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एक बैंकर की व्यथा

मैं भी एक बैंक का मैनेजर हूँ। लगभग 50 दिन हो गए लाकडाउन के….अखबार, टीवी, सोशल मीडिया से लेकर गली गली शोर है कि घर से बाहर न निकलें और निकले भी तब जब निकलने के अलावा कोई चारा न हो…

इसके बाद भी रोज सबेरे साढ़े नौ बजे मेरे बैंक के सामने सैकड़ो लोग सुबह इकट्ठे हो जाते हैं और एकदूसरे में ऐसे सटे रहते हैं जैसे सबकुछ सामान्य हो…ऐसा नहीं कि उन्हें पता न हो..जैसे ही मेरी गाड़ी दिखती है हरकत शुरू हो जाती है…मैंने खुद कई बार सुना है कि मनेजर साहब आ गईले, फरके हट जा लोग, ना त पैसा ना मिली..बैंक पर फिजिकल डिस्टेंसिंग कैसे मेंटेन होती है, अब ये मैनेजर साहब जानते हैं या पुलिस ही जानती है..

मैं लज्जित हो जाता हूँ क्योंकि पचास दिन में भी मैं जनता को समझा नहीं पाया कि दूरी कोरोना के लिए बनानी है, मनेजर साहब के लिए नहीं…

एक बुजुर्ग के खाते में ठीकठाक रुपए हैं किंतु वो हर तीसरे दिन 500 रुपए ही निकालने आते हैं…हम समझाते हैं कि एक ही बार में पैसा निकाल लीजिए और घर पर रहिए..उनके हिसाब से ऐसा करने से उन्हें ब्याज़ का नुकसान होगा..मैं निरुत्तर हो जाता हूँ..

एक साहब के खाते में 80 रुपए हैं और वो 80 रुपए का ही फॉर्म भरते हैं क्योंकि उन्हें खाते में जीरो बैलेंस रखना है..जीरो बैलेंस वाले खाते में उन्हें न जाने कौन सी सम्पत्ति आने की सूचना है जो खाते में जरा भी बैलेंस रहने से वो वंचित रह जाएंगे…ज्यादा समझाने की अपेक्षा उन्हें पैसे देकर घर भेजना ही आसान लगता है…

50 दिन बीतने के बाद भी बैंक आने वाले 80 प्रतिशत से अधिक लोगों को रोज चेहरा ढँकने के लिए कहना पड़ता है..मोटरसाइकिल से आने वाले अनेक लोग बिना चेहरा ढँके आते हैं, बाईक खड़ी करते हैं और जेब से मास्क निकालकर पहनते हैं और फिर बैंक में आते हैं। उन्हें हम समझा नहीं पाते कि मास्क बैंक में आने का प्रवेशपत्र नहीं है। कुछ कह भी नहीं पाते क्योंकि बैंक परिसर में उन्होंने मास्क तो पहना ही है…

शुरू में कुछ दिन डर लगा लेक़िन अब धीरे धीरे मैंने नियति को स्वीकार कर लिया है। जो भाग्य में लिखा है वो होकर रहेगा..लगभग 27 गाँव के लोग मेरे बैंक में रोज आते हैं, किससे डरूँ और कितना डरूँ?

लेक़िन, इस तरह की पोस्ट इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि मेरी ही तरह के एक ग्रामीण शाखा के मैनेजर काम करते करते संक्रमित हो गए…

इस समाचार की हेडलाइन “बैंक मैनेजर ने दस गाँवों को मुसीबत में डाला” है…

चूँकि मैं भी मैनेजर हूँ और आज की परिस्थितियों में कभी भी संक्रमित हो सकता हूँ..और ये सम्भव है कि मेरे यहाँ भी ऐसा ही समाचार लोगों को मिले…

मैं और मेरे जैसे कितने ही लोग ख़ुद मुसीबत में पड़कर व्यवस्था को सुनिश्चित रखे हुए हैं। बिजली, बैंक, पुलिस, स्वास्थ्य, और सफाई… अब इनके कर्मचारी न सिर्फ संक्रमित हो रहे हैं बल्कि मरना भी शुरू हो गए हैं।

जो दस गाँव की जनता के मुसीबत में पड़ने की खबर है, उसके पास विकल्प था मुसीबत से बचने का लेक़िन बैंककर्मी और उसके परिवार के पास कोई उपाय नहीं है इस मुसीबत से बचने का…

मैं अपनी नौकरी कर रहा हूँ ये जानते हुए भी कि इस समय कुछ भी हो सकता है..क्योंकि इसके लिए मुझे वेतन मिलता है और वेतन से मेरा परिवार चलता है।

इसीलिए अपनी मुसीबत के लिए जरा भी सहानुभूति की अपेक्षा नहीं करता लेक़िन, इतनी अपेक्षा जरूर करता हूँ कि मेरे और मेरे परिवार के मुसीबत में पड़ जाने को दस गाँवों को मुसीबत में डालने के रूप में प्रचारित न किया जाय…

ईश्वर रक्षा करें…

एक स्वाभिमानी बैंकर