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समुद्र के आँसू कौन पोंछेगा

सागर मंथन का पुराना मिथक अपने आप में यह संदेश समेटे हुए है कि सबके अस्तित्व के लिए समुद्र की मौजूदगी अनिवार्य है। उस मिथक में समुद्र अमृत और विष दोनों को धारण किए हुए है। एक जीवनदायी है तो दूसरा सर्वनाश कर सकता है। अगर भगवान शिव ने विषपान नहीं किया होता और उसे अपने कंठ में नहीं धारण नहीं किया होता तो समुद्र से निकलने वाली सारी अद्भुत वस्तुएं निस्सार हो गई होतीं। उनका कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। ऐसी वस्तुओं में कामधेनु गाय, कल्पवृक्ष समेत तमाम बेहतरीन वस्तुएं शामिल थीं। क्या आज भी यह बात सही नहीं प्रतीत होती? मानवता एक बार फिर समुद्र का विचारहीन तरीके से दोहन कर रही है। जहरीला कचरा, प्लास्टिक और तमाम अन्य नुकसानदेह पदार्थ समुद्र में मिलाए जा रहे हैं। जल्दी ही समुद्र के भीतर मौजूद जलीय जीव तथा अन्य अकूत खजाने जहरीले पानी के शिकार हो जाएंगे। समुद्र का पानी आधुनिक हलाहल बनकर रह जाएगा। इस बार फर्क केवल यह है कि कोई भगवान शिव नहीं हैं जो इस हलाहल को पीकर मानवता की रक्षा करें।

हमारे सागरों की हालत में आ रही खराबी कोई नई बात नहीं है लेकिन अब यह ऐसी स्थिति में पहुंच गई है जहां पृथ्वी का पूरा पर्यावास संतुलन बिगडऩे का खतरा उत्पन्न हो गया है। दरअसल हम समुद्रों को हल्के में ले रहे हैं। समुद्र का विशाल आकार अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि उसमें मिलने वाला जहर कितने बड़े पैमाने पर संसाधनों को नुकसान पहुंचाएगा। हम अपने समुद्री क्षेत्र पर जरूरत से ज्यादा दबाव डाल रहे हैं। उधर, वैश्विक जलवायु परिवर्तन इसे अलग ढंग से प्रभावित कर रहा है।

पृथ्वी के मौसम का सीधा संबंध समुद्रों की स्थिति से है। समुद्री लहरों की दिशा व उनका रुख और समुद्री पानी की रासायनिक अवस्था भी उसे प्रभावित करती है। वर्ष 2011 में ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय के एक शोध समूह ने समुद्र में बढ़ते अम्ल को लेकर चिंता जाहिर की। उसका कहना था कि वातावरण से भारी मात्रा में काबॅन डाइऑक्साइड का अवशोषण इसके लिए उत्तरदायी है। रिपोर्ट में कहा गया कि इसके चलते समुद्र में ऑक्सीजन का स्तर कम होता जा रहा है जिसका प्रभाव समुद्री जीव-जंतुओं और वनस्पतियों पर भी पडऩा तय है।

दुनिया भर के समुद्रों में ऐसे क्षेत्र पनप चुके हैं जहां जीवन की संभावना ही समाप्त हो चुकी है। पिछली गिनती के वक्त ऐसे 405 क्षेत्र विकसित हो चुके थे और अगर तत्काल उपाय नहीं किए गए तो इनकी तादाद और अधिक बढऩी तय है। ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय के इसी समूह ने चेतावनी दी थी कि इन मृत क्षेत्रों के कारण अतीत में भी बड़ी तादाद में समुद्री प्रजातियां नष्टï हो चुकी हैं और भविष्य में एक बार फिर ऐसा देखने को मिल सकता है।

यह आधुनिक हलाहल कहां से आ रहा है? इसका एक बड़ा स्रोत है कृषि क्षेत्र से आ रहा प्रदूषण। खासतौर पर रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का बढ़ता इस्तेमाल नदियों और समुद्र को प्रदूषित कर रहा है। शहरी कचरा भी बहुत बड़ी तादाद में अनुपचारित ढंग से नालियों के माध्यम से समुद तक पहुंचता है। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि बंगाल की खाड़ी में और मुंबई के आसपास के समुद्र में ऐसे मृत क्षेत्र विकसित हो रहे हैं।

सबसे खतरनाक और तेजी से समुद्र में जगह बनाता कचरा है प्लास्टिक। प्लास्टिक का कचरा एक तरह से समुद्र का दम घोंट रहा है और इसके बावजूद हम अब भी हर वर्ष 80 लाख टन प्लास्टिक समुद्र के हवाले कर रहे हैं। प्लास्टिक आसानी से नष्टï नहीं होता है और इसे पूरी तरह अपघटित होने में करीब 400 साल का वक्त लगता है। समुद्र की सतह पर अब तक प्रति वर्ग किलोमीटर 13,000 प्लास्टिक के टुकड़े औसतन हैं। प्रशांत महासागर में प्लास्टिक का कचरा टैक्सस शहर के आकार का है। इतना ही नहीं प्लास्टिक का कुछ हिस्सा ऐसा है जो सूक्ष्म टुकड़ों में अपघटित होकर मछलियों के पेट में जाता है और वहां से हमारी खाने की मेज तक आ जाता है। इसका असर हमारे स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है।

हमारी आधुनिक सभ्यता बड़े पैमाने पर कचरा उत्पन्न कर रही है और समुद्र उस कचरे के निपटान का केंद्र बना हुआ है। हम समुद्र के संसाधनों का भी भयंकर दोहन कर रहे हैं। इतना कि उसे इसकी भरपाई करने तक का अवसर नहीं मिल पा रहा है। पर्यावास के स्थायित्व का अर्थ यह है कि हम धरती के संसाधनों का दोहन एक सीमा से अधिक नहीं करें और संसाधनों की भरपाई होने दें। पर्यावरण संतुलन कायम रखने के लिए ऐसा करना आवश्यक है। हमें अपनी आने वाली पीढिय़ों के लिए भी वे संसाधन छोड़ जाने चाहिए जिनका हमने भरपूर इस्तेमाल किया। लेकिन हम ऐसा नहीं कर रहे हैं।

मनुष्य की लापरवाही के चलते ही मछलियों की कई प्रजातियां नष्ट होने के कगार पर आ चुकी हैं। जहरीले कचरे और समुद्री यात्रियों के कारण प्रवाल भित्तियों को नुकसान पहुंच रहा है। समुद्र में इनकी हिस्सेदारी करीब 0.1 फीसदी है लेकिन समुद्री जल जीवों का 25 फीसदी इन्हीं से बनता है। इन प्रवाल भित्तियों का खात्मा समुद्री जल जीवों के लिए त्रासदी बनकर सामने आ सकता है। इससे मछली की उपलब्धता प्रभावित होगी जो विकासशील देशों के बीच प्रोटीन की आपूर्ति का बड़ा माध्यम हैं।

दिसंबर 2015 में अपनाए गए स्थायी विकास लक्ष्य की बात करें तो उसमें समुद्रों के संरक्षण और उनके स्थायित्व भरे इस्तेमाल की बात कही गई है ताकि उनके संसाधनों का स्थायित्व भरा इस्तेमाल किया जा सके। अब ऐसे विकास को आगे बढ़ाने के लिए नीली अर्थव्यवस्था का एक सर्वथा नया विचार सामने आ चुका है। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग की कोशिशें चल रही हैं। लेकिन इसके बावजूद समुद्रों के स्तर में गिरावट का सिलसिला लगातार जारी है। हालांकि इसके लिए अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक माहौल अभी पहले की तुलना में कम तैयार है।

संयुक्त राष्ट्र समुद्री सम्मेलन का आयोजन आगामी 5 से 8 जून के बीच होना है। यह एक बड़ा अवसर है जब अंतरराष्ट्रीय समुदाय इस संकट से निपटने के बारे में गंभीर चर्चा कर सकता है। भारत की 7,500 किलोमीटर की सीमा समुद्र से लगती है। यह सम्मेलन हमारे लिए खास मायने रखता है। देश में राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान जैसे कई अग्रणी संस्थान भी हैं जो समुद्री शोध में बेहतर पकड़ रखते हैं। भारतीय क्षेत्रीय समुद्री महासंघ और बंगाल की खाड़ी में बिम्सटेक के हिस्से के रूप में भी भारत इस क्षेत्र में बढ़त कायम कर सकता है। समय बहुत तेजी से हाथ से निकल रहा है।

(लेखक पूर्व विदेश सचिव हैं। लेख में प्रस्तुत विचार निजी हैं।)

साभार- बिज़नेस स्टैंडर्ड हिंदी से