गंगा औद्योगिक प्रदूषण के साथ राजनीतिक प्रदूषण का भी शिकार हो गई

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नेता लोग चुनाव जीतने के लिए कटिबद्धता से हर उपाय करते हैं। उसी तरह अफसर पोस्टिंग या तरक्की के लिए हर बाधा दूर करने का मार्ग खोजते हैं। अधिक से अधिक टैक्स वसूलने, खजाना बढ़ाने के लिए सरकार एक से एक तरीके निकालती है। पर, अफसोस! गंभीरतम राष्ट्रीय समस्याओं या जरूरी से जरूरी सामाजिक आवश्यकताएं पूरी करने के लिए उसी कटिबद्धता का शतांश भी नहीं लगाया जाता। नदियों की बदहाली वैसी ही एक समस्या है।

आधुनिक नगरों, महानगरों ने नदियों को मैली किया। वही महानगरी अफसर, नेता गंगा स्वच्छ करने का प्रपंच करते हैं! उन की गतिविधियों का अटपटापन देख हैरत होती है। आखिर जिस कारण वह मैली होती है, उसे वैसे ही रहने देकर स्वच्छता के प्रयास विचित्र नहीं तो क्या हैं?

गंगा किनारे रहने वाले ग्रामीण आज भी उस में गंदगी नहीं डालते। चाहे पॉलीथीन जैसे कचरे शहरों से आकर उन के द्वारा भी अब डाले जा रहे हैं। पर अनजाने ही, क्योंकि ग्रामीण लोग गंगा में पैर डालने से पहले जल माथे लगाकर प्रणाम करते हैं। वे उसे पानी नहीं, श्रद्धा-पूर्वक ‘जल’ कहते हैं जिस का पवित्र अनुष्ठानों में उपयोग होता है। यदि आज यह स्थिति है तो दो-तीन सदी पहले की कल्पना करें।

तब किस ने तय किया होगा कि कानपुर, पटना या कलकत्ता के गंदे नाले गंगा की ओर मोड़ दिये जाएं? निश्चय ही इसे गंगा-पूजक जनता ने नहीं, किसी सरकारी नुमाइंदे ने सोचा होगा। उसी तरह, जैसे आज आम लोगों ने तय नहीं किया कि हर कहीं शराब की दुकानें खोल दें या बेशुमार विज्ञापनों में मुख्यतः लड़कियों की अधनंगी छवियों का उपयोग हो।

जैसे आज जनता राज्याधिकारियों का लोभ, अतिचार बर्दाश्त करती है। उस से भी अधिक विवशता से वह दो-तीन सदी पहले के हाकिमों की मनमानियाँ देखती होगी। शहरों, कारखानों की गंदगी गंगा-यमुना-नर्मदा सी पावन नदियों में डालने का निर्णय किन्हीं अधर्मी, अज्ञानियों ने लिया होगा। जो गंगा को भारतीय धर्म-दृष्टि से नहीं, केवल भौतिक लाभ दृष्टि से देखते होंगे।

अतः यदि गंगा को स्वच्छ करना है, तो वह दृष्टि बदलनी होगी। उस के लिए धन नहीं, मन चाहिए। इसे पर्यावरण-स्वास्थ्य वाली यांत्रिक दृष्टि से देखना छोड़ना होगा। बढ़ती आबादी, शहरों का विस्तार, दाह-संस्कार प्रथा, आदि को भी प्राथमिक दोषी ठहराना ठीक नहीं। गंगा में जहाँ-तहाँ क्रोमियम, सीसा, कैडमियम, आर्सेनिक जैसे घातक तत्व मिलना रासायनिक कचरे के कारण है। अतः नदियों में गंदगी डालना प्रतिबंधित करना ही उपाय है। इस के लिए किन्हीं उद्योगों को बंद या स्थानांतरित होना पड़े तो दृढ़तापूर्वक वही करना होगा। अंततः वही लाभकारी भी होगा।

पर हमें लाभ के प्रति समझ बदलनी होगी। उसे ‘शुभ’ बनाना होगा। नदियों में गंदगी डालने का आरंभ स्वार्थी लाभ का अंग था! शहर की पूरी गंदगी नाला बनाकर नदी की ओर बहाने की शुरुआत राजकीय धन बचाने की नीयत से हुई होगी। क्योंकि नित्य उस शहरी गंदगी के अंबार का उपचार करने, अन्य तरीके से ठिकाने लगाने का काम श्रम-धन-साध्य लगा होगा। अन्यथा कोई कारण नहीं कि कोई शहर-व्यवस्थापक दैनिक गंदगी का पनाला गंगा की ओर मोड़ता।

आज भी फैक्टरियाँ या संस्थान अपनी तरल, रासायनिक गंदगी नदी में क्यों बहाते हैं? क्योंकि इस से उन्हें बचत यानी भौतिक लाभ होता है। वही स्थिति नगर-निगमों की है, जो गंदगी ठिकाने लगाने तथा शहर साफ रखने के नाम पर कचरा, पोलिथीन, मल-मूत्र निकट की नदी में जाने देते हैं। शहरी लोग भी ‘सुविधा’ वाली मूढ़ दृष्टि से ही फूल-प्रसाद वाले पोलिथीन वहीं किनारे फेंक देते हैं, जो नदी में चला जाता है।

जब तक यह प्रवृत्ति है, कितने ही अरब-खरब रूपए की योजनाएं गंगा को स्वच्छ नहीं करेंगी। जो भौतिक उपयोगितावादी दृष्टि गंगा को मैली करती है, उसी दृष्टि से स्वच्छता प्रयास अधिक सफल नहीं होंगे। भारतीय जन-गण के लिए गंगा कभी भी आर्थिक संसाधन नहीं रही। इसे भुला कर सारे एक्शन-प्लान वैसे ही निरर्थक सिद्ध होंगे, जैसे अनेक छेद वाले बर्तन में पानी लेना।

आदि-शंकर के सुप्रसिद्ध गंगा-स्त्रोत ‘देवि सुरेश्वरी भगवती गङ्गे…’ को ध्यान से पढ़ें। उस में आर्थिक छोड़कर अनगिनत निधियों का वर्णन है। ‘गंङ्गे त्रैलोक्यसारे सकल सुरवधूधौतविस्तीर्णतोये … कस्तवां स्तोतुं समर्थस्त्रिजगदघहरे देवि गङ्गे प्रसीद’ वाले प्रसिद्ध श्लोकों में भी गंगा को भौतिक संसाधन के रूप में नहीं देखा गया।

अतः न तो हिन्दू मनीषा, न ही धन-वैभव संपन्न भारतीय सभ्यता ने उसे कभी भौतिक दृष्टि से देखा। किंतु आज गंगा की चिंता करने वाले बड़े लोग उसे इसी तरह देखते हैं। तीन दशक से चल रहे ‘गंगा एक्शन प्लान’ या चालू योजनाओं में इसे मूलतः आर्थिक संसाधन के रूप में देखा जा रहा है। सारी चर्चा, अभियान और आलोचना उसी तरह होती है जैसे सड़क सफाई, हाइजीन जैसी म्युनिसिपल या स्वास्थ्य योजनाओं की होती है।

अतः जब डॉक्टर रोग पहचानने में ही विफल हों तो उस के निदान में कैसे सफल होंगे? उन की संपूर्ण योजनाओं, दस्तावेजों और प्रस्तावों में गंगा को सीमित लाभ दृष्टि से देखा गया है। कि अधिक प्रदूषित होने से उन लाभों पर आँच आ सकती है, स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ेगा, आदि। इसलिए उसे साफ करें ताकि हमारा भौतिक जीवन सुखद हो। यह दृष्टि अपर्याप्त है। इस में बुद्धि लगाई गई, मगर चेतना नहीं है। वह सहज भावना जो अपने घर के लिए सहज ही रहती है।

ध्यान दें, किसी घनी से घनी कॉलोनी में कितना भी कूड़ा-कचरा पैदा होता हो, क्या वह वहीं किसी रईस के बंगले या सितारा होटल में डाला जा सकता है? नहीं, क्योंकि कचरा कितना भी, कैसा भी हो, वह उस होटल में नहीं डाला जाएगा। बस। सो, फल यह कि रईस या होटल का लॉन स्वच्छ रहेगा। बाहर जमा होने वाले कूड़े-कचरे-गंदगी को कहीं और निपटाना पड़ेगा।

तो क्या गंगा उस बंगले या होटल से कम मूल्यवान है, जो उस के लिए यह सीधा-सरल उपाय नहीं होता? कि गंदगी, पनाले, कचरे, मलबे का और जो करें, वह गंगा में नहीं जाएगा! एक बार यह कड़ाई से तय होते ही सारा विकल्प फौरन मिल जाएगा या खोज लिया जाएगा। कचरा और सीवर निस्तारण की एक से एक तकनीक दुनिया में उपलब्ध है।

गंगा में गंदा पनाला न डालने का निर्णय होते ही हर शहर कोई भी मूल्य देकर सब से पहले वह तकनीकी व्यवस्था स्वयं मँगाएगा। जापान, जर्मनी या इजराइल की सर्वोत्तम कंपनियाँ वह बखूबी उपलब्ध कर देंगी। उस व्यवस्था से देश भर में लाखों को स्थाई रोजगार भी मिलेगा। अभी तक यह इसलिए नहीं हुआ क्योंकि लंबे समय से स्वार्थी, मतिहीन बुद्धि ने गंगा को अपने संसाधन बचाने का सस्ता उपाय माना हुआ है!

किन्तु गंगा पतितपावनी देवी हैं। उन की रक्षा केवल ‘धर्मो-रक्षति-रक्षितः’ वाली दृष्टि से हो सकती है। यह हमारा धर्म है कि उसे अपवित्र न करें, ताकि वह हमें पावन करती रह सके। वरना, मनुस्मृति के उस प्रसिद्ध श्लोक का अधिक बड़ा अंश यह है – ‘तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।’ अर्थात्, धर्म-रक्षा न करने पर मारा हुआ धर्म उस न रक्षा करने वाले को मार डालता है! यही गंगा को स्वच्छ रखने की योजना का प्रस्थान-बिंदु होना था।

हमारे नीति-निर्माता समझें कि गंगा कोई आर्थिक, तकनीकी या पर्यावरण का विषय नहीं है। वह इन से ऊँचा महत्व रखती है। यदि हम यह न मानें तो अपना ही नाश करेंगे। हमें अपनी मुक्ति की चिंता करनी चाहिए। गंगा जी का क्या है, वह तो जहाँ से आई थीं, वहाँ चली जाएंगी!

साभार- https://www.nayaindia.com/ से