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अखिलेश यादव का बंगला प्रकरण लोकतंत्र के लिए पूरी स्थिति डरावनी है

निश्चित रुप से यह इस देश के हर विवेकशील व्यक्ति के लिए कई मायनों मंे सन्न कर देने वाला वाकया है। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव का खाली किया गया बंगला जिस स्थिति में मिला है उसे खंडहर के सिवा कुछ कह ही नहीं सकते। एक शानदार बंगले को जिस तरह उन्होंने खाली करने के साथ नष्ट कर दिया वह कोई सामान्य खबर नहीं है। उसके बाद उनका यह बयान है कि सरकार सूची भिजवा दे हम वे सारे सामान वापस भिजवा देंगे। ऐसी ढिढाई के लिए कौन सा शब्द प्रयोग किया जाए यह तलाश करना मुश्किल है। यही नहीं पत्रकारों को बंगला दिखाने की व्यवस्था करने वाले सरकारी अधिकारियों को धमकी भी दी कल जब मेरा शासन आएगा तो यही अधिकारी कप प्लेट उठाएंगे। यह कैसी मानसिकता है? मजे की बात देखिए कि सपा के लोग प्रदेश सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि वो जानबूझकर मामले को गलत ढंग से पेश कर रहे हैं ताकि हमारे नेता बदनाम हो जाएं। वो कह रहे हैं कि कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह ने बंगला खाली किया उसकी तस्वीरें क्यों नहीं दिखा रहे। इस तरह का कुतर्क लोगों को खीझ को बढ़ाने वाला है। अगर कल्याण सिंह या राजनाथ सिंह ने अपने बंगले को उसी तरह नष्ट किया है तो सपा के लोग पत्रकारों को वहां ले जाकर दिखाए। ऐसा है नहीं। उन बंगलों किसी तरह की तोड़फोड़ या वहां से सरकारी सामान ले जाए जाने की खबर नहीं है। संभवतः भारत के राजनीतिक इतिहास में अखिलेश यादव ऐसे पहले नेता होंगे जिन्होंने इस तरह एक बंगले को पूरी तरह बरबाद कर दिया।

वास्तव मंे इस प्रकरण के तीन पहलू हैं। इनमेें सबसे पहला है बंगले का वाकई खंडहर में परिणत होना। फर्श से लेकर छतें, उद्यान, स्वीमिंग पुल, साइकिल ट्रैक, जिम., सेंट्रलाइज्ड एसी., बैडमिंटन
कोर्ट,. आदि को किस तरह तहस-नहस किया गया है उसकी पूरी सूची तस्वीरों के साथ टीवी चैनलों और समाचार पत्रों मेें हमारे सामने आ चुकीं है। सच यही है कि बंगले मंे एक मंदिर के सिवा और
कुछ भी सही-सलामत नहीं मिला। इनमें विस्तार से जाने की आवश्यकता नहीं। केवल बरबाद ही नहीं किया गया उसमें से प्रयोग के लगभग सारे सामान ले जाए गए। सारे एसी, टीवी, फर्नीचर, पंखे, फॉल
सीलिंग से लगीं लाइटें, मुख्य बंगले में बने सभी बाथरूमों की टोटियां और जकूजी बाथ असेंबली, चिन की टोटियां, मॉड्यूलर किचन एक्विपमेंट्स, सिंक, किचन टॉप तक को निकाल लिया गया, प्रथम तल
की दीवारों पर लगी टाइल व मार्बल को तोड़ दिया गया। स्विमिंग पूल में लगी इंपोर्टेड टाइल्स उखाड़ ली गईं। सजावट के अन्य सामान सहित शीशे तक निकाल लिए गए। यह विवरण काफी छोटा है।
किंतु यह किस तरह के आचरण का परिचायक है? एक व्यक्ति जो दो-दो बार सांसद रहा हो, फिर प्रदेश का मुख्यमंत्री बना हो, भविष्य में पार्टी का प्रधान होने के नाते मुख्यमंत्री का दावेदार हो कम
से कम उससे ऐसी ओछी हरकत की उम्मीद कोई नहीं कर सकता। बंगला तो उच्चतम न्यायालय के आदेश पर खाली करना पड़ा है। क्या उन्होंने बंगला खाली करने की खीझ निकाली है? क्या उनके
अंदर की कुंठा इस रुप में सामने आई है? गुस्से और खीझ में कोई सारा सामान और फर्नीचर तक लेकर नहीं जाता। यह तो लालच का प्रतीक है। इस तरह सारे सामान ले जाने का मतलब है कि वो निर्माणाधीन अपने निजी बंगले में इनका उपयोग करेंगे। इस हरकत के लिए कोई भी शब्द प्रयोग छोटा हो जाएगा। कुछ लोग कह रहे हैं कि अगर वो वहां से सामान ले गए हैं तो उन पर सरकार कानूनी कार्रवाई करे। कानूनी कार्रवाई तो बाद की बात है। किंतु इसमें बड़ा प्रश्न एक बड़े नेता के आचरण का है, उसकी नैतिकता का है, राजनीतिक मर्यादा का है। बंगले का ध्वंस एवं वहां से सारे सामनों को ले जाना उनके चरित्र को आईना है जिसमें
वे कैसा दिख रहे यह आप तय करिए।

इसी से जुड़ा इसका दूसरा पहलूू है। वह यह है कि कोई नेता यह क्यों मान लेता है कि अगर वह एक बार मुख्यमंत्री या मंत्री बना तो जो बंगला उसे मिला है वह आजीवन उसके पास रहेगा। जिस तरह उस बंगले का पुनर्निर्माण किया गया उससे तो ऐसा ही लगता है मानो कोई निजी बंगला बनाया गया हो। यह कैसा लोकतांत्रिक व्यवहार है? हालांकि उत्तर प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्रियों को घर देने का फैसला कैबिनेट का था और इसी कारण सभी को घर मिला हुआ था। लेकिन उसमें यह तो नहीं था कि जिस बंगले में मुख्यमत्री रहते हैं वे उसी में रहेंगे? उनको कोई भी मकान आवंटित किया जा सकता था। किंतु यह सोच कि हम मुख्यंमंत्री रहें या न रहें इसी में रहना है एक सामंती और लोकतंत्र विरोधी सोच है। चूंकि अखिलेश यादव की पार्टी कहने के लिए तो समाजवादी है लेकिन यह वंशानुगत नेतृत्व की पार्टी हो चुकी है। पहले मुलायम सिंह, उसके बाद अखिलेश यादव एवं हो सकता है आगे अखिलेश के बाद पार्टी जीती तो उनके पुत्र अगले मुख्यमंत्री हो सकते हैं। तो बंगले का आंतरिक पुनर्निर्माण तथा साज-सज्जा कराते हुए यह भी ध्यान में रहा होगा कि इसमें हमारी कई पीढ़ी रहने वाली है। आप इस सोच को राजशाही सोच कहेंगे या लोकतांत्रिक? इस समय उच्चतम न्यायालय के आदेश से ऐसा नहीं हुआ तो गुस्से मंें उसे तहस-नहस कर दिया। इस लोकांत्रिक व्यवस्था में इस तरह की सोच भयभीत करती है। इसका मतलब यह भी है कि कल कोई व्यक्ति जो शायद आपके इतना सशक्त न हो, लेकिन आपको प्रबल राजनीतिक चुनौती दे दे तथा उससे आपका राजनीतिक लक्ष्य प्रभावित होने लगे तो उसे भी आप बरबाद करने पर तुल जाएंगे!

इसका तीसरा पहलू देश के एक-एक व्यक्ति को गंभीरता से सोचने को मजबूर करने वाला है कि आखिर हम कैसे लोगांें को अपना नेता चुनते हैं। अभी तक उत्तर प्रदेश के संपत्ति विभाग से जो सूचना मिल रही है उसके अनुसार मुख्यमंत्री बनने के बाद अखिलेश यादव ने उस बंगले का कायाकल्प करने के लिए दो किश्तों में 42 करोड़ रुपया खर्च कराया। हो सकता है कुछ ज्यादा भी खर्च हुआ हो। कई स्थानीय पत्रकार कह रहे हैं कि 80 करोड़ रुपया खर्च हुआ था। एक विशेष वास्तुकार ने अपने अनुसार उसका डिजायन किया एवं उसी तरह आंतरिक पुनर्निर्माण, अतिरिक्त निर्माण एवं साज-सज्जा हुई। उसे ऐसा बनाया गया कि ऐसी कोई सुख-सुविधा न हो जो उस बंगले में उपलब्ध नहीं हो। विदेशों से मार्बल्स एवं टाइल्स न जाने क्या-क्या मंगाए गए। गार्डन के लिए अनेक पेड़ भी विदेश से आए। विशेष किस्म का साइकिल ट्रैक बना, उच्च स्तरीय बैडमिंटन कोर्ट निर्मित हुआ, छत पर गार्डर लगार जिम बनाया गया…….कहां तक वर्णन करुं.। एक सम्पूर्ण शानो-शौकत वाला बंगला था वह। जिस प्रदेश में लाखों लोगांें को छत नसीब नहीं हो वहां का मुख्यमंत्री इस तरह राजसी ठाठ में रहे तो उसे आप क्या कहंेंगे? क्या समाजवाद का यही चरित्र हो गया है? समाजवादियों के जितने बड़े नेता हुए हैं उन्होंने अपने रहन-सहन और आचरण से एक मापदंड स्थापित किया। जैसा सरकारी भवन मिला उसका ही उपयोग किया। उनके दरवाजे कार्यकर्ताओं और आम नागरिकों के लिए हमेशा खुले रहते थे।

किन-किन के नामों का उल्लेख करुं। उनके कई कमरे बाहर से आने वाले या अनेक प्रकार के आंदोलनों में लगे लोगांें से भरे रहते थे। अखिलेश यादव ने अपने इस बेहद खर्चीली रहन-सहन से
उन सबके सबके स्थापित मापदंडों और परंपराओं को राैंंद दिया है। हालांकि हाल के वर्षों में राजनीतिक दलांें में जिस तरह के लोगों का प्रवेश हुआ है उससे पुराने समय का संयमित जीवन, मितव्ययी आचरण तो तेजी से नष्ट हो ही रहा है, कार्यकर्ताओं और आम लोगों के लिए दरवाजे खुले रखने तथा अपने आवास में जरुरतमंदों को ठहरने देने की संस्कृति लगभग खत्म सी हो गई है। ऐसे अब कुछ ही लोग बचे हैं। इसका शिकार प्रत्येक पार्टी है। हालांकि अभी भी रहन- साहन, खर्च और जीवन शैली में मानक बचाए हुए नेता हैं, लेकिन नेताओं के बड़े वर्ग के अंदर सभी सुख सुविधाओं से लैश जीवन आम बात हो रही है। यह पूरी राजनीति एवं भारतीय लोकतंत्र के भविष्य की दृष्टि से अत्यंत चिंताजनक है। यह स्थिति राजनीति में व्यापक बदलाव की माग करती है। संसदीय लोकतंत्र मेें नेताओं को अपने आचरण से जनता को संयमित, नैतिक जीवन जीने की प्रेरणा देनी चाहिए। किंतु अखिलेश यादव ने तो समाजवादी पार्टी के नेता होते हुए सुख-सुविधाओं और शानो- शौकत में शायद आज की स्थिति में भी देश के सारे नेताओं को पीछे छोड़ दिया। केन्द्र का कोई मंत्री या किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री ने इस तरह बंगले के आंतरिक पुनर्रचना और साज-सज्जा पर इतनी बड़ी राशि खर्च करके उसे पुराने जमाने के राजमहल से भी ज्यादा विलासमय बना दिया हो इसके
प्रमाण अभी तक सामने नहीं आए हैं। इसलिए जनता को यह तय करना है कि हम ऐसे लोगों को वाकई अपना नेता चुनें या नहीं।


अवधेश कुमार,
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