Saturday, April 20, 2024
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महिला सशस्त्रीकरण: ढोल का पोल

एक ही समय व एक ही प्रवाह में तलाक-तलाक़-तलाक़ बोलकर अपनी पत्नी को तलाक़ दिए जाने जैसी भौंडी व अमानवीय परंपरा को पिछले दिनों देश के सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक क़रार दे दिया। ग़ौरतलब है कि इस्लाम धर्म अपने प्रचलन में आने के कुछ समय बाद से ही चार मुख्य अलग-अलग वर्गों में बंटा हुआ है। इन्हें सुन्नी,शिया,अहमदिया तथा ख़्वारिज वर्गों के नाम से जाना जाता है। इन वर्गों में सुन्नी जमात देश व दुनिया में मुसलमानों की बहुसंख्य जमाअत है। इस सुन्नी वर्ग में भी 6 अलग-अलग विचार रखने वाले समुदाय हैं। वैचारिक तौर पर इनका वर्गीकरण हनफ़ी,हंबली,मालिकी,शाफ़ई, बरेलवी तथा देवबंदी आंदोलन के रूप में किया जाता है। इनमें केवल हनफ़ी विचार रखने वाली जमाअत में ही तीन बार तलाक़-तलाक़-तलाक़ कहकर तलाक़ दिए जाने की परंपरा थी। यह परंपरा भी एक ही बार में तीन बार तलाक़बोलने की नहीं बल्कि एक महीने में एक बार तलाक़ कहकर दूसरे महीने में दूसरी बार तलाक़ बोलना और फिर इसी प्रकार तीसरे महीने में तलाक़ की प्रक्रिया को संपूर्ण करने के निर्देश थे। परंतु पुरुष प्रधान समाज के कुछ उतावले व ख़ुद मुख़्तार क़िस्म के लोगों ने इसे फ़िल्मी अंदाज़ का तलाक़ बना डाला और तीन बार तलाक़बोलने का यही ग़लत तरीक़ा पूरे इस्लाम धर्म व मुस्लिम जगत के लिए मज़ाक़ उड़ाने का एक माध्यम बन गया। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह कि इस प्रथा का जिससे कि क़ुरान,इस्लाम शरीया या किसी हदीस से कोई लेना-देना नहीं है वह तरीक़ा इसी वर्ग के कुछ मुसलमानों द्वारा अमल में भी लाया जाने लगा। परिणामस्वरूप देश की सैकड़ों मुस्लिम महिलाओं को इस कुप्रथा का शिकार होना पड़ा।

एक ही बार में लगातार तलाक़-तलाक़-तलाक़ बोलकर तलाक़दिए जाने जैसी परंपरा के विरुद्ध प्रभावित मुस्लिम महिलाओं का संघर्ष हालांकि गत् तीन दशकों से जारी है। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में छिड़ा शाहबानो का मामला भी लगभग इसी विषय से जुड़ा हुआ मामला था। उसके बाद भी सैकड़ों प्रभावित महिलाएं देश की विभिन्न अदालतों के दरवाज़े खटखटा कर इस मज़ाक़ रूपी परंपरा को चुनौती देती आ रही थीं। परंतु पिछले दिनों सायरा बानो नामक महिला के इसी प्रकार के एक मुक़द्दमे में देश की सर्वोच्च अदालत ने अपना ऐतिहासिक निर्णय देते हुए इस क्रूर परंपरा को असंवैधानिक क़रार दिया तथा सरकार को इस संबंध में नया क़ानून बनाने के निर्देश दिए। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय के बाद ज़ाहिर है इस क्रूर परंपरा से प्रभावित महिलाओं में तो ख़ुशी तथा विजय का वातावरण देखा ही गया परंतु इसके साथ-साथ सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के ख़ेमे में भी जश्र का माहौल देखने को मिला। कई भाजपाई नेता तो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में अपनी बड़ी सफलता तथा जीत देख रहे थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जोकि आमतौर पर देश की गंभीर से गंभीर नज़र आने वाली समस्याओं पर भी ट्वीट नहीं करते, उनकी ओर से भी सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का यह कहते हुए स्वागत किया गया कि-‘सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐतिहासिक है। इससे मुस्लिम महिलाओं को बराबरी का हक़ मिलेगा यह महिला सबलीकरण की ओर शक्तिशाली क़दम है’। इसी प्रकार भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने फ़रमाया कि-‘इसके साथ ही मुस्लिम महिलाओं के लिए नए युग की शुरुआत होगी’।

इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे देश में महिलाएं पुरुषों की तुलना में अब भी काफ़ी पीछे हैं। बावजूद इसके कि यहां महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई लडऩे के स्वर चारों ओर सुनाई देते हैं। पक्ष-विपक्ष,नेता,धर्मगुरु, सामाजिक संगठन व कार्यकर्ता तथा बुद्धिजीवी आदि सभी महिलाओं को बराबरी का हक़ देने की दुहाई देते रहते हैं। परंतु हक़ीक़त में भारत में महिलाओं की स्थिति ठीक इसके विपरीत है जैसाकि देश व दुनिया को बताने या गुमराह करने की कोशिश की जाती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि तिहरे तलाक़ पर उच्चतम न्यायलय के निर्णय को लेकर होने वाला शोर-शराबा शत-प्रतिशत राजनैतिक है। भारतीय जनता पार्टी इस फ़ैसले पर एक तीर से दो शिकार खेलने की कोशिश कर रही है। ज़ाहिरी तौर पर तो पार्टी यह दिखा रही है कि वह मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण तथा उन्हें इस क्रूर परंपरा से मुक्ति दिलाकर बहुत बड़ा तीर चला रही है। यानी भाजपा मुस्लिम समाज के हितैषी के रूप में स्वयं को प्रोजेक्ट करना चाह रही है। परंतु उसका एक दूसरा एजेंडा यह भी है कि वह इस परंपरा को समाप्त करने के बहाने मुसलमानों के एक वर्ग के निजी धार्मिक मामले में दख़लअंदाज़ी करने में स्वयं को कामयाब भी महसूस कर रही है। उधर दूसरी तरफ़ इस परंपरा के समर्थक व अधिकांश विरोधी मुस्लिम उलेमा भले ही इस फ़ैसले का समर्थन क्यों न कर रहे हों परंतु वे भी इस विषय में अदालती हस्तक्षेप को नापसंद कर रहे हैं।

महिला सशक्तिकरण की डफ़ली बजाए जाने के मध्य यह सवाल पूछा जाना ज़रूरी हो गया है कि क्या केवल तीन तलाक़ की परंपरा से प्रभावित महिलाओं को न्याय दिलाने मात्र से ही महिला सशक्तिकरण संभव हो सकेगा? हमारे देश में महिलाओं के तिरस्कार से जुड़ी अनेक सच्चाईयां ऐसी हैं जिनके निवारण के बिना महिला सशक्तिकरण की बातें करना एक मज़ाक़ के सिवा और कुछ नहीं। क्या कभी किसी महिला सशक्तिकरण के झंडाबरदार ने वृंदावन,वाराणसी तथा हरिद्वार व अयोध्या जैसे धर्मस्थलों पर बढ़ती जा रही विधवा तथा बेसहारा हिंदू महिलाओं के पुनर्वास व उसके सशक्तिकरण के विषय में अपनी आवाज़ बुलंद की है? यही सत्ताधारी दल जो आज मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण को लेकर ढोल बजाता फिर रहा है इसी के मुखिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पत्नी जशोदाबेन के अधिकारों अथवा उनके सशक्तिकरण की कभी चिंता की है? मोदी द्वारा किसी महिला के सशक्तिकरण की बात करना या उसके सबलीकरण की चिंता करना तो वैसा ही प्रतीत होता है जैसेकि आसाराम बापू लोगों को चरित्रवान होने तथा महिलाओं का आदर व सम्मान करने जैसा प्रवचन देने लग जाएं। सांप्रदायिक दंगों व हिंसा से प्रभावित महिलाओं के अधिकारों तथा उनके सशक्तिकरण की फ़िक्र क्या किसी ने की है? और तो और स्वयं संघ प्रमुख से लेकर कई वरिष्ठ भाजपाई नेता समय-समय पर देश में होने वाली महिला उत्पीडऩ या बलात्कार जैसी घटनाओं पर भारतीय महिलाओं को यही सीख देते सुने गए हैं कि वे देर रात बाहर न निकला करें,‘आपत्तिजनक’ कपड़े न पहना करें वग़ैरह।

और तो और महिलाओं से अपने चरण धुलवाने की परंपरा या यह रिवाज हिंदू धर्म के अतिरिक्त किसी दूसरे धर्म में नहीं है। हिंदू धर्म का भी एक सीमित वर्ग इस परंपरा का पालन करता है। ज़ाहिर है संघ परिवार भी इस परंपरा का पोषक है। क्या देश में महिलाओं के साथ बढ़ती जा रही बलात्कार की घटनाएं,उनके विरुद्ध होने वाली शरीरिक हिंसा,महिलाओं का मानसिक उत्पीड़न, विधवाओं से पुरुष प्रधान समाज द्वारा छीने जाने वाले उनके संपत्ति व अन्य अधिकार,सरकारी व ग़ैर सरकारी कार्यालयों में किसी पुरुष सहकर्मी द्वारा अपनी महिला सहकर्मी पर आपत्तिजनक नज़रें डालना, देश के कुछ क्षेत्रों में अब भी सुनाई देने वाली सती व देवदासी प्रथा,संपत्ति में महिलाओं के अधिकार, नौकरियों में महिला आरक्षण,देश के विभिन्न क्षेत्रों व समुदायों में प्रचलित बहुविवाह प्रथा जैसी अनेक बातें है जिनकी अनदेखी कर हम महिला सशक्तिकरण की बात नहीं कर सकते। केवल तीन तलाक़ परंपरा पर फ़तेह हासिल करने को महिला सबलीकरण या सशक्तिकरण बताना ढोल में पोल के समान ही है।
तनवीर जाफ़री

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