स्त्री की सार्थक भूमिका तलाश करता डॉ.क्षमा चतुर्वेदी सृजन

महिला सशक्तिकरण के दौर में जब की हर क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर ऊंचाइयां छू रही हैं एसे में भी सदियों पुरानी सामाजिक परम्पराओं में महिलाें की स्थित में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। हम अपने आप को कितना भी आधुनिक और प्रगतिशील कहें परंतु सदियों पुरानी सामाजिक रूढ़ियां और मान्यताएं आज भी अपनी जड़ें जमाए हैं। दहेज, बाल विवाह, कन्या हत्या, अंधविश्वास, नारी अत्याचार, लिंग भेद, नशा कर पत्नी को मरना पीटना आदि आज के प्रगतिशील समाज की सच्चाई है । पहले जहां बालिका के जन्म को हेय दृष्टि से देख उन्हें मारने के कई तरीके थे उससे भी आगे बढ़ कर अब तो भ्रूण परीक्षण के नाम पर कोख में ही मार दिया जाता है। यह कड़वा सच्च महिला सशक्तिकरण के प्रयासों की परतें उधेड़ने को पर्याप्त है।
आज की दुनिया में भी जहां टी.वी. पर आधुनिक टैक्नोलॉजी, फैशन और नई औरत की सूचना मिलती है, वहीं ज्योतिषियों, तांत्रिकों और बाबाओं की भीड़ भी नजर आती है। अंधविश्वास आज भी गहरी पैठ जमाए हुए हैं। समाज में परिवर्तन इन्हीं कारणों से कठिन संघर्ष के बाद धीमी गति से होता है। पहले मानसिकता में परिवर्तन आता है, फिर व्यवहार में। अपने जीवन में और साहित्य में इस परिवर्तन को महसूस कर कथाकार डॉ.क्षमा चतुर्वेदी ने अपनी कहानियों तथा उपन्यासों में इस परिवर्तन को अभिव्यक्ति देने का प्रयास  किया है।
 सकारात्मकता का स्पंदन सामाजिक सरोकारों के प्रति जागरूक करता है। इनका अधिकांश कथा लेखन स्त्री की स्त्री होने की पहचान, उसकी अस्मिता तथा स्वाभिमान से जुडा़ है। परन्तु जिस रूप में स्त्री विमर्श को ध्वनित किया जा रहा है, इनका रचना कर्म उससे कहीं बाहर रहकर स्त्री की सार्थक भूमिका तलाश करता दिखाई देता है।
एक साक्षात्कार में इन्होंने बताया कि   आज स्त्री विमर्श एक लोकप्रिय विषय हो गया है। दरअसल इसके पीछे स्त्री के सुख-दुख, उसकी आत्मनिर्भरता और उसके अस्तित्व के बुनियादी सवाल नहीं है, वरन किस प्रकार वह अमेरिकन या यूरोपियन औरत की भांति एक उत्तेजक सैक्स सिम्बल बन सकती है इसकी अधिक चर्चा है। स्त्री को किस प्रकार उसकी निजी शख्शियत उसके मातृत्व, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि और उसकी सांस्कृतिक गरिमा से छीनकर एक बिकाऊ कमोडिटी में बदल दिया जाय इसकी अधिक चिंता है। देखते ही देखते गत 25 वर्षों में साहित्य का परिदृश्य बदल सा गया है।
नारी विमर्श को लेकर जो महिला कथाकार या कहानियां चर्चित होने लगी हैं, उनकी पहली विशेषता यही हो गई है कि किस प्रकार कहानी में स्त्री देह अपने तन-मन के गोपनीय रहस्यों को पुरूष पाठकों के लिए किस सीमा तक अनावृत करती चली जाए । आज भारत की सामान्य औरत की समस्या औरत के भीतर औरत होने की समस्या है। वह अपने स्त्री होने की दैहिक और मानसिक कमजोरियों को समझकर उससे बाहर निकलने की अनवरत जिजीविषा में संलग्न है। यहां औरत की मुक्ति उसकी देह में ढलकर एक बिकाऊ कमोडिटी बनकर अधिक से अधिक अनावृत होते जाने में नहीं है। भारतीय परिदृश्य में हजार वर्ष पहले भी स्त्री सामान्य सुविधाओं को पाने के लिए अपनी देह को बेचती आ रही है। परन्तु तब उसकी देह का उतना महिमा मंडन नहीं था, आज फिल्म जगत हो या छोटे पर्दे का टेलीविजन या इंटरनेट हो, नारी विमर्श के लिए जिस स्त्री देह को परोसा जा रहा है, वह उसका सम्मान नहीं है। लगता है जैसे कि पैसा कमाना ही जीवन का सबसे बड़ा मूल्य बन गया है।
महिला जगत की अपनी समस्याएं हैं, चाहे निरक्षर खेतीहर मजदूर स्त्री की समस्या हो या कामकाजी महिला, या फिर स्कूल जाती छोटी लड़की हो या वृद्ध महिला, एक पूरी औरत को उसके दैहिक, मानसिक और सामाजिक परिदृश्य में लिखने वाली महिला कथाकारों की संख्या बहुत बढ़ी है, वे इन समस्याओं से जूझती हैं और लिख रहीं हैं। महिलाओं की बेशुमार समस्याएं हैं और इन महिलाओं के लिए मात्र दैहिक स्वतंत्रता ही एक बहुत बड़ी समस्या नहीं है। जबकि मूल समस्या है स्त्री को अपने अस्तित्व की, अपनी चेतना को परिष्कृत करने की और अपनी जागृति की है। औरत को अपनी कमजोरियों पर विजय पानी है और अपनी स्वयं की पहचान बनानी है।
रचनाकार क्षमा चतुर्वेदी के जिस रूप में आज नारी विमर्श की चर्चा होती है उस रूप में स्त्री को संवेदित करने में विश्वास नहीं करती, स्त्री विमर्श मात्र सैक्स फ्रीडम नहीं है, इस रूप में वे वैज्ञानिक बोध और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से सन्निहित उस स्त्री के पक्ष में अपने-आपको खड़ा पाती हैं जो अपनी अस्मिता और विवेक के आधार पर अपनी राह चुन सकती हो। इनका साहित्य स्त्री की सकारात्मक अस्मिता का पक्षधर है।
ऐसे  ही सन्दर्भों को अपनी रचना प्रक्रिया के माध्यम से सामने लाने का सार्थक प्रयास है इनका कहानी संग्रह ’ख्वाहिशें’। जिसकी कहानियां सामाजिक परिवर्तन की दशा एवं दिशा के साथ नारी की सकारात्मक एवं सार्थक भूमिका की तलाश करता है। इनकी कहानियों पर कथाकार और समीक्षक विजय जोशी का कहना है “यह कहानी संग्रह इस बात का भी प्रमाण है कि जीवन में कठिन संघर्ष के पश्चात् जो मानसिक परिवर्तन होता है उससे प्रभावित होकर व्यक्ति के व्यवहार में जो बदलाव आता है वह किस दिशा में व्यक्ति को ले जाता है और उस यात्रा में उसे किन-किन पड़ावों पर अनुभूति के दायरों से होकर निकलना पड़ता है।”
इसी अनुभूति को महसूस कराती कहानी ’फासले’ में एकाकी जीवन और संयुक्त जीवन के अनुभवों को अपने भीतर तक विलोपित होते देखते रामबाबू की मनःस्थिति का सजीव चित्रण किया गया है, जब वे अपनी पत्नी शोभा के लिए सोचते कि वह उनके पास बैठे, सुख-दुःख सुने। पर वह तो बहू, पोतों-नातियों में व्यस्त रही। रामबाबू सोचते रह जाते कि क्यों शोभा उनकी सहयोगिनी नहीं बन पाई। वह क्यों नहीं सोच पाती कि वे कितने अकेले रह गये हैं। वे सोचते कि शायद वे ही बच्चों में घुलमिल नहीं पाये हों। उन्हें लग रहा था ये सोचले उन्होंने खुद ही अपने और शोभा के बीच जो पुल बनाये थे, उन्हें पाटना उनके बस की बात नहीं रही है। उन्हें तो भरे-पूरे परिवार में भी कोलाहल के मध्य अनवरत सन्नाटा लगता रहा था। वे बिल्कुल अकेला, नितांत अकेला महसूस करते हैं।
 इनकी कहानी ” कश्मकश ” में लड़कियों के जन्म को लेकर अन्दरूनी ऊहापोह का सटीक चित्रण किया गया है। कहनी में तीसरी औलाद भी बच्ची हो तो जमुना और लीलाबाई ही क्या समाज के हर तबके के परिवार में आंतरिक भूचाल करवटें लेता है। पर जया के समझाने पर जमुना तीसरे बच्चे को जन्म देने की सोचती है। वह लड़की होती है। जया को अपने पति सुरेश के साथ ही रहने का अवसर ट्रांसफर होने से मिलता है। परन्तु वह जमुना को  संभालने के वादे को पूरा न कर पाने की कसक से व्याकुल हो जाती है। तथापि वह सहायता करती है और जब जमुना की बेटी आशा को अपनी दादी लीलाबाई को संभालते देखती है तो जया के अपराध बोध की कसक मिट जाती है।
लड़के-लड़की के भेद की कहानी ’अनकही’ में अपने परिवार के प्रति समर्पित सुजाता के संघर्षमयी जीवन की दास्ताँ को शब्द प्रदान करते हुए बताया गया है कि कैसे सुजाता की माँ सुजाता को उसकी निःस्वार्थ सेवा के लिए सराहती नहीं है और  हमेशा अपने बेटे दीपक की ही तारीफ करती। तब भी जबकि उसके प्लास्टर चढ़ा था और वह बेटे-बहू की उपेक्षा के कारण सुजाता के साथ आयी थी। क्या बेटे हमेशा बेटी की तुलना में भारी पड़ते हैं। ’अनकही’ में यही प्रश्न अनुत्तरित सा होकर पारंपरिकता की टोल लेने लगता है।
इनकी कहानी “अनचाही” पढ़ाई के महत्त्व और आजकल के बच्चों की जिद्द के मध्य की चाहत को बयां करती है।  श्वेता को पढ़ाई का महत्त्व तब समझ आया जब उषा ने कहा कि ’इतनी पढ़ी-लिखी नहीं हूँ, मुझे तो चपरासी की ही नौकरी मिल जाये तो बहुत है। ’एक भले घर की लड़की की यह बात सुनकर श्वेता अपनी जिद्द से बाहर आती है। वह कहती है, ’माँ, मैं भी अब कॉलेज में एडमिशन लूँगी…।’  “दरियान्ंश” कहानी में पति-पत्नी के मध्य की मानसिक दूरियों का बारीक विश्लेषण किया गया है। रिश्तों की तासीर और सम्बन्धों की बनावट का अहसास कराती है ’सूखते सागर’ कहानी।”अपराजिता” कहानी संदेश देती है कि माँ जैसा सब्र, प्रयास और समर्पण किसी में होता है? नहीं ना। भौतिक चकाचौंध से सराबोर जिन्दगी के पड़ावों को सामने लाती कहानी ’’बनते-बिगड़ते समीकरण’’ जिसमें पूरबा के माध्यम से नारी की मनःस्थिति के बनते-बिगड़ते समीकरणों का रेखांकन किया है। कहनी “औकात” नारी के समानाधिकार की चर्चा और सम्बन्धों की पोल खोलती है।
कहनी संग्रह की शीर्षक  कहानी  ” ख्वाइश” में व्यक्ति के मन की चाह, अपेक्षा और द्वंद्व को मार्मिक रूप से उभारा है । पीपल बाबा के वृक्ष को आधार बना कर कहानी में पीपल बाबा वृक्ष के चबूतरे पर बड़की, छुटकी और मँझली हमेशा की तरह आते-जाते उतार-चढ़ाव को  पीपल बाबा के समक्ष बयाँ करती हैं। सब कुछ होते हुए भी कुछ रीता-सा लगता है जिसे वे तीनों महसूस करती हैं। इसीलिए पीपल वृक्ष सोचता है उन ख्वाहिशों के बारे में जो पूरी होकर भी कभी पूरी नहीं होती। इसी सच को अहसास कराते हैं कि ख्वाहिशों के पीछे न भागकर जीवन के आनन्द में वह  जीवन के पड़ाव तलाशें जो स्व के अस्तित्व को उभार कर एक सुकून दे।
रचनाकार की कहानियों के कतिपय उक्त प्रसंग स्पष्ट करते हैं  कि व्यक्ति की मानसिकता में परिवर्तन जिस तेजी से हो रहा है उसी तेजी से व्यवहार में परिवर्तन आ रहा है। यह परिवर्तन जहाँ रिश्तों की  संवेदनाओं में कठोरता का अहसास करा रहा है वहीं सम्बन्धों की दृढ़ता को खोखला करता जा रहा है।
संवाद और परिवेश के चित्रण एवं पात्रों के भाव-अनुभावों के क्रियाकलापों द्वारा लेखिका ने विषयवस्तु को  जिस मार्मिक रूप से अभिव्यक्ति दी है ,यही कहानियों की विशेषता है।
हिंदी भाषा में लिखी इनकी कहानियों, बाल कहानियों और उपन्यासों की भाषा अत्यंत सरल और सहज है। सभी रचनाएं बोलती हुई प्रतीत होती हैं। पात्रों के हाव-भाव, दुख-दर्द और खुशी पाठकों को गहराई तक सोचने को मजबूर करते हैं। रचना के अनुरूप परिवेश और विषयवस्तु महान कहानीकार और उपन्यासकार मुंशी प्रेम चंद की याद दिलाते हैं।पिछले पचास वर्षों से लेखन करने वाली रचनाकार का मर्म है लोगों को आगे बढ़ने की प्रेरणा मिले। अब तक साहित्यिक यात्रा में लगभग 300 कहानियां और 500 बाल कहानियां लिख चुकी हैं।
इनके तीन उन्यास भी सामाजिक और पारिवारिक समस्याओं को रेखांकित कर लिखे गए हैं। उपन्यास “अपराजिता” महिलाओं में अंध विश्वास पर चोट करता है। उपन्यास” छाया मत छूना मन” पारिवारिक जीवन के संघर्षों में आगे बदने की प्रेरणा देता है। उपन्यास “अपने हिस्से की धूप” भी एसे ही विषयों पर है। उपन्यासों के साथ-साथ 2021 तक इनकी ग्यारह कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें ‘ सूरज डूबने से पहले’,‘एक और आकाश’, मुट्ठी भर धूप’, ‘चुनौती’, ‘अपनी ही जमीन पर’, ‘अनाम रिश्ते’, ‘ स्वयं सिद्धा’ , ‘ ख्वाइशें ‘,’ निःशब्द ‘, ‘ बेधर’ ‘ बेबसी ‘ और’ वसंत की प्रतीक्षा’ कहानी संग्रह हैं।
इनके बारह बाल कथा संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें ‘खरगोश के सींग’, ‘गधे की अक्ल’, ‘मुनमुन के पटाखे’, ‘जंगल में मंगल’, ‘समय का मूल्य’ ‘म्याऊं की खीर’, ‘टिंकू का स्कूल’, ‘चुपके-चुपके, खेल-खेल में, ‘बया की दावत’, ‘खोमचे वाला’, ‘बड़ा कौन’ बाल कथा संग्रह हैं।
इनके कथा साहित्य पर एक लघु प्रबन्ध और दो एम. फिल. प्रबन्ध लिखे जा चुके हैं। एक  शोध प्रबन्ध पूर्ण हो कर शोधार्थी को पीएच. डी. की उपाधि अवार्ड हो गई है और एक शोधार्थी वर्तमान में शोध कर रहा है।
परिचय :
सामाजिक परिवेश और समस्याओं पर खास कर महिलाओं के संदर्भ में सृजनरत कथा लेखिका डॉ.क्षमा चतुर्वेदी का जन्म इलाहबाद में 1945 में पिता सतीश चंद और माता स्व. कलावती के आंगन में हुआ। पिता इलाहबाद से इंदौर आ गए और इनकी समस्त शिक्षा इंदौर में हुई।आपने गणित विषय में एम.एससी.की डिग्री और पीएच.डी.की उपाधि प्राप्त की।
संयोग है की गणित जैसे विषय में शिक्षा प्राप्त कर आज प्रसिद्ध कथाकार के रूप में पहचान बनाई। इनकी माता भी साहित्य प्रेमी होने से इन्हें भी साहित्य के संस्कार मिले और कॉलेज के समय से ही ये भी लिखने लगी। इनका विवाह  साहित्यकार पति नरेंद्र नाथ चतुर्वेदी से होने से इनके लेखन को पंख लग गए। इनकी कहानियां और विविध विषयों पर आलेख देश की सभी पत्र- पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित होते हैं।
राजस्थान साहित्य अकादमी ,उदयपुर द्वारा वर्ष 2012 के लिए  विशिष्ठ साहित्यकार सम्मान और 51 हजार रुपए की राशि से पुरस्कृत होने के साथ – साथ विभिन्न संस्थाओं द्वारा आपको सम्मानित किया गया। आज भी आप निरंतर साहित्य सृजन में रत हैं।
संपर्क :
1 ल 1 , दादाबाड़ी
कोटा,324009 ( राजस्थान )
मोबाइल : 8239479566
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लेखक
डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवं पत्रकार, कोटा

डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
डॉ.प्रभात कुमार सिंघल

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