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श्री सम्प्रदाय के आचार्य नम्माळवार( शठकोपन):-

तमिल के 12 आलवारों में खास हैं ये शठकोपन :-
तमिल भाषा में आलवार शब्द का अर्थ ‘भगवान में डुबा हुआ’ होता है। विष्णु या नारायण की उपासना करनेवाले भक्त ‘आलवार’ कहलाते हैं। अलवर शब्द का अर्थ है वह जो भगवान के अनगिनत गुणों के समुद्र में गहरे गोता लगाता है।अलवारों को विष्णु के बारह सर्वोच्च भक्त माना जाता है, जिन्होंने वैष्णववाद को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। नम्मलवार उन बारह अलवर कवि-संतों में से एक थे, जिन्होंने खुद को विष्णु के प्रेम में डुबो दिया था और जिन्हें प्राचीन तमिल साहित्य और विष्णु और उनके सहयोगियों से संबंधित पारंपरिक कहानियों के साथ-साथ बौद्ध धर्म , हिंदू धर्म के बीच दार्शनिक मतभेदों का काफी ज्ञान था। आलवार सन्त भक्ति आन्दोलन के जन्मदाता माने जाते हैं। इनकी संख्या 12 हैं। इन बारह आलवारों ने घोषणा की कि भगवान की भक्ति करने का सबको समान रूप से अधिकार प्राप्त है।

पांचवे क्रम पर संत नम्माळवार( शठकोपन ) :-
वैष्णववाद संप्रदाय के बारह अलवर संतों को किसी न किसी रूप में विष्णु की अभिव्यक्ति माना जाता है, और अलवर संत नम्मलवार को विश्वसेना का अवतार माना जाता है । विष्क्सेन ने अध्यात्म ज्ञान नम्माळवार( शठकोपन ) को दिया। पराकुंश मुनि के नाम से भी ये विख्यात हैं।ये राम के पादुका के अवतार कहे जाते हैं। इन्होंने राम भक्ति से संबंधित तिरुवायमौली ग्रंथ की रचना की है।
वैष्णव संत आळवारोंके नामसे विख्यात हुए। दक्षिण भारतमें वैष्णवधर्म के प्रचार में इनका बहुत अधिक हाथ रहा। आळवारों अथवा तमिळ वैष्णव संतोंमें महात्मा शठकोप का स्थान बहुत ऊँचा और आदरके योग्य गिना जाता है। इनका तमिळ नाम नम्माळवार है और तमिळ वैष्णव इन्हें जन्मसिद्ध मानते हैं।नम्मलवार को बारह अलवरों की पंक्ति में पाँचवाँ स्थान माना गया है। उनका जन्म एक शूद्र परिवार में हुआ था, लेकिन उनके ज्ञान की खोज ने स्वीकार किया उन्हें वैष्णव परंपरा का एक महान रहस्यवादी माना जाता है।

भौतिक परिचय :-
शठकोप के पिता का नाम करिमारन् था। ये पाण्ड्यदेश के राजा के यहाँ किसी ऊँचे पदपर थे और आगे चलकर कुरुगनाडु नामक छोटे राज्यके राजा हो गये, जो पाण्ड्य देशके ही अधीन था। शठकोप का जन्म अनुमानतः तिरुक्कुरुकुर नामक नगरमें हुआ था, जो तिरुनेलवेली जिलेमें ताम्रपर्णी नदीके तटपर अवस्थित था। इनके सम्बन्धमें यह कथा प्रचलित है कि जन्मके बाद दस दिनतक इन्हें भूख प्यास कुछ भी नहीं लगी। यह देखकर इनके माता-पिताको बड़ी चिन्ता हुई। वे इसका रहस्य कुछ भी नहीं समझ सके। अन्त में यही उचित समझा गया कि इन्हें भगवान्‌के मन्दिरमें ले जाकर वहीं छोड़ दिया जाय। बस, इस निर्णय के अनुसार इन्हें स्थानीय मन्दिर में एक इमली के वृक्ष के नीचे छोड़ दिया गया। तबसे लेकर सोलह वर्षकी अवस्था तक बालक नम्माळवार उसी इमली के पेड़के कोटर में योग की प्रक्रिया से ध्यान किए और भगवान् श्रीहरि के साक्षात्कार में लगे रहे।

नम्माळवार की ख्याति दूर-दूरतक फैल गयी। तिरुक्कोईलूर नामक स्थान के एक ब्राह्मण, जो मधुर कवि के नामसे विख्यात थे और जो स्वयं आगे चलकर आळवारों की कोटि में गिने जाने लगे, नम्माळवार के साधन की बात सुनकर ढूँढते ढूँढ़ते उस स्थानपर जा पहुँचे, जहाँ यह बालक भक्त अपने भगवान् श्रीनारायणका ध्यान कर रहे थे। इनकी प्रार्थना से महात्मा ने इन्हें अपना शिष्य बना लिया। इस प्रकार यह भी कहा जाता है कि नम्माळवार आचार्य भी थे; क्योंकि उन्होंने मधुर कवि-जैसे शिष्यों को दीक्षा देकर उन्हें धर्म और अध्यात्म तत्त्व के गूढ़ रहस्य बताये। जब नम्माळवार जी ध्यानमें मन थे, दयामय भगवान् नारायण उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मन्त्र की दीक्षा दी। बालक शठकोप पहले से ही विशेष शक्तिसम्पन्न थे और अब तो वे महान् आचार्य तथा धर्म के उपदेष्टा हो गये। कहते हैं कि नम्माळवार पैंतीस वर्षकी अवस्था तक इस मर्त्यलोकमें रहे और इसके बाद उन्होंने अपने भौतिक विग्रहको त्याग दिया। कहा जाता है, इनके जीवनका अधिकांश भाग राधाभाव में बीता। वे सर्वत्र सब समय सारी परिस्थितियों और घटनाओं में अपने इष्टदेव में ही रमे रहते। ये भगवान् विरह में रोते चिल्लाते, नाचते, गाते और मूर्छित हो जाते थे।

इसी भाव में इन्होंने कई भक्ति भाव पूर्ण धार्मिक ग्रन्थों की रचना को जो बड़े विचारपूर्ण, गम्भीर और भगवत्प्रेरित जान पड़ते हैं। इनमें प्रधान ग्रंथों के नाम तिरुविस्तम्, तिस्वाशिरियम्, पेरिय तिरुवन्त और तिरुवायूमोलि हैं। महात्मा शठकोप के ये चार ग्रन्थ चार वेदों के तुल्य माने जाते हैं। इन चारों में भगवान् श्री हरि के लीलाओं का वर्णन है और ये चारों ई-चारों भगवत्प्रेम से ओतप्रोत हैं। ग्रन्थकार ने अपने को प्रेमिका के रूपमें व्यक्त किया है और श्रीहरि को प्रियतम माना है। तिरुविरुत्तम् आदिसे अन्ततक यही भाव भरा हुआ है। इनके ग्रन्थों में से अकेले तिरुवायूमोळि है, जिसका अर्थ है- पवित्र उपदेश, हजार से ऊपर पद्म हैं। दक्षिण के वैष्णवों के प्रधान ग्रन्थ दिव्यप्रबन्धम के चतुर्थांश में इसी के पद संगृहीत है। तिरुवायूमोळि के पद मन्दिरों में तथा धार्मिक उत्सवों में बड़े प्रेम से गाये जाते हैं। तमिळ के धार्मिक साहित्य में तिरुवायूमोळि का अपना निराला ही स्थान है। वहाँ इसके पाठका उतना महत्त्व माना जाता है, जितना वेदाध्ययन और वेदपाठ का, क्योंकि इसमें वेद का सार भर दिया गया है।

ये महात्मा ईसवी सन् की सातवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विद्यमान थे। हम पहले ही बता चुके हैं कि इनका एक नाम मारन भी था। उस समय के राजाका नाम भी यही था। वेळिवकुडी के दानपत्र के अनुसार मारन कोच्छदैयन् के पितामह थे। तमिलनाडु के कई वैष्णव मंदिरों में दैनिक प्रार्थना और उत्सव के अवसरों के दौरान नम्मालवर और अन्य अलवर के छंदों का पाठ किया जाता है। दक्षिण भारत के सभी विष्णु मंदिरों में और त्योहारों के दौरान भी प्रबंधम के गीत नियमित रूप से गाए जाते हैं।