Thursday, September 19, 2024
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चटकी चुड़ियां शिखा अग्रवाल/भीलवाड़ा

(करगिल विजय दिवस 26 जुलाई) 
अक्षर‌ छोटे हैं पर अश्रु बहाते हैं,
चिता पर जब मंगलसूत्र के मोती बिखर जातें हैं,
नव-विरांगना के बांसती सपने जब सूख जातें हैं,
चीर के रंग भी बेरंग हो जाते हैं।
पाक बांगडों का कब्जा था,
कारगिल की चोटियों पर आंतक का बीज उपजा था।
पर्दानशीं हमलवारों की हर चाल थी,
पर्दाफ़ाश करने वाला भारत का लाल‌ था।
बेखबर,सुप्त,सोई‌ मेरी माटी थी,
सौंधी-सौंधी महक में रंजिश की राख‌ सुलगी‌ थी।
खबर अचानक चरवाहे से मिली थी,
भारत-भू पर ज्वाला की‌ लहर चली थी।
तन गई बंदूकें, तैनात हो‌ गए हिन्द के‌ रणबांकुरे,
मातृभूमि बन गई क्षत्राणी लाड़ले आ‌ गये रण करने।
हिमगिरि बन मौत को गले लगाने,
एक-एक जवान‌ सज गया स्वाभिमान बचाने।
गोले-बारूद से धधक रही थी घाटियां,
रक्त से अभिषेक कर रही थी अनगिनत कुर्बानीयां,
इंतजार में पिया-मिलन के थी सैंकड़ों अर्धांगनीयां,
न मालूम था इतनी बेरहमी से चटकेंगी चूड़ियां !
कट-कट शीश हलाल कर रहे शूरवीर सेनानी,
पहाड़ों को नाखून से चीरने वाला हर वीर था हिंदुस्तानी।
बंकर-दर-बंकर दुश्मनों के तबाह करते गए,
उर अरि का हौंसलों‌ से उधेड़ते गए।
भीषण रण मौत का मंजर‌ था,
पडौसी ने घोंपा फिर छल‌ का खंजर था,
ज़र्रे-ज़र्रे पर गुलज़ार थी लाशें जहां भू बंजर था,
यम को आहुति देने वाला हिन्दूस्तानी‌ वीरों का लंगर था।
डर-खौफ-भय ने घुसपैठियों को पछाड़ा था,
विजय‌ दिवस का नगाड़ा दसों दिशाओं में बजाया था।
सिंदूर की शहादतों पर तिरंगा भी फूट-फूट रोया था,
कफ़न बन चटकी चुड़ियों की‌ खनक‌ ले गया‌ था,
सुजलाम-सुफलाम-मलयज-सितलाम का संदेसा दे गया था।
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