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लिफाफा संस्कृति की एक विनम्र अस्वीकृति

संदर्भ है बेटी का विवाह। एक समय था जब विपन्नता के दौर में बेटी का विवाह एक सामूहिक जिम्मेदारी बन जाती थी। आस पड़ोस आत्मीय जन रिश्तेदार आर्थिक सहयोग करते थे। यही आर्थिक लेनदेन का व्यवहार धीरे धीरे अनेक दूसरी सामाजिक बुराईयों के साथ लिफाफा संस्कृति को जन्म दे गया।

बेटी के व्याह का निमंत्रण अनिवार्यतः एक आर्थिक सहयोग की अपेक्षा बनता गया। लोग बाकायदा रजिस्टर बनाने लगे और इसका हिसाब किताब रखने लगे कि अगले ने मेरे यहाँ कितना दिया था और अब उनके यहां कितना देना है। व्याह के अवसर पर लोग वर वधू को निर्मल मन आशीर्वाद देने के बजाय लिफाफा लेने वाले शख्स की ताक झांक में होते हैं या जहां निमंत्रण /नेवता /दईजा लिखा जा रहा होता है लाइन लगा लेते हैं। इस कार्य से निवृत्ति पहली प्राथमिकता होती है। यह व्यक्ति और अवसर की गरिमा को गिराने वाला उपक्रम लगता है मुझे।

और यह भी विचारणीय है कि कि जो समर्थ हैं और बेटी के व्याह के खर्च खुद उठा सकते हैं वे ऐसी अपेक्षा करें ही क्यों? मैंने देखा है और खुद अनुभव किया है कि कहीं से भी बेटी के विवाह के निमंत्रण मिलने पर आर्थिक सहयोग क्या दिया जाय यह बिन्दु विचारणीय हो जाता है। इसलिये ही मैंने तमाम उन सभी आत्मीय जनों को जो दूरदराज के हैं कष्ट नहीं दिया। एक तो आने जाने का खर्च ही अधिक दूसरे नगद नारायण। जबकि कई महानुभाव तो ऐसे हैं जो न जान न पहचान बेटी के विवाह में निमंत्रण ढ़ूढ़ ढ़ूढ़ कर पकड़ा देते हैं।

मुझे लगता है कि यह अर्थ व्यवहार मांगलिक अवसरों के लिये अनर्थकारी है। क्यों न आमंत्रित जन शुद्ध निर्मल हृदय से वर वधू को आशीर्वाद दें और अवसर को अपनी गरिमामय उपस्थिति से भव्य बनायें।आपमें जिन्हें भी मैंने सादर आमंत्रित किया है देखा होगा निमंत्रण में इसका विनम्र उल्लेख कर दिया है कि कृपया कोई उपहार या नगद धनराशि न लायें यह स्वीकार्य न होगी। बस आयें वर वधू को आशीर्वाद देकर अनुगृहीत करें। प्रीतिभोज में भाग लें और इस अवसर को सही अर्थों में अविस्मरणीय बनायें। हम स्वागतोत्सुक और आपके आगमन की आतुर प्रतीक्षा में हैं।
@आमंत्रण व्यक्तिगत है, कार्ड प्रेषित है।

डॉ अरविंद मिश्रा की फेसबुक वॉल से-
.डॉक्टर अरविंद मिश्रा उत्तर प्रदेश सरकार मत्स्य विभाग में उच्च पद पर कार्यरत हैं एवं देश-विदेश में विज्ञान लेखक के रूप में एक अलग पहचान बनाई है.