हम महिला श्रृंगार की चर्चा कर रहे हैं तो पाते हैं की प्राचीन समय से ही सोलह श्रृंगार के अतिरिक्त शरीर के विभिन्न अंगों को आकर्षक बनाने के लिए गुदना गुदवाने की परंपरा भी काफी पुरानी है। भारत के प्राय : सभी राज्यों में खास कर उत्तर और मध्य भारतीय राज्यों में और दुनिया के कई देशों में अंगों पर विविध प्रकार के गुदने बनवाने का प्रचलन आज भी है। गुदना गुदाने का प्रचलन अमूमन आदिवासियों और जनजाति की महिला कोओं और पुरूषों में समान रूप से पाया जाता है। गुदने का परिष्कृत रूप वर्तमान में ” टैटू ” के रूप में खूब प्रचलित हो रहा है। टैटू आज फैशन में शुमार हो गया है।
पुराने समय से गुदना क्यों गुदाते थे और इसका प्रचलन कैसे हुआ इसके विस्तार में न जा कर हम इसके श्रृंगार पक्ष को ही देखते हैं। खूबसूरत लगने की भावना से महिलाएं अपने माथे पर, गालों पर, थोड़ी पर, बांहों पर कोहनी के ऊपर और नीचे के हिस्से पर, पीठ पर, छाती पर, कूल्हे पर, जांघों और पिंडलियों पर गुदने बनवाती हैं। राजस्थान में भील, मीना, सहरिया, गरासिया, गडिया लुहार सहित देश के अन्य हिस्सों के आदिवासी गुदना गुदा कर प्रश्न होते हैं। गुदनों का रंग प्राय : गहरा नीला, काला या हल्का लाल रहता है। मेलों में गुदना गुदाते महिलाओं को देखा जा सकता है।
कुछ देशों या जातियों में रंगीन गुदने गुदवाने की प्रथा है तो कुछ में केवल क्षत चिह्नों की। परंतु कुछ ऐसी भी जातियाँ हैं जिनमें दोनों प्रकार के अंकन प्रचलित हैं यथा, दक्षिण सागर द्वीप के निवासी। ऐडमिरैस्टी द्वीप में रहने वालों, फिजी निवासियों, भारत के गोड़ एवं टोडो, ल्यू क्यू द्वीप के बाशिंदों और अन्य कई जातियों में रंगीन गुदने गुदवाने की प्रथा केवल स्त्रियों तक सीमित है या थी। मिस्र में नील नदी की उर्ध्व उपत्यका में बसने वाले लटुका लोग केवल स्त्रियों के शरीरों पर क्षत चिह्न बनवाते हैं। रंगीन गुदनों के पीछे प्राय: अलंकरण की प्रवृत्ति होती है जब कि क्षतचिह्नों का महत्त्व अधिकतर कबीलों की पहचान के लिए रहता है। अफ्रीका के अनेक आदिम कबीले क्षत चिह्नों को पसंद करते हैं और मध्य कांगों के बगल शरीर अलंकरण हेतु पूरे शरीर पर क्षतांक बनवाते हैं।
कहीं-कहीं विवाह और गुदनों में परस्पर गहरा संबंध रहता है। सालामन द्वीप में लड़कियों का विवाह तब तक नहीं हो पाता जब तक कि उनके चेहरों और वक्षस्थलों पर गुदने न गुदवा दिए जाएँ। आस्ट्रेलिया के आदिवासियों में विवाह से पूर्व लड़कियों का पीठ पर क्षत चिह्नों का होना अनिवार्य है। फारमोसा निवासियों में विवाह से पहले लड़कियों के चेहरों पर गुदने गुदवाए जाते हैं और न्यूगिनी के पापुअन विवाह से पूर्व लड़कियों के पूरे शरीर पर (मुँह को छोड़कर) गुदने गुदवाते हैं। न्यूजीलैंड के माओरिस लोगों तथा जापानियों ने रंगीन गुदनों का विकास उच्च कलात्मक रूप में किया था। किंतु अन्य कई जातियों की तरह इन दोनों ने भी सभ्यता के प्रकाश में गुदना प्रथा को अधिकतर त्याग दिया है। मलय जाति में गुदनों को पुरस्कार स्वरूप ग्रहण किया जाता है और केवल सफल तथा प्रमुख शिकारी ही गुदने गुदवाने के अधिकारी होते हैं। सभ्य देशों के नाविक भी बहुधा किसी एक रंग के गुदने अपने हाथों और छातियों पर गुदवाते हैं जिनकी आकृति प्रायरू तारे या ध्वज की होती है।
भारत में स्त्रियाँ ही गुदनों की शौकीन होती हैं लेकिन पुरुषों में वैष्णव लोग शंख, चक्र, गदा, पद्म विष्णु के चार आयुधों के चिह्न छपवाते हैं और दक्षिण के शैव लोग त्रिशूल या शिवलिंग के। रामानुज संप्रदाय के सदस्यों में इसका चलन अधिक है। ओम का चिह्न भी लोग हाथों पर बनवाते हैं और बहुत सी स्त्रियाँ पति के नाम बाहों पर गुदवा लेती हैं।
छत्तीसगढ़ में गुदना बनाने वाले बादी लोगों के मुताबिक हैं नगेसिया और पहाड़ी कोरबा आदिवासी गोदना नहीं कराते, इनके अतिरिक्त सभी आदिवासी गोदना कराते हैं। भिन्न-भिन्न आदिवासी समुदायों की पसंद भी अलग-अलग होती है। कंवर आदिवासी हाथी का मोटिफ अधिक बनवाते हैं। बड़ीला कंवर बुंदकिया गोदना और पोथी मोटिफ बनवाते हैं। रजवार जाति की महिलाएं जट मोटिफ बनवाना पसंद करतीं हैं। इस क्षेत्र में सींकरी, डोरा, लवंगफूल, करेला चानी, हाथी, पोथी, चक्कर, जट, चाउर, फुलवारी, चिरई गोड़, चंद्रमा, कोंहड़ा फूल, अरंडी डार, मछली, भैसा सींघ, करंजुआ पक्षी, कडाकुल सेर, सैंधरा और मछली कांटा जैसे मोटिफ लोकप्रिय हैं। आधुनिक समय में शहरों में ही नहीं गावों में भी ” टैटू ” लोकप्रिय हो कर फैशन बन गया हैं। महिला और पुरुष दोनों में ही यह लोकप्रिय हो गया हैं। इनमें विभिन्न प्रकार की छोटी – बड़ी सुंदर आकृतियां बनवाई जाति हैं।
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डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवं पत्रकार, कोटा