Wednesday, December 11, 2024
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मानसिक स्वस्थता के वैदिक उपाय

“वेद”   ईश्वर की  वाणी के आदेशों पर आचरण करके  सभी मनुष्य अपने मन को और अधिक स्वस्थ कर सकते हैं और जिनका मन अस्वस्थ हो

वे भी शीघ्र

स्वस्थ व प्रसन्न हो जाते हैं ।

आइये जानते हैं –

 

  1. धियो यो नः प्रचोदयात।

यजुर्वेद- 30/3

प्रसिद्ध गायत्री मन्त्र का यह मन्त्रांश प्रत्येक

स्वस्थ मन के अभिलाषी को ध्यान में रखना चाहिए।

इसका अर्थ है –

“मेरी बुद्धि और कर्मों को उत्तम प्रेरणा करे।”

 

अनुपालन – सभी मनुष्य सहज  ही जान जाते हैं कि कब वह गलत और हानिकर विचार कर रहे हैं। अतः जैसे ही मन में दुर्विचार आये उसे

उक्त मन्त्रांश को बोलते हुये ईश्वर से बुद्धि में सुविचार लाने की प्रार्थना करते हुये

दुर्विचार को त्यागने और ठीक ठीक विचार द्वारा कार्य प्रारम्भ कर देना चाहिए।

 

  1. तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु ।

यजुर्वेद 34/1

 

इस मन्त्रांश का पाठ वा जप

मन की प्रसन्नता के अभिलाषी को दिन भर में अनेक बार करना लाभकारी रहता है।

इसका अर्थ है –

“हे ईश्वर !मेरा मन सदैव सुसंकल्प करने  वाला हो।”

अनुपालन – जब भी कभी  सुमन के अभिलाषी को लगे की उसके मन में कोई दुर्विचार  आने से अनुचित कार्य करने की इच्छा आ रही है  उसे तुरन्त ही उक्त मन्त्रांश का ध्यान व उच्चारण करते हुये मन को सुविचार करके उस शुभकर्म  करने का संकल्प ले ले तो

उसका मन सुमन हो कर स्वस्थ और प्रसन्नता अनुभव करेगा।

 

  1. ततस्त ईर्ष्यां मुञ्चाणि ।

अथर्ववेद – 6/18/3

 

इसका अर्थ है –

“उस ईर्ष्या को तेरे से (तेरे मन से) छुड़ाता हूँ। ” मानसिक स्वास्थ्य को रोगग्रस्त करने में ईर्ष्या एक बहुत बड़ा कारण होती है।

ईर्ष्या के कारण मनुष्य दुर्विचार ➡️ दुः संकल्प ➡️ दुष्कर्म ➡️ दुर्मन ➡️ अप्रसन्नता वा  अवसाद(frustration) = मन की अस्वस्थता

तक पहुंच जाते हैं।

अनुपालन

जब  सु-मन का  अभिलाषी  बिन्दु 1. व 2. का अनुपालन करने लगता है तो उसमें अपने मन में बैठी ईर्ष्या को पहचानने का सामर्थ्य आ जाता है । बस जैसे ही उसे पता लगे कि मेरा मन ईर्ष्या कर रहा है तो उसे उक्त मन्त्रांश का पाठ करकेअपने मन से ईर्ष्या को निकलने का यत्न करे इसे उसका मन जान जायेगा कि ईर्ष्या को बाहर फेंकना है।

 

  1. इदमहमनृतात सत्यमुपैमि।

यजुर्वेद – 1/5

इसका अर्थ है

“मैं आज से से झूठ छोड़कर सत्य को प्राप्त होता हूँ।”

 

सामन्य रूप से मानसिक स्वास्थ्य में  ह्रास होने का एक महत्वपूर्ण कारण सत्य को स्वीकार न करना भी होता है। कुछ व्यक्ति परिस्थितियों, घटनाओं आदि में छुपी सत्यता को ग्रहण कर अपना व्यवहार परिवर्तन व परिवर्धन नहीं करते।  उनका मन वास्तविकता को स्वीकार न करके कुछ  आभासी परिस्थितियों का निर्माण कर लेते हैं और उस आत्मसम्मोह में जीते हैं, जो झूठ होता है। लेकिन जब झूठ के वास्तविक परिणाम सामने आते हैं तब वे भारी मानसिक दवाब अनुभव करते हुये  अवसाद में रहकर अप्रसन्न और दुःखी मन हो जाते हैं।

 

इस मन्त्रांश के अनुपालन में

सु और स्वस्थ मन के अभिलाषी को उक्त मन्त्रांशों का पाठ और ध्यान करके अपने

आस पास की घटनाओं परिस्थितियों के प्रति अपनी प्रतिक्रिया व व्यवहार का निरीक्षण करना चाहिए की उन घटनाओं  के प्रति मेरी प्रतिक्रिया और व्यहार क्या सत्य को स्वीकारता से हो रहा है? अथवा झूठ पर यदि  झूठ लगे तब उसको छोड़कर सत्य स्वीकारते हुये अपनी प्रतिक्रिया व व्यवहार करना चाहिए।

 

जैसे – अनेक विद्यार्थी समाज में प्रचलन , अपने को अच्छा लगने मात्र के कारण किसी विषय का अध्ययन  करने लगते हैं और सोचते हैं कि मैं  इसमें सफल हो जाऊँगा। लेकिन सत्य यह है कि वे केवल अच्छा, प्रचलन और दिखाने के लिये उस विषय को चुन बैठे थे न कि अपनी योग्यता के परिक्षण के आधार पर चुना था। अब  वह उनसे सम्भल नहीं रहा वे उससे न्याय नहीं कर पा रहे हैं।

लेकिन दिखावा और “लोग क्या कहेंगे”  का विचार करके न सफल हो  पाते हैं और न ही उसे छोड़ पाते हैं। ऐसे समय पर विद्यार्थी को बिना विलम्ब के ही “सत्य” कि  “यह मेरे अनुकूल नहीं” और मैं किसी अन्य में सर्वोत्तम कर के दिखा सकता हूँ  विचार कर वीरता पूर्वक झूठ छोड़कर सत्य को ग्रहण कर लेना चाहिए।

 

  1. पूजनीय प्रभु हमारे भाव उज्ज्वल कीजिए।

छोड़ देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिए।

 

अनुपालन

इन पक्तियों को बार बार उच्चारण करते हुये ध्यान करें कि क्या वास्तव में मेरा चिन्तन स्वस्थ शुभ संकल्प से कार्य करने का है? और मैं ऐसा करने का  दिखावा (छलकपट) तो नहीं कर रहा हूँ?

 

यदि नहीं कर रहा तब तो ठीक और यदि छलकपट कर रहा हूँ तो मेरे

“भाव उज्ज्वल”  = सु-मन = मानसिक प्रसन्नता

नहीं हो सकेंगे अर्थात् मैं मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं रह सकूंगा।

अत: मुझे छलकपट (दिखावा) छोड़ने पर ही  मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त हो सकेगा

 

उक्त पाँचो मन्त्राशों को प्रत्येक मनोबल अभिलाषी प्रात: सांय बैठ कर शांतचित्त से विचार करना चाहिए कि मैं कितना सफल हुआ और कितना असफल

और सत्य स्वीकार करते हुए अधिक प्रयास करते जायें तो शीघ्र ही वह अत्यधिक  बलिष्ठ मन युक्त हो जायेगा ।यद्यपि वेद के सहस्रों मन्त्र मानसिक स्वस्थकर हैं लेकिन उक्त से भी सम्पूर्ण लाभ मिलता ही है।

एक निवेदन

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