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लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को लेकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस का एक यादगार पत्र

मुझे यह जानकार दुःख हुआ कि अम्बेडकरवादी लगातार अपने लेखों में तिलक जी के लिए अत्यन्त अपमानजनक भाषा का प्रयोग कर रहे हैं. उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं कि माँ भारती के इस सपूत ने कितना बड़ा कार्य किया था.

आज अपनी ओर से कुछ भी ना लिखकर अन्य महापुरुषों के उदगार दे रहा हूँ. भारत के महानायक नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने अपने मित्र केलकर को एक पत्र लिखा था. उस पात्र में तिलक जी के बारे में नेता जी के विचार पढ़े.—

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का पत्र

प्रिय श्री केलकर,

मैं पिछले कई महीनों से आपको पत्र लिखने की सोच रहा था. जिसका कारण केवल यह रहा हैं, कि आप तक ऐसी जानकारी पहुंचा दूँ, जिसमें आपको दिलचस्पी होगी. मैं नहीं जानता आपको मालूम हैं या नहीं कि मैं यहाँ गत जनवरी से कारावास में हूँ, जब बरहमपुर जेल से मुझे मांडले जेल के लिए स्थानांतरित करने का आदेश मिला , तब मुझे यह स्मरण नहीं आया कि लोकमान्य तिलक ने अपने कारावास का अधिकतर समय मांडले जेल में ही गुजारा था. इस चारदीवारी में, यहाँ के बहुत हतोत्साहित कर देने वाले परिवेश में, स्वर्गीय लोकमान्य तिलक ने अपने सुप्रसिद्ध ‘गीता भाष्य ग्रन्थ’ लिखा था. जिसने मेरी नम्र राय में उन्हें शंकर और रामानुजन जैसे प्रकांड भाष्यकारों की श्रेणी में स्थापित कर दिया हैं.

जेल के जिस वार्ड में लोकमान्य तिलक रहते थे वह आज तक सुरक्षित हैं, यद्यपि उसमें फेरबदल किया गया हैं और उसे बड़ा बनाया गया हैं. हमारे अपने जेल वार्ड की तरह, वह लकड़ी के तख्तों से बना हुआ हैं. जिससे गर्मी में लूँ और धुप से, वर्षा में पानी से, शीत में सर्दी तथा सभी मौसम में धूल भरी आँधियों से बचाव नहीं हो पाता था. मेरे यहाँ पहुँचने के कुछ ही क्षण बाद मुझे वार्ड का परिचय दिया गया. मुझे यह बात बहुत अच्छी नहीं लग रही थी. कि मुझे भारत से निष्कासित किया था, लेकिन मैंने भगवान को धन्यवाद दिया कि मांडले में अपनी मातृभूमि और स्वदेश से बलात अनुपस्थिति के बावजूद मुझे पवित्र स्मृतियाँ राहत व प्रेरणा देगी. अन्य जेलों की तरह यह भी एक ऐसा तीर्थ स्थल हैं, जहाँ भारत का एक महानतम सपूत छ: वर्षों तक रहा था.

हम जानते है कि लोकमान्य ने कारावास में छ वर्ष बिताए हैं. मुझे विश्वास हैं कि बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि उस अवधि में उन्हें किस हद तक शारीरिक और मानसिक यातनाओं से गुजरना पड़ा था. वे वहां एकदम अकेले रहे उन्हें उनके बौद्धिक स्तर का कोई साथी नहीं मिला था. मुझे विश्वास हैं, कि उनको किसी अन्य बंदी से भी मिलने-जुलने नहीं दिया था. उनको सांत्वना देने वाली एकमात्र वस्तु किताबें थी. और वे एक कमरे में बिलकुल एकांकी रहते थे. यहाँ रहते हुए उन्हें दो या तीन से अधिक मुलाकात का भी अवसर नहीं दिया गया था. ये भेट भी जेल और पुलिस अधिकारियों के साथ हुआ करती थी.

जिससे वे कभी खुलकर हार्दिकता से बात नहीं कर पाए होंगे. उन तक कोई भी अख़बार नहीं पहुँचने दिया जाता था. उनकी जैसी प्रतिष्ठित नेता को बहरी दुनिया के घटना चक्रों से एकदम अलग कर देना , एक तरह की यंत्रणा ही है और इस यंत्रणा को जिसमें भुगता है, वहीं जान सकता है इसके अलावा उनके कारावास की अधिकांश अवधि में देश का राजनीतिक जीवन मंद गति से खिसक रहा था और इस विचार ने उन्हें कोई संतोष नहीं दिया होगा कि जिस उद्देश्य को उन्होंने अपनाया था ,वह उनकी अनुपस्थिति में किस गति से आगे बढ़ रहा है उनकी शारीरिक यंत्रणा के बारे में जितना ही कम कहा जाए, बेहतर होगा।

वे दंड संहिता के अंतर्गत बंदी थे और इस प्रकार आज के राजबंदियो की अपेक्षा कुछ मायनों में उनकी दिनचर्या कही अधिक कठोर रही होगी| इसके अलावा उन्हें मधुमेह की बीमारी थी |जब लोकमान्य यहाँ थे ,मांडले का मौसम तब भी प्रायः ऐसा रहा होगा जैसा वह आजकल है और अगर आज नौजवानों को शिकायत है कि वहां की जलवायु शिथिल कर देने वाली और मन्दाग्नि तथा गठिया को जन्म देने वाली है और धीरे -धीरे वह व्यक्ति की जीवन शक्ति को सोख लेती है ,लोकमान्य ने ,जो वयोवृद्ध थे ,कितना कष्ट झोला होगा |लेकिन इस कारागार की चहारदीवारियों में उन्होंने क्या यातनाएँ सही ,इसके विषय में लोगों को बहुत कम जानकारी है |

कितने लोगों को पता होता है, उन अनेक छोटी -छोटी बातों का ,जो किसी बंदी के जीवन में सुइयों की-सी चुभन बन जाती है और जीवन को दूभर बना देती है| वे गीता की भावना में मग्न रहते थे और शायद इसलिए दुःख और यंत्रणाओं से ऊपर रहते थे |यहीं कारण है कि उन्होंने उन यंत्रणाओं के बारे में किसी से कभी एक शब्द भी नहीं कहा |समय -समय पर मैं इस सोच में डूबता रहा हूँ कि कैसे लोकमान्य को अपने बहुमूल्य जीवन के छह लंबे वर्ष इन परिस्थितियों में बिताने के लिए विवश होना पड़ा था |

हर बार मैंने अपने आपसे पूछा ‘अगर नौजवानों को इतना कष्ट महसूस होता है तो महान लोकमान्य को अपने समय में कितनी पीड़ा सहनी पड़ी होगी ,जिसके विषय में उनके देशवासियों को कुछ भी पता नहीं रहा होगा यह विश्व भगवान की कृति है ,लेकिन जेल मानव के कृतित्व की निशानी हैं. उनकी अपनी एक अलग दुनिया हैं और सभ्य समाज ने जिन विचारो और संस्कारों को प्रतिबद्ध होकर स्वीकार किया हैं. वे जेलों पर लागू नहीं होते हैं. अपनी आत्मा के हास्य के बिना, बंदी जीवन के प्रति अपने आपको अनुकूल बना पाना आसान नहीं हैं, इसके लिए हमें पिछली आदतें छोड़नी होती हैं और फिर भी स्वास्थ्य और स्फूर्ति बनाएं रखनी हैं सभी नियमों के आगे नत होना होता हैं और फिर भी आंतरिक प्रफुल्लता अक्षुण्ण रखनी होती हैं. केवल लोकमान्य जैसा दार्शनिक ही, उस यन्त्रणा और दासता के बीच मानसिक संतुलन बनाए रख सकता था और भाष्य जैसे विशाल एवं युग निर्माणकारी ग्रन्थ का प्रणयन कर सकता था. मैं जितना ही इस विषय पर चिन्तन करता हूँ। उतना ही उनके प्रति आस्था और श्रद्धा में डूब जाता हु. आशा करता हु, कि मेरे देशवासी लोकमान्य की महत्ता को आंकते हुए इन सभी तथ्यों को भी दृष्टि पथ में रखेंगे.

जो महापुरुष मधुमेह से पीड़ित होने के बावजूद इतने सुदीर्घ कारावास को झेलता गया. और जिसने उन अन्धकारमय दिनों में अपनी मातृभूमि के लिए ऐसी अमूल्य भेट तैयार की, उसे विश्व के महापुरुषों की श्रेणी में प्रथम पंक्ति में स्थान मिलना चाहिए. लेकिन लोकमान्य ने प्रकृति के जिन अटल नियमों से अपने बंदी जीवन के दौरान टक्कर ली थी. उनको अपना बदला लेना ही था. अगर मैं कहूँ तो मेरा विश्वास हैं कि लोकमान्य ने जब मांडले को अंतिम नमस्कार किया था

तो उनके जीवन के दिन गिने चुने ही रह गये थे. निःसंदेह यह एक गंभीर दुःख का विषय हैं कि हम अपने महानतम पुरुषों को इस प्रकार खोते रहे, लेकिन मैं यह भी सोचता हूँ कि क्या वह दुखद दुर्भाग्य किसी न किसी प्रकार टाला नहीं जा सकता था.