भाषाओं की मर्यादाएँ, सीमाएँ न केवल संवाद की मध्यस्थता तक हैं बल्कि राष्ट्र के समृद्ध सांस्कृतिक वैभव का परिचय भी भाषाओं के उन्नयन से ही होता है। जिस तरह समग्र विश्व में आज भारत की पहचान में तिरंगा, राष्ट्रगान वन्दे मातरम और राष्ट्रगीत जन-गण-मन है, उसी तरह भारत का भाषाई परिचय हिन्दी से होता है, और होना भी हिन्दी से ही चाहिए क्योंकि जनगणना 2011 के शासकीय आँकड़ों के आलोक में देश की लगभग 59 प्रतिशत आबादी प्रथम, द्वितीय अथवा तृतीय भाषा के रूप में हिन्दी बोलती, सुनती और समझती है।
अन्य भारतीय भाषाओं की स्थिति हिन्दी की तुलना में आधी भी नहीं है। साथ ही, वैश्विक भाषा का ढोल पीटने वाली अंग्रेज़ी भाषा की स्थिति भी भारत में 7% तक भी नहीं है। ऐसी स्थिति में बहुसंख्यक होने के बावजूद भी आज तक हिन्दी महज़ राजकार्य की भाषा यानी संवैधानिक दृष्टि से केवल राजभाषा के रूप में विद्यमान है।
जिस तरह एक राष्ट्र के निर्माण के साथ ही ध्वज, पक्षी, खेल, गीत, गान और चिह्न तक को राष्ट्र के स्वाभिमान से जोड़कर संविधान सम्मत बनाने और संविधान की परिधि में लाने का कार्य किया गया है तो फिर भाषा क्यों नहीं?
किसी भी राष्ट्र में जिस तरह राष्ट्रचिह्न, राष्ट्रगान, राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय पक्षी, राष्ट्रीय पशु की अवहेलना होने पर देशद्रोह का दोष लगता है परन्तु भारत में हिन्दी के प्रति इस तरह का प्रेम राजनैतिक स्वार्थ के चलते राजनीति प्रेरित लोग नहीं दर्शा पाए, उसके पीछे मूल कारण में तात्कालीन राजनीतिक दल के दक्षिण के पारंपरिक वोट बैंक टूटना भी है, परंतु अब हालात बदले हैं।
हाशिए पर आ चुकी बोलियाँ जब केन्द्रीय तौर पर एकीकृत होना चाहती हैं तो उनकी आशा का रुख सदैव हिन्दी की ओर होता है, हिन्दी सभी बोलियों को स्व में समाहित करने का दंभ भी भरती है, साथ ही, उन बोलियों के मूल में संरक्षित भी होती है। इसी कारण समग्र राष्ट्र के चिन्तन और संवाद की केन्द्रीय भाषा हिन्दी ही रही है।
विश्व के 178 देशों की अपनी एक राष्ट्रभाषा है, जबकि इनमें से 101 देश में एक से ज़्यादा भाषाओं पर निर्भरता है और सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि एक छोटा-सा राष्ट्र है ‘फ़िज़ी गणराज्य’, जिसकी आबादी का कुल 37 प्रतिशत हिस्सा ही हिन्दी बोलता है, पर उन्होंने अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी को घोषित कर रखा है। जबकि हिन्दुस्तान में 50 प्रतिशत से ज़्यादा लोग हिन्दीभाषी होने के बावजूद भी केवल राजभाषा के तौर पर हिन्दी स्वीकारी गई है।
राजभाषा का मतलब साफ़ है कि केवल राजकार्यों की भाषा।
आखिर राजभाषा को संवैधानिक आलोक में देखें तो पता चलता है कि ‘राजभाषा’ नामक भ्रम के सहारे सत्तासीन राजनैतिक दल ने अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर ली। उन्होंने दक्षिण के बागी स्वर को भी समेट लिया और देश को भी झुनझुना पकड़ा दिया।
राजभाषा बनाने के पीछे सन् 1967 में बापू के तर्क का हवाला दिया गया, जिसमें बापू ने संवाद शैली में राष्ट्रभाषा को राजभाषा कहा था। शायद बापू का अभिप्राय राजकीय कार्यों के साथ राष्ट्र के स्वर से रहा हो परन्तु तात्कालीन एकत्रित राजनैतिक ताक़तों ने स्वयं के स्वार्थ के चलते बापू की लिखावट को ढाल बनाकर हिन्दी को ही हाशिए पर ला दिया। किंतु दुर्भाग्य है कि हिन्दी को जो स्थान शासकीय तंत्र से भारत में मिलना चाहिए, वो कृपापूर्वक दी जा रही खैरात है। हिन्दी का स्थान राष्ट्र भाषा का होना चाहिए न कि राजभाषा का ।
जब अखिल विश्व में हिन्दुस्तानी प्रतिभा का लोहा माना जा रहा हो, राष्ट्राध्यक्षों की आँखें हिन्दुस्तान की ओर उम्मीद से देख रही हों, विश्व के तमाम बड़े व्यापारी भारत की ओर उम्मीद भरी टुकटुकी नज़रों से व्यवसाय की समृद्धता देख रहे हों, राष्ट्र में शासन करने वाले ही हिन्दी के समर्थक हों, उसके बाद भी हम अभी तक अपने देश में अब तक संवैधानिक रूप से अपनी ही भाषा को राष्ट्रभाषा घोषित नहीं कर सके, यह दुर्भाग्य है।
जबकि स्वतंत्र भारत की पहली संविधान सभा ने मात्र 15 वर्षों के बाद ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित करने का निश्चय किया था और यह इसीलिए ताकि देश में हिन्दी का ज्ञान और प्रचलन व्यापक रूप से हो सके, तथा नौकरशाही हिन्दी सीख सकें परन्तु इस घोषित लक्ष्य को पूरा करने या क्रियान्वित करने की दिशा में शासन की ओर से कोई पहल नहीं हुई।
हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की कल्पना महात्मा गांधी ने की थी। अंग्रेज़ी भाषा में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी, परन्तु वे राष्ट्र के विकास में राष्ट्रीय एकता में राष्ट्रभाषा के महत्त्व को समझते थे और उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के पीछे जो तर्क दिये थे, उसमें सबसे मज़बूत तर्क देश में हिन्दी का व्यापक जनआधार होना था। गांधी जी का कहना था कि जो भाषा देश में सर्वाधिक बोली या समझी जा सकती है, वह हिन्दी है, और हिन्दी के राष्ट्रभाषा बनने से
महात्मा गांधी ने इन्दौर से संकल्प लेकर हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव दिया था, फिर राष्ट्रभाषा के प्रचार का काम शुरु किया था, तो उसकी शुरुआत दक्षिण और तमिलनाडु से की थी। परन्तु अब तमिलनाडु के शासक अपने निहित स्वार्थों के लिए हिन्दी के प्रयोग के विरोध में हैं, हालांकि दूसरा पक्ष यह भी है कि दक्षिण की जनता हिन्दी विरोधी मानसिकता की नहीं है। दक्षिण में हिन्दी फ़िल्में और हिन्दी गानों का चलन बहुतायत में है। हिन्दी फ़िल्मों के नायक भी वहाँ काफ़ी प्रशंसा और लोकप्रियता पाते हैं।
स्व. डॉ. लोहिया ने जब अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन का सूत्रपात किया था तो उनका भी यह कहना था कि हिन्दी और क्षेत्रीय भाषायें परस्पर बहने हैं, राज्यों का कामकाज राज्य भाषा में हो और देश में हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में काम का आधार बने। उनका नारा था, ’’अंग्रेज़ी में काम न होगा, फिर से देश गुलाम न होगा, चले देश में देशी भाषा।’ डॉ.लोहिया अंग्रेज़ी को साम्राज्यवाद और शोषण की भाषा मानते थे और यह निष्कर्ष तथ्यपरक भी है।
आज भी अंग्रेज़ी देश में विषमता की भाषा है तथा देश के बहुसंख्यक लोगों का इसलिये शोषण हो पाता है क्योंकि वे अंग्रेज़ी नही जानते। देश की अदालतों में और शासकीय दफ़्तरों में इसलिए लुटना पड़ता है, क्योंकि वहाँ अंग्रेज़ी चलती है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज अदालतों की भाषा अंग्रेज़ी है, कानून अंग्रेज़ी में, सरकारी आदेश अंग्रेज़ी में होते हैं और इसलिए भारत का नागरिक उस अंग्रेज़ी का शिकार और शोषित होता है।
अब महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हिन्दी राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन पा रही है? इसके कारणों पर विचार किया जाना चाहिए। हमारा देश कुछ मामलों में बड़ा स्वपनदर्शी और भावुक भी है। अगर हमारा कोई शासक संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी बोल दे तो हम इसे शासक का दायित्व नहीं बल्कि एक ऐसी महान घटना के रूप में देखते हैं जैसे शासक ने भारत के ऊपर कोई कृपा कर दी हो। इतने ही मात्र से हम उसकी तारीफ़ के कसीदे पढ़ना शुरु कर देते हैं, और यह प्रश्न पूछना भूल जाते है कि अगर वे मानते हैं कि हिन्दी का प्रयोग करना शासक और शासन का नितांत आवश्यक गुण है तो फिर अपने देश में हिन्दी को राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बनाते? दरअसल, हमारे देश के शासकों में संकल्प शक्ति का बड़ा अभाव रहा है। राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण अब तक हिन्दी अभागन की तरह राष्ट्र के मुकुट के रूप में स्थापित नहीं हो पाई है।
हाँ! हम भारतवंशियों को कभी आवश्यकता महसूस नहीं हुई राष्ट्रभाषा की, परन्तु जब देश के अन्दर ही देश की राजभाषा या हिन्दी भाषा का अपमान हो, तब मन का उत्तेजित होना स्वाभाविक है। जैसे राष्ट्र के सर्वोच्च न्याय मंदिर ने एक आदेश पारित किया है कि न्यायालय में निकलने वाले समस्त न्यायदृष्टान्त व न्यायिक फ़ैसलों की प्रथम प्रति हिन्दी में दी जाएगी, परन्तु 90 प्रतिशत इसी आदेश की अवहेलना न्यायमंदिर में होकर सभी निर्णय की प्रतियाँ अंग्रेज़ी में दी जाती हैं और यदि प्रति हिन्दी में माँगी जाए तो अतिरिक्त शुल्क जमा करवाया जाता है।
दक्षिण में हिन्दीभाषियों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार भी सार्वभौमिक हैं। साथ ही, कई जगहों पर तो हिन्दी साहित्यकारों को प्रताड़ित भी किया जाता है। ऐसी परिस्थिति में कानून सम्मत भाषा अधिकार होना यानी राष्ट्रभाषा का होना सबसे महत्त्वपूर्ण है ।
कमोबेश हिन्दी की वर्तमान स्थिति को देखकर सत्ता से आशा ही की जा सकती है कि वे देश की सांस्कृतिक विरासत को सहेजने के लिए, संस्कार सिंचन के तारतम्य में हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित कर इसे अनिवार्य शिक्षा में शामिल करें। इन्हीं सब तर्कों के संप्रेषण व आरोहण के बाद ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा का सूर्य देखने को मिलेगा और देश की सबसे बड़ी ताक़त उसकी वैदिक संस्कृति व पुरातात्विक महत्त्व के साथ-साथ राष्ट्रप्रेम जीवित रहेगा।
डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं लेखक
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[ लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं]