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संजय पटेल को आप गूगल पर नहीं खोज सकते

गूगल हमारी संस्कृति और दिनचर्या का हिस्सा हो गया है, सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक गूगल के बगैर हमारा काम नहीं चलता। मगर क्या आप किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जिसने अपने अकेले के दम पर मुंबई से सटे हुए पालघर और थाणे जिले के आदिवासियों में हजारों आदिवासियों में अपनी ऐसी पहचान बनाई है जिसे पूरा आदिवासी समुदाय व्यक्तिगत रूप से जानता है और उनको हजारों लोगों के नाम मुँहजबानी याद है, लेकिन इस आदमी को आप गूगल पर खोजेंगे तो आपको निराशा हाथ लगेगी। श्री संजय पटेल एक ऐसे अनुपम व्यक्तित्व हैं जो अपने उदाहरण आप ही हैं। न प्रचार का शौक न किसी मंच पर बैठने की इच्छा। काम की धुन ऐसी कि आप उनकी ऊर्जा, सोच और लगन की बराबरी नहीं कर सकते। आप जहाँ सोचना शुरु करते हैं उसके बहुत आगे वो बहुत कुछ कर चुके होते हैं। विगत 25 सालों से वे लगातार थाणे और पालघर जिलों के आदिवासी क्षेत्रों में जो काम कर रहे हैं वो महाराष्ट्र की सरकारें, उनके अफसर, मंत्री और नेता नहीं कर पाए।

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एक संपन्न परिवार से संबध रखने वाले संजय पटेल इंजीनियर हैं और उन्होंने दुनिया में और भारत में कई बड़े बड़े सीमेट और बिजली प्लांट लगाए हैं। बिल्डर के रूप में भी काम किया लेकिन एक दिन मन उचट गया तो रम गए आदिवासियों की सेवा में। सेवा भी ऐसी कि दिखावा और नाटकबाजी नहीं, हर क्षण समर्पण, हर काम का परिणाम। खुद का अपना शानदार फार्म हाउस, बढ़िया गाड़ी सब कुछ है मगर काम सब फक्कड़ जैसा।

मुंबई से सटे पालघर और थाणे जिले देश के सबसे ज्यादा कुपोषण ग्रस्त जिले हैं। इस क्षेत्र में कोंकण, ठाकुर, वार्ली (जिनकी बनाई वार्ली पेंटिंग दुनिया भर में प्रसिध्द है) कातकरी ( ये सबसे गरीब हैं) संजय जी कहते हैं, ये सभी आदिवासी महासिध्द योगी हैं, इनको जीवन में कुछ नहीं चाहिए न कोई महत्वाकाँक्षा न कुछ करने की इच्छा और न कुछ करने का कोई मौका ही इनको मिलता है।

इन आदिवासी गाँवों और यहाँ के लोगों को इसाई मिशनरियों और उनके एऩजीओ ने हर तरह से निकम्मा बनाने का ऐसा षड.यंत्र चलाया है कि वे बगैर कुछ कामधाम करे मिशनरियों के धर्म परिवर्तन के शिकार होते रहे और आज भी हो रहे हैं। श्री संजय पटेल जब इऩ लोगों की गरीबी और इनकी समस्याओं की जड़ में गए तो उन्हें मिशनरियों और कम्युनिस्टों का खेल समझ में आ गया। उसी समय उन्होंने संकल्प कर लिया कि वे इस षड़यंत्र के जाल को तोड़ेंगे। आज इस अकेले आदमी ने अपने अकेले के दम पर पूरे पालघर जिले में अपने समर्पित कार्यकर्ताओँ की एक ऐसी फौज खड़ी कर ली है जो आदिवासी इलाकों के चप्पे चप्पे से वाकिफ हैं और समर्पित ऐसे कि गाँव गाँव के हर आदमी की छोटी से छोटी समस्या और परेशानी की जानकारी इनको होती है।

श्री संजय पटेल ने मुंबई सहित देश के अन्य शहरों के संपन्न वर्ग के लोगों को भी इन आदिवासियों से, इनकी समस्याओं से जोड़ा और यही वजह है कि जो काम हजारों करोड़ रुपये खर्च करके सरकारें इस क्षेत्र में नहीं कर पाई वो काम बेहद सीमित साधनों और मुठ्ठीभर समर्पित कार्यकर्ताओं के सहयोग से संजय पटेल ने कर दिखाया। संजय पटेल अपने आप में एक जीवंत संस्थान हैं, एक ऐसे विश्वविद्यालय हैं जिनकी प्रेरणा, ऊर्जा और मार्गदर्शन से अनपढ़, समाज से कटा हुआ और अपने दुर्भाग्य को कोसने वाला आदिवासी समाज जागरुक हो रहा है।

संजय पटेल के साथ आप बैठेंगे और उनके जीवन के किस्से सुनेंगे तो आप चमत्कृत रह जाएंगे, केंद्र व राज्य सरकारों की गरीबों के कल्याण की योजनाएँ कैसे दम तोड़ देते ही, वे बहुत कम शब्दों में आपको समझा देते हैं। उन्होंने कैसे खुद हर काम में अपने आपको झोंककर समस्याओं के दूरंदेशी समाधान निकाले ये सब जानकर आप हैरान रह जाएंगे। अपने व्ययसाय की वजह से दुनिया के कई देश घूम चुके संजय पटेल का जीवन प्राचीन ऋषियों जैसा है। दिन भर वे कुछ खाते पीते नहीं, पानी भी नहीं। सुबह और शाम बस एक गिलास देसी गाय का दूध उनका 24 घंटे का आहार है, लेकिन काम करने की ऊर्जा इतनी कि आप उनकी सोच और उनकी सक्रियता से बराबरी नहीं कर सकते। व्यावसायिक कामों से विदेश भी जाते थे तो देसी गाय के दूध का पाउडर लेकर जाते थे।


श्री संजय पटेल शहरी समाज खासतौर पर मुंबई के संपन्न समाज को सक्रिय रखते हुए इन आदिवासियों के लिए कई योजनाएँ चला रहे हैं। आदिवासी गाँव विक्रमगढ़ में उन्होंने एक भवन किराये पर लेकर छोटी बच्चियों के लिए सिलाई सीखने, बच्चों के लिए कंप्यूटर सीखने से लेकर कई व्यावसायिक कोर्स शुरु किए हैं। यहाँ दूर दूर से यानी आठ से पंद्रह किलोमीटर दूर से छोटे छोटे बच्चे और किशोर प्रशिक्षण लेने आते हैं। उनकी कल्पना यही है कि ये आदिवासी बच्चे कोई न कोई हुनर सीखकर आत्मनिर्भर हो जाएँ और अपनी बनाई हुई चीजें ये अपने ही और अपने आसपास के गाँवों में बेचें। वे कतई नहीं चाहते कि इनकी बनाई चीजें अमेजान या फ्लिपकार्ट पर बिके।

एक बार संजय जी के साथ इस वनवासी क्षेत्र में दौरे पर आए नासा के पूर्व वैज्ञानिक मुरलीधर राव यहाँ की स्थितियों से इतने द्रवित हुए कि उन्होंने एक ऐसा चूल्हा विकसित किया जिसके प्रयोग से ईंधन दोगुनी क्षमता से जलाया जा सकता है।

श्री संजय पटेल पूरे देश में भ्रमण करते हैं और देश के कई संस्थानों से जुड़े हैं जो समाज और राष्ट्र में परिवर्तन में अहम भूमिका निभा रहे हैं। वैसे तो उन्होंने कई अनगिनत काम हाथ में ले रखे हैं जो वनवासियों के लिए वरदान साबित हुए हैं। उनके प्रयासों से कम्युनिस्टों और इसाई मिशनरियों के चंगुल से वनवासी समाज बाहर आ रहा है, लेकिन फिर भी अभी बहुत कुछ करना बाकी है।

वे इऩ वनवासियों की एक एक समस्या को जड़ से समझते हैं। आप उनसे बात करें तो ऐसा लगता है मानो हम देश के हजारों साल पहले की कोई घटना सुन रहे हैं। वे बताते हैं, हजारों आदिवासी परिवारों की महिलाएँ सुबह से लेकर शाम तक 30 से 40 किलोमीटर प्रतिदिन पैदल चलती है।वह सुबह जल्दी घर से निकलकर जंगल जाती है और लकड़ियाँ बीनकर जव्हार (जो इस क्षेत्र का एक बड़ा गाँव है) में बेचती है, फिर दोबारा जंगल जाकर अपने चूल्हे के लिए लकड़ियाँ लाती है। आदिवासी परिवारों के मर्द कुछ काम नहीं करते, मिशनरियों और कम्युनिस्टों ने षड़यंत्रपूर्वक उन्हें निकम्मा बना रखा है।

इन महिलाओँ की दुर्दशा ऐसी है कि गर्भवती स्त्री तक बच्चे को जन्म देने के पहले क्षण तक मजदूरी करती रहती है। बच्चे को जन्म देने के तत्काल बाद भी मजदूरी करती है। बच्चे को खेत में या बीच सड़क पर पालती है। बच्चे को खुराक के नाम पर कुछ नहीं दे पाती है, जब भी बच्चा रोता है उसे ताड़ी पिला देती है।

गर्भवती महिलाओँ के लिए पोषण आहार से लेकर तमाम योजनाएँ सरकारी अफसर बनाते हैं, सरकारी ऑफिसों में दम तोड़ देती है और कागजों पर पोषण आहार बँट जाता है। सरकार के पास ऐसी कोई एजेंसी या व्यवस्था ही नहीं है कि वह ऐसी गर्भवती महिलाओं का सर्वेक्षण कर सही तरीके से उसे और बच्चे को पोषण आहार भिजवा सके। अधिकतर गर्भवती महिलाएँ नौकरी की तलाश में गुजरात राजस्थान या अन्य जगहों पर चली जाती है लेकिन सरकारी पोषण आहार उनको देना बता दिया जाता है।

संजय जी बताते हैं मनरेगा के नाम पर यहाँ एक आदिवासी परिवार को साल भर में मात्र 10 -12 दिन काम मिलता था, लेकिन उसके पैसे मिल जाएँ कोई गारंटी नहीं।

इऩ आदिवासी परिवारों की बदहाली देखिये बच्चा जैसे ही थोड़ा बड़ा होता है उसकी शादी कर दी जाती है, शादी के बाद लड़का और बहू अपना अलग झोपड़ा बना लेते हैं। इनकी शादियों का भी एक विचित्र तिलस्म है। गाँव के लोग और आदिवासी समाज किसी भी शादी को तब तक मान्यता नहीं देता है जब तक वो शादी के मौके पर पूरे गाँव को खाना ना खिलाए। खाना भी क्या, मात्र चावल और दाल। लेकिन ऐसी हैसियत हर किसी की नहीं होती, इसलिए वो शादी भी एक तरह से समाज की निगाह में अमान्य रहती है।

श्री संजय पटेल के समर्पित कार्यकर्ता रात-दिन गाँव गाँव में घूम-घूमकर ऐसे जोड़ों का पता लगाते हैं जिनकी शादी हुई है, फिर एक सामूहिक विवाह समारोह का आयोजन कर उनका विधिवत विवाह करवाकर पूरे गाँव को भोजन पर आमंत्रित करते हैं। अगर संजय जी ऐसा न करें तो इसाई मिशनरियां इन जोडों को क्रॉस पहनाकर उन्हें इसाई बना देती है।

संजय जी विगत 26 वर्षों से इस क्षेत्र में किसी समर्पित संत और ऋषि की तरह अपनी सेवाएं दे रहे हैं। पालघर और थाणे जिले में 1600 गाँवों का इतिहास भूगोल उनको पता है। आज उन्होंने अपना ध्यान थाणे व पालघर के 1428 गाँवों में केंद्रित कर रखा है। जव्हार, सेलवास, विक्रमगढ़ और से लेककर सुदूर गाँवों में उनके समर्पित कार्यकर्ताओं की टीम है।

मुंबई के श्री मेवाड़ माहेश्वरी मंडल द्वारा इन आदिवासियों को कंबल वितरण किया गया। इसमें संजय पटेल जी की टीम का काम देखने लायक था। जिन लोगों को कंबल दिया जाना था उनके नामों का चयन गाँव के पाँच लोगों की मौजूदगी में किया गया। इसके बाद चुने गए लोगों को बकायदा एक मुहर लगी पर्ची देकर जिस जगह कंबल देना था उस जगह बुलाया गया। इस तरह तीन गाँवों में हजार से ज्यादा लोगों को कंबल बाँट दिए गए और किसी तरह की कोई अव्यवस्था नहीं हुई।

इस कार्यक्रम में सहभागी होने का सौभाग्य मुझे भी मिला और पहली बार वनवासी क्षेत्रों से रू-ब-रू हुई नई मुंबई की श्रीमती निहारिका नाईक, उनके पति बैंकर श्री सिध्देश नाईक और उनके दोनों बच्चे अगस्त्य नाईक व अर्जुन नाईक और श्रीमती मंजूषा ने पहली बार गाँव और वनवासियों की असली जिंदगी देखी और देखकर हैरान रह गए कि इतने अभावों और समस्याओँ के बीच ये लोग कितनी मस्ती से रहते हैं।

श्री संजय पटेल ने अपनी एक सशक्त टीम बना रखीहै जिसमें लड़कियाँ भी हैं। ये टीम गाँव के हर व्यक्ति से जीवंत संपर्क में रहती है। इसमें संयोजक और सह संयोजक होते हैं। संजय जी ने क्षेत्र के 600 स्कूलों के माध्यम से भी पढ़ने वाले बच्चों को रोज़गार देने और उनको हुनर सिखाने की ज़बर्दस्त योजना बना रखी है। इसके माध्यम से उन्होंने युवाओं और किशोरों को प्रशिक्षित किया है जो खुद कोई काम सीखकर अपने जैसे दूसरे लोगों को काम सिखाते हैं। वे चाहते हैं कि ये लोग काम सीखकर स्कूलों में ही अन्य बच्चों को प्रशिक्षित करे। बड़ी कक्षा के छात्र अपने से छोटी कक्षा के छात्रों को पढ़ाए।

बच्चों को हुनरमंद बनाने के लिए संचालित उनकी इस निजी आईटीआई में अलग अलग बैच में 60 छात्र-छात्राएँ कंप्यूटर सीख रहे हैं। 60 लड़कियों के लिए ब्यूटी पॉर्लर कोर्स सिखाया जा रहा है। 60 लड़कियाँ सिलाई सीख रही है।

श्री संजय पटेल की कल्पना है कि खेती किसानी और स्थानीय प्रतिभाओं को विकसित कर गाँवों का विकास किया जाए। वे एक तहसील में एक सौ ऐसे बच्चे तैयार करना चाहते हैं जो अपने आसपास के बच्चों को प्रशिक्षित करे। गाँव के बच्चों को ड्रायविंग, प्लंबिंग और इलेक्ट्रिशियन जैसे कोर्स कराने के प्रयास में हैं ताकि वे बूढ़े होने पर अन्य बच्चों को ये काम सिखा सकें। संजय जी की पहल पर मुंबई सहित कई शहरों के लोग वनवासी बच्चों को किताबें, कॉपियाँ देते हैं। कोरोना काल में भी घर घर जाकर सर्वेक्षण कर उन लोगों तक अनाज, जावल और नमक पहुँचाया जिनके घर में ये चीजें रखने के बर्तन तक नहीं है। हजारों परिवारों में बर्तन के नाम पर एक थाली, गिलास या प्लास्टिक का मग्गा और बाल्टी ही होती है। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि सरकारें जो हजारों करोड़ रुपये गरीबों, गाँवों और वनवासियों के कल्याण पर खर्च कर रही है वो कहाँ जा रहा है। जव्हार में सरकारी बाबुओं, तहसीलदारों और अन्य अधिकारियों के रिसोर्ट जैसे बने मकान इस बात के गवाह हैं कि सरकारी पैसा जाता कहाँ है।