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90 साल पहले संघ प्रमुख ने जो कहा आज पूरी दुनिया उसकी चर्चा कर रही है

नरेंद्र मोदी आज दुविधा में होंगे। इसलिए कि दिल्ली और खासकर अंग्रेजी मीडिया ने हल्ला किया है। सो सस्पेंस है कि संघ की बैठक में वे जाएंगे या नहीं? मानो संघ की बैठक में जाना कुफ्र हो तभी एक कार्टून में आदमकद हाफपैंट के अटेंशन फरमान के आगे बौने स्वयंसेवक नरेंद्र मोदी-अमित शाह को खड़ा दिखाया गया। यह दलील भी सुनाई दी कि 1948 में सरदार पटेल से संघ ने राजनीति से दूर रहने का वादा किया था।

तभी सरकार ने पाबंदी हटाई। अब वह राजनीति करता लग रहा है। यह वायदाखिलाफी है इसलिए उस पर पाबंदी लगे। सोचें यह सब कितना बेतुका व मूर्खतापूर्ण है! ऐसी आलोचना, यह सोच कुल मिलाकर संघ-मोदी विरोधियों की महामूर्खता है। इस मूर्खता ने ही एक प्रचारक मोदी को प्रधानमंत्री बनवाया। इसी से आरएसएस भारत का एकलौता वैचारिक पुंज बना हुआ है। इसके आगे एक भी कोई दूसरा नहीं है जो विचार के बूते अपने को जनता में पैठा ले या जनता की नब्ज पर हाथ रखते हुए अपने को स्वीकार्य बनवा सके।

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हां, संघ परिवार बनाम संघ विरोधियों का आज का यह फर्क कटु सच्चाई है। कांग्रेस, नेहरूवादी आईडिया आफ इंडिया, वामपंथी, कम्युनिस्ट, लिबरल की कोई भी धारा भारत के लोगों के लिए आज चुंबक नहीं है। आरएसएस अकेली एक वैचारिक धारा है जिसे वक्त ने वैश्विक आधार भी दे दिया है। जो आलोचक हैं वे याद करा रहे हैं कि संघ ने सरदार पटेल से क्या वादा किया था। मतलब ये 1948 में रह रहे हैं जबकि आज 2015 है। और 1948 व 2015 का फर्क दुनिया बदलना है। विचारधाराओं का खत्म होना है। वैश्विक सरोकारों का बदलना है। लेकिन भारत का प्रभु वर्ग, अंग्रेजी मीडिया, सार्वजनिक विमर्श अभी भी 1948 में जी रहा है। तभी इनकी चिंता है कि ससुरा संघ देश का नियंता कैसे बना हुआ है? संघ की बैठक में नरेंद्र मोदी कैसे जा सकते हैं? इससे तो प्रधानमंत्री पद की गरिमा खराब होगी! क्योंकर ऐसा है कि एक के बाद एक मंत्री संघ की बैठक में हाजिरी देने जा रहे हैं?

इसलिए कि संघ की घुट्टी में सब पनपे हैं। बढ़े हुए हैं। प्रचारक बने हैं। यदि आरएसएस नहीं होता तो क्या नरेंद्र मोदी और अमित शाह आज सर्वशक्तिमान होते? चाहें तो कह सकते हैं कि संघ आज माईबाप की हैसियत में है। ऐसा संभव विरोधियों की बदौलत हुआ। वक्त ने विरोधियों को फेल किया और आरएएस को सही साबित किया। अपना मानना है कि आरएसएस उर्फ संघ का आज भी वही मतलब है जो 1925 में संघ की स्थापना करते वक्त डा. हेडगेवार ने सोचा था। डा. हेडगेवार के ख्यालों में तब मोटे तौर पर दो शब्द थे एक हिंदू और दूसरा मुस्लिम। आज भी ये दो ही शब्द हैं। 1925 से 2015 के नब्बे वर्षों का फर्क यह है कि भारत की बहुसंख्या में, दुनिया के ओबामा, बुश, ओलांदो या केमरॉन में एक चिंता, एक विचारणीय बिंदु है और वह बिंदु इस्लाम शब्द है। दुनिया और दुनिया के बाकी नेताओं के लिए हिंदू शब्द बेमतलब है। पर ओबामा, बुश, केमरॉन सब अटेंशन की मुद्रा में आज लाठी लिए स्वंयसेवक जैसे खड़े हैं और हर रोज ये अपनी लाठी याकि बम, मिसाइल फेंक रहे हैं तो वजह इस्लामी राज का खलीफाई आतंक है।
इससे क्या आरएसएस, संघ प्रासंगिक नहीं बना हुईunnamed (51) है? 90 साल पहले संघ हिंदू की जिस चिंता में था वह आज इस्लामी स्टेट के खलीफाई आतंक के आगे मुखर है। संघ की हिंदू चिंता क्या है, इसको ले कर बहुत बहस की जा सकती है। संघ, हिंदू और हिंदुत्व के पहलुओं में दकियानूसीपने से लेकर अबौद्धिकता, आधुनिक- वैश्विक नासमझी, स्वदेशी कठमुलाईपन के ढेरों तत्व हैं लेकिन आम हिंदू नरेंद्र मोदी और उसके साथ के आरएसएस को ले कर जब विचार करता है तो बुनियादी तौर पर जहन में मोटी बात यह होती है ये लोग देश व धर्महित वाले हैं। बस इतना भर।
पर यही सत्व-तत्व की बात है। इसी की बदौलत आज सरकार का भी माईबाप संघ है। यों संघ न सर्वव्यापी है और न जन-जन, घर-घर पैठा हुआ है पर प्रचारक नरेंद्र मोदी ने घर-घर, जन-जन में अपनी पैठ बनाई है तो वजह संघ का मूल हिंदू सरोकार है। नई, युवा पीढ़ी संघ के हाफपैंटी-टोपी रूप से भले अपने को जुड़ा न पाती हो मगर वह यह देखती है, यह मानती है कि इनकी बातें हिंदू की चिंता वाली हैं।

हां, यह भी जान लें कि देश-दुनिया और खुद नरेंद्र मोदी कितनी ही विकास की बात करें, उस पर सोचे-विचारें मगर नरेंद्र मोदी सर्वप्रथम संघ के स्वंयसेवक हैं। प्रचारक हैं। उन्हें संघ ने बनाया, बनवाया, जीतवाया तो वे भला आरएसएस से दूरी रखने का नाटक क्यों करें? जैसा मैंने ऊपर कहा है कि भारत में आज कोई दूसरी ताकत, कोई दूसरा वैचारिक पुंज नहीं है जिसके बूते कोई अपना किला बनाए, विचार पाए या चुनाव लड़ने की मशीनरी पाए। आज का भारत सिर्फ और सिर्फ उस आईडिया को लिए हुए है जिसके बीज फूटे हुए हैं आरएसएस से। भारत की मिट्टी से साम्यवाद, गांधीवाद, समाजवाद, माओ-मार्क्स-लेनिनवाद, लोहियावाद, नेहरूवाद के पौधे बहुत पहले उखड़ कर, सूख कर पत्ते उड़ गए हैं। खासकर हिंदू की माटी में तो इन सबके बीज ही लुप्त हैं जबकि ठीक विपरीत 90 वर्षों में संघ वटवृक्ष का ऐसा आकार पा चुका है जिसकी शाखाएं अब ऊपर से भी क्रमशः फैल रही हैं।
क्या नहीं?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

साभार- http://www.nayaindia.com/ से