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एक सरकारी संस्थान, जो गरीबों की आखरी उम्मीद है

ऋतु वर्मा डीडी न्यूज़ में ऐंकर और रिपोर्टर हैं। हाल ही में वे एक कवरेज के सिलसिले म्याँमार गई थीं। वहाँ उन्हें किसी वजह से इन्फ़ेक्शन हो गया। वे अपना एसाइन्मेंट पूरा करके लौटीं, लेकिन बीमारी लगातार बढ़ती गई। आख़िरकार उन्हें एम्स ले जाया गया जहाँ के डॉक्टरों के अथक परिश्रम से उनकी जान बची। इस सबके दौरान उनके पिता और वरिष्ठ पत्रकार आनंदस्वरूप वर्मा ने एम्स की कार्यप्रणाली को काफ़ी क़रीब से देखा जो बिना सिफ़ारिश, और बेहद कम ख़र्च में आम लोगों की जीवनरक्षा के लिए आज भी कारगर साबित हो रही है। उन्होंने इस अनुभव को अपनी फे़सबुक दीवार पर लिखते हुए चेताया है कि सरकार, एम्स जैसे गिने-चुने सार्वजनिक चिकित्सा संस्थानों को निजी हाथों को सौंपने का जुगत भिड़ा रही है। इस साज़िश को विफल करना बेहद ज़रूरी है।

अपनी बेटी ऋतु को एम्स से डिस्चार्ज करा कर घर लाया. उसे 1 सितम्बर शुक्रवार को अत्यंत गंभीर स्थिति में इमरजेंसी में भर्ती कराना पडा था. डॉक्टरों ने उसकी जान बचा ली. इस दौरान मुझे खुद एम्स की कार्यपद्धति, वहाँ के डॉक्टरों की कुशलता और लगनशीलता, बड़े या छोटे के प्रति किसी भी तरह का भेदभाव किये बगैर पूरी निष्ठा के साथ मरीज के प्रति उनका सेवा भाव—इन बातों से मैं इतना अभिभूत हुआ कि facebook पर बड़ी मुश्किल से कोई स्टेटस लिखने वाले मेरे जैसे व्यक्ति को भी लगा कि अपने अनुभव को आप सब तक पहुँचाऊँ ताकि देश के इस अत्यंत महत्वपूर्ण संस्थान को उन लालची हाथों से बचाया जा सके जो पिछले कुछ वर्षों से निजीकरण के नाम पर इसे अपने कब्जे में लेना चाहते हैं.

1 सितम्बर की सुबह जब ऋतु को अचेत अवस्था में उसके एक सहकर्मी नितेंद्र द्वारा इमरजेंसी में ले जाया गाया—बगैर किसी ‘बड़े’ आदमी की सिफारिश के—तो फ़ौरन ही डॉक्टरों की एक टीम उसे रेड एरिया में ले जा कर उसके इलाज में लग गयी. उसे ठीक करने की उनकी बेचैनी देखने लायक थी. उसका ब्लड प्रेशर लगातार गिरता जा रहा था. दो-तीन घंटे की मेहनत के बाद उसकी हालत स्थिर हुई और फिर उसे इमरजेंसी में ही एक अलग बेड पर रखा गया. जब तक उसके दफ्तर डी डी न्यूज़ से उसके सहकर्मियों का आना शुरू हुआ, डॉक्टरों ने उसकी हालत को नियंत्रण में कर लिया था. उस समय तक बदहवासी में मैं भी अपने किसी मित्र डॉक्टर को इसकी सूचना नहीं दे सका था. शाम होते होते उसे डी 2 वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. जिस कक्ष में वह थी, उसमे पांच अन्य मरीज थे जो समाज के एकदम निम्न या निम्न मध्य परिवारों के थे. डॉक्टर राउंड पर आते और सबके प्रति समान दिलचस्पी लेते जबकि ऋतु की सामाजिक हैसियत अन्यों के मुकाबले भिन्न थी. एम्स के डॉक्टरों की यह कार्य संस्कृति आज के समय में सचमुच दुर्लभ है. डिस्चार्ज होने के समय पता चला कि पांच दिनों के इस इलाज पर कुल खर्च बमुश्किल दो हज़ार रूपये आये जब कि दिल्ली के किसी भी प्राइवेट अस्पताल में कम से कम 4—5 लाख का बिल बन जाता और इलाज पर पूरा भरोसा भी नहीं होता.

इन सारी बातों के लिखने का मकसद आपको बताना है कि देश का यह एकमात्र महत्वपूर्ण संस्थान है जहां चिकित्सा के क्षेत्र में अंधाधुंध मुनाफाखोरी के दौर में आज भी वह गरीब तबका यहाँ अपना इलाज करा सकता है जिसके पास न तो कोई आर्थिक साधन है और न जिसकी ‘ऊंचे’ लोगों तक पहुँच है. एम्स में अब से कुछ वर्ष पूर्व मनमोहन सिंह की सरकार ने निजीकरण के लिए बनी वेलियाथन कमेटी की रिपोर्ट लागू करने की कोशिश तो डॉक्टर अनूप सराया और उनके साथियों ने इसका जबरदस्त विरोध किया. इसके बाद भी कई बार सरकार ने तरह तरह से मरीजों पर शुल्क थोपने की कोशिश की जिनका इन जनपक्षीय डॉक्टरों ने विरोध किया लेकिन कारपोरेट घरानों की निगाह इस संस्थान पर लगी हुई है. खबर है कि नीति आयोग और स्वास्थ्य मंत्रालय के बीच लगातार विचार विमर्श चल रहा है कि कैसे एम्स को दी जाने वाली राशि में कटौती की जाय और कारपोरेट घरानों को इसे सौंपा जाय. डॉक्टर सराया और उनके साथी अकेले अपने दम पर निजीकरण की इस तलवार को कब तक रोक सकेंगे जो एम्स के सर् पर लटक रही है और जो देश के गरीबों और वंचितों के खून की प्यासी है. इसके लिए व्यापक जनसमुदाय में चेतना विकसित करनी होगी और इसके खिलाफ जन आन्दोलन की तैयारी करनी होगी.

आनंदस्‍वरूप वर्मा: वरिष्‍ठ पत्रकार एवं अनुवादक, ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ के संपादक-प्रकाशक, नेपाल व अफ्रीका समेत और तीसरी दुनिया के देशों के प्रामाणिक जानकार। मीडियाविजिल के सलाहकार मंडल के वरिष्‍ठ सदस्‍य।

साभार – http://www.mediavigil.com/ से