
आर्य समाज के योध्दा मुन्शी केवल कृष्ण
आर्य समाज एक इस प्रकार का संगठन है, जिसने रुढियों कुरीतियों और अंधविश्वास के नाश के लिए अपने सदस्यों के जीवन तक कुर्बान कर दिए| इन सबका विरोध करते हुए स्वयं अपना बलिदान देकर आर्यसमाज के सदस्यों के लिए बलिदान का मार्ग खोल दिया| अब आर्य समाज के अनेक महापुरुषों ने इन कुरीतियों का विरोध करते हुए अपने जीवनों को आहूत कर दिया| इस प्रकार ही आर्य समाज में प्रवेश से पूर्व जिन लोगों के जीवन कलंकित थे, जुआ खेलना, शराब पीना, महिलागमन करना आदि भयंकर रोग जिन के अन्दर घर कर चुके थे, आर्य समाजका सदस्य बनत ही वह इन दोषों से न केवल मुक्त ही हुए अपितु समाज के सामने एक उदाहरण भी बन गए| कहाँ तो वह स्वयं इन दोषों का घर थे और कहाँ अब इन दोषों से दूर रहने के लिए भी आर्य समाज की वेदी से जन जन को उपदेश दे रहे थे| इस प्रकार के महापुरुषों में सर्वप्रथम स्थान स्वामी श्रद्द्धानद सरस्वती जी का आता है, जिन्होंने आर्य समाज के प्रवेश्ग के सास्थ्ही साथ अपने दोषों को दूर किया और इनके पश्चात् और भी अनेक महापुरुष आर्य समाज को मिले|
आर्य समाज के आरम्भिक विद्वानों को आर्य समाज के सिद्धान्तों तथा ऋषि दयानंद सरस्वती जी के विचारों पर पूरी आस्था थी । इस का यह तात्पर्य नहीं कि आज एसे विद्वानˎ नहीं मिलते किन्तु यह सत्य है कि उस समय के विद्वानˎ बिना किसी किन्तु परन्तु के आर्य समाज के लिए कार्य करते थे तथा सिद्धान्त से किंचित भी न हटते थे । एसे ही pविद्वानों , एसे ही दीवानों में मुन्शी केवल कृष्ण जी भी एक थे । मुन्शी जी का जन्म मुन्शी राधाकिशन जी के यहां अश्विन पूर्णिमा १८८५ विक्रमी तद्नुसार सन १८२८ ईस्वी को हुआ । इन की विरासत पटियाला राज्य के गांव छत बनूड से थी । भाव यह है कि इन के पूर्वज बनूड के निवासी थे । परिस्थितिवश मुसलमानी शासन काल में यह रोहतक आ कर रहने लगे ।
उस काल में मुसलमानी प्रभाव से हमारे हिन्दु लोगो में भी अनेक बुराइयां आ गई थीं । एसी ही बुराईयों के मुन्शी जी भी गुलाम हो गये थे । यह बुराईयां जो मुन्शी जी ने अपना रखी थीं, उनमें मांसाहार करना, मदिरा पान करना । इस सब के साथ ही साथ यह वैश्गयामन तक भी करने लगे थे ।
इन बुराईयों में फ़ंसे मुन्शी जी पर एक चमत्कार हुआ । हुआ यह कि इन दिनों ही स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का पंजाब में आगमन हुआ ।। इन दिनों मुन्शी जी शाहपुर में मुन्सिफ़ स्वरुप कार्य कर रहे थे । मुन्शी जी ने स्वामी जी के उपदेश सुने । इन उपदेशों पर मनन चिन्तन करने पर इन का मुन्शी जी पर अत्यधिक प्रभाव हुआ । वह स्वामी जी के उपदेशों से धुलकर शुद्ध हो गये । स्वामी जी के प्रभाव से उन्होंने मांसाहार का सदा के लिए त्याग कर दिया , मदिरा के बर्तन उठाकर घ्र से बाहर फ़ैंक दिये तथा भविष्य में इस बुराई को भी अपने पास न आने देने का संकल्प लिया तथा वैश्यागमन , जो कि सब से बडी बुराई मानी जाती है , उसे भी परित्याग कर दिया । इस प्रकार स्वामी जी के प्रभाव से मुन्शी जी शुद्ध व पवित्र हो गये ओर आर्य समाजी बन गये ।
जब कोई व्यक्ति भयानक बुराईयों को छोड कर सुपथ गामी बन जाता है तो लोगों में उस का आदर सत्कार पहलेसे कहीं अधिक बढ जाता है, यह बुरे व्यसन त्यागने से उस की ख्यति दूर दूर तक चली जाती है तथा जिस साधन से उसने यह दोष त्यागे होते हैं , अन्य लोग भी उसका अनुगमन करते हुए उस पथ के पथिक बन जाते हैं । हुआ भी कुछ एसा ही ।
मुन्शी जी ने अपने आप को आर्य समाज के सिद्धान्तों के साथ खूब ढाला तथा इन्हे अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लिया । आपने यत्न पूर्वक उर्दू में पारंगकता प्राप्त की तथा अपने समय के उर्दू के उच्च कोटि के कवि बन गये । आप ने आर्य समाज के सिद्धान्तों व मन्तव्यों के प्रचार के लिए अनेक कवितायें लिखीं ।
मुन्शी जी अनेक वर्ष आर्य समाज गुजरांवाला के प्रधान भी रहे । आप के ही प्रभाव से आप के भाई नारायण कृष्ण भी आर्य समाज को समर्पित हो गए तथा आप के सुपुत्र कर्ताकृष्ण भी अपने पिता के अनुगामी बन कर आर्य समाज के सदस्य बन गए । जिस परिवार में कभी बुराईयों के कारण सदा कलह क्लेश रहता था, वह परिवार आज उत्तमता का ,स्वर्गिक आनंद लेने वालों का एक उदाहरण था ।
जब लाहोर में डी.ए.वी कालेज की स्थापना हुई , उस समय इस संस्था को चलाने के लिए धन का अभाव सा ही रहता था । कालेज के पास धनाभाव के इन दिनों में आपने कालेज के सहयोगी स्वरूप एक भारी धनराशी इसे सहयोग के लिए अपनी और से दी ।
आप उर्दू के सिद्धहस्त कवि थे किन्तु आर्य समाज में प्रवेश से पूर्व आपने उर्दू की प्रचलित परम्परा को अपनाते हुए श्रृंगार रस में ही अपनी रचनायें लिखीं किन्तु आर्य समाज में प्रवेश के साथ ही, जिक्स्स रकार कवि शंकर जी तथा हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के प्रवर्तक भारतेंदु बाबू में परिवर्तन आया, उस प्रकार ही आपके विचारों में भी भारी परिवर्तन आया| अत: जहां आप ने अपने जीवन की अनेक बुराईयों का त्याग किया , वहां अपने काव्य को भी नया रूप दिया आप ने अब श्रंगार रस को सदा के लिये त्याग दिया तथा इस के स्थान पर शान्त रस को अपना लिया । अब शान्त रस के माध्यम से आप उर्दू मे काव्य की रचना करने लगे । आपने अपने काव्य में जो विशेष शब्द , जिन्हें तखलुस कहते हैं , वह उर्दू में ” उर्फ़” होता था जब कि हिन्दी में ” केवल ” होता था ।
मुन्शी जी ने आर्य समाज के प्रचार प्रसार में अपनी लेखनी का भी खूब सहारा लिया तथा अनेक पुस्तकें भी लिखी, तथा आर्य समाजका यह दीवाना १५ दिसम्बर १९०९ को इस जीवन लीला को समाप्त कर चल बसा । ध्यामंजूम,आर्यभिविनय मंजूम, आर्य विनय पत्रिका ,संगीत सुधाकर, भजनमुक्तावली आदि पुस्तकों के अतिरिक्त कुछ एसी पुस्तकें भी आपने अपने जीवन में लिखीं जो मांसहार आदि दुर्व्यस्नों तथा इन के परिणाम स्वरुप होने वाले घर तथा मित्र मंडली के झगडों आदि पर भी प्रकाश डालती हैं । एसी पुस्तकों में विचार पत्र, राजेसरबस्ता , हारेसदाकत या जबाबुलजुबाब आदि थीं, इनका प्रकाश न भी हुआ।
इस प्रकर जीवन प्रयन्त आर्य समाज की सेवा करने वाला यह दीवाना आर्य समाज की सेवा करते हुए अन्त में १५ दिसम्बर १९०९ इस्वी को इस चलायमान जगतˎ से चल बसा ।
डॉ. अशोक आर्य
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