिया को पीसीसी चीफ के रूप में स्वीकार करने की स्थिति में है?इसी सवाल के जबाब के रुप में अजयसिंह राहुल के आवास पर हुई कल की बैठक को लिया जाना चाहिये क्योंकि इसमें 12 सीनियर एमएलए एकत्रित हुए थे और इसे कमलनाथ और दिग्विजय की युगलबंदी के रूप में भी विश्लेषण करने की जरूरत है।यह सच है की मप्र की राजनीति में जूनियर सिंधिया और सीनियर सिंधिया दोनो को दिग्विजयसिंह, बोरा,शुक्ला खेमों से तगड़ी चुनोतियाँ मिलती रही है 1993 में तब के कद्दावर नेता स्व माधवराव सिंधिया सीएम बनते बनते रह गए थे।मौजूदा सियासी परिदृश्य में भी ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए कमोबेश हालात ऐसे ही है लेकिन एक बडा अंतर ज्योतिरादित्य की राजनीति में यह है कि उनके समर्थक मुखर होकर उनकी वकालत करते है ऐसा स्व सिंधिया के मामले में नही होता था। वे 1993 में सीएम पद की रेस में पिछड़ने के बाद दिल्ली की सियासत में रम गए थे और लोकसभा में उपनेता तक गए।हालांकि यह भी तथ्य है कि वे ज्योतिरादित्य की तरह पूरे प्रदेश में घूम घूम कर प्रचार नही करते थे।स्वाभविक है कि ज्योतिरादित्य नए जमाने की राजनीतिक स्टाइल पर चलते है यही कारण है कि उनके समर्थक मंत्री लगातार मुख्यमंत्री पर दबाव बना रहे है की उन्हें प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी जाए ताकि प्रदेश की कांग्रेस सियासत में उनका दबदबा और संतुलन बना रहे।

सच तो यह है कि सिंधिया के लिये न तो कमलनाथ और न दिग्विजयसिंह ही इतनी आसानी से मप्र में स्थापित होने देना चाहेंगे क्योंकि प्रदेश की जमीनी पकड़ के मामले में आज भी सिंधिया का कद बीस नही है।ग्वालियर अंचल में ही श्योपुर,सुमावली,लहार, ग्वालियर दक्षिण,सेंवढ़ा,पिछोर, चंदेरी, राधौगढ़,चांचौड़ा के विधायक तो विशुद्ध रूप से दिग्विजयसिंह से जुड़े है जिनकी संख्या 09 होती है वहीँ पोहरी,करैरा भितरवार ,भांडेर के विधायक अपैक्स बैंक के अध्यक्ष अशोक सिंह से भी जुड़े है जिनका सिंधिया से 36 का आंकड़ा जगजाहिर है।समझा जा सकता है कि ग्वालियर चंबल की ऐतिहासिक जीत में सिंधिया ही अकेले किरदार नही है।बाबजूद इसके मप्र कैबिनेट में सिंधिया खेमे के कुल 7 में से चार मंत्री इसी इलाके में है।फिलहाल कमलनाथ ने शिक्षा, स्वास्थ्य, श्रम, महिला बाल विकास, खाद्य,परिवहन,पशुपालन जैसे विभाग सिंधिया कोटे के मंत्रियों को दे रखे है।लेकिन इसके बावजूद सिंधिया समर्थक चाहते है कि उन्हें प्रदेश कांग्रेस की कमान दी जाए ताकि प्रदेश में उनके प्रभाव में बढ़ोतरी हो गाहे बगाहे ये सभी मंत्री सार्वजनिक रूप से मुख्यमंत्री को मुश्किलें खड़ी करते रहते है खाद् मंत्री प्रधुम्न तोमर तो कैबिनेट की मीटिंग्स में ही सीएम से भिड़ जाते है वही अन्य मंत्री भी इसी लाइन पर चलकर दबाब की राजनीति कर रहे है।हालांकि कमलनाथ बहुत ही गंभीरतापूर्वक सभी खेमों में उपर से संतुलन बनाकर चल रहे है अभी तक उन्होंने किसी मामले पर सार्वजनिक प्रतिक्रिया इस तरह से नही दी जिससे आपसी खाई गहरी हुई हो कमोबेश दिग्विजयसिंह भी अपनी फ़ितरत के विरुद्ध मप्र के सियासी हालातों पर सार्वजनिक रूप से चुप्पी साधे हुए है।दूसरी तरफ सिंधिया समर्थक लगातार बयानबाजी और त्यागपत्र जारी कर सिंधिया को अध्यक्ष बनाने की मांग कर रहे है।

दिग्विजयसिंह खेमे के मंत्री भी अब तक सरकार के लिये किसी तरह की दिक्कतें नही दे रहे थे वे मजबूती से कमलनाथ के साथ खड़े रहे है लेकिन कुछ दिनों से डॉ गोविंद सिंह जिस तरह से सरकार के विरुद्ध खड़े हुए है उसे महज अवैध उत्खनन पर सरकार की नाकामी से जोड़कर नही देखा जा सकता है क्योंकि डॉ गोविंद सिंह सरकार में दो नम्बर की हैसियत रखते है और उनके विरुद्ध जिस तरह से अचानक सिंधिया समर्थक मीडिया में मुखर हुए है उसने दोनों खेमों को फिर आमने सामने लाकर खड़ा कर दिया है।अखबारों में खुलेआम एक दूसरे के विरुद्ध बयान दिए जा रहे है।और मुख्यमंत्री को यहां तक कहना पड़ा कि कोई भी मंत्री विधायक सार्वजनिक रुप से बयान नही देगा। इस बीच दिल्ली में पीसीसी चीफ के लिये लॉबिंग शुरु हो चुकी है मुख्यमंत्री अगले दो दिन वहीं रहने वाले है और वे इस प्रयास में है कि आदिवासी कार्ड खेलकर सिंधिया को मप्र की सियासत से बाहर किया जाए।मप्र में आदिवासी नेतृत्व की मांग काफी पुरानी है इस बार धार झाबुआ और निमाड़ से लेकर महाकौशल के आदिवासियों ने विधानसभा में कांग्रेस को जबरदस्त समर्थन किया था यह वर्ग परम्परागत रूप से कांग्रेस का वोटबैंक रहा है लेकिन 15 साल से इस वर्ग को बीजेपी ने अपने पक्ष में लामबंद कर लिया है लोकसभा चुनाव में आदिवासियों ने फिर से मोदी के पक्ष में वोट कर कमलनाथ के आदिवासी कार्ड को मजबूती दिला दी है इसलिये संभव है मप्र का अगला कांग्रेस अध्यक्ष आदिवासी कोटे से हो।सिंधिया को रोकने के लिये दिग्विजय भी इस फैक्टर पर राजी है इसलिए कैबिनेट मंत्री बाला बच्चन,जमुना देवी के भतीजे उमंग सिंगार,के नाम पर सहमति बन सकती है।ओबीसी फेस के रूप में खेल मंत्री जीतू पटवारी के नाम पर सहमति बन सकती है पटवारी राहुल गांधी के भी नजदीकी है।

पीसीसी चीफ को लेकर निर्णय कमलनाथ की सहमति से होने के आसार है क्योंकि सोनिया गांधी की ताजपोशी के बाद बुजुर्ग नेताओं की ताकत में बढ़ोतरी हुई है।सिंधिया को महाराष्ट्र की स्क्रीनिंग कमेटी का अध्यक्ष बनाया जाना फिलहाल उनके पक्ष को कमजोर करता है।

मप्र कांग्रेस की यह गुटीय लड़ाई फिलहाल थमेगी इसकी संभावना नही है क्योंकि सिंधिया और दिग्विजय खेमे के विधायक जिस तरीके से एक दूसरे को व्यक्तिगत रूप से लांछित कर रहे है उससे कांग्रेस में घर की खाई इतनी गहराती जा रही है जिसे दलीय पहचान और अनुशासन के बल पर समेकित नही किया जा सकता है।कांग्रेस में आलाकमान की कमजोरी का सीधा असर मप्र में साफ दिख रहा है।