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अमर बलिदानी बदन सिंह जी

जिन आर्य वीरों ने धर्म और देश की रक्षा के लिए अपने जीवनों की आहुति दी तथा जिन बलिदानियों के माता पिता ने अपनी एक मात्र संतान को भी धर्म तथा देश की रक्षा करने के लिए बलिदानी मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए उत्साहित किया, अपना आशीर्वाद दिया, ऐसे नौजवान युवकों में बलिदानी बदनसिंह जी भी एक थे|

उत्तर प्रदेश के जिला सहारनपुर के अन्तर्गत मुज्जफराबाद नाम का एक गांव है| इस गाँव में ठाकुर टीकासिंह तथा माता श्रीमती हीरादेवी नामक पति पत्नी का एक हंसता खेलता परिवार निवास करता था| इनके यहाँ जुलाई १९२१ ईस्वी को एक बालक ने जन्म लिया| यह बालक इस दंपत्ति की एक मात्र संतान था| यह परिवार क्षेत्र भर में अत्यंत प्रतिष्ठित परिवार था| माता हीरादेवी सदाचार तथा सादगी की साक्षात् मूर्ति थी तो पिता भी सत्यवादी, नम्र प्रवृति वाले, मिलनसार तथा अत्यंत सूझवान् थे| यह सब गुण रखते हुए भी इस परिवार के लोग अत्याचार करने वाले का अत्यधिक विरोध करना भी जानते थे| इन दोनों के संस्कार बालक पर भी दिखाई देते थे, जिस बालक को अब बदनसिंह के नाम से पुकारा जाने लगा था|

छ: वर्ष का होते ही बदन सिंह जी को शिक्षा पाने के लिए स्कूल भेज दिया गया| सत्यवादी, मिलनसार तथा निराभिमानी बालक ने साथियों के साथ प्रेम बढाते हुये नम्रता तथा मितभाषानादि गुणों को ग्रहण किया| अब तक यह परिवार पौराणिक था और मूर्ति पूजा किया करता था| जब यह बालक दस वर्ष की अवस्था में आया तो एक आर्य समाजी अध्यापक, जिसका नाम शेरसिंह था, का स्थानान्तरण इस गाँव के स्कूल में हो गया| इस अध्यापक के प्रेम पूर्ण व्यवहार तथा इसकी दी जा रही वैदिक शिक्षाओं ने गाँव के लोगों के मनों को मोहना आरम्भ कर दिया| इस कारण धीरे धीरे गाँव के लोग आर्य समाज की और खींचे चले गए| बदन सिंह जी पर भी उनकी शिक्षाओं का प्रभाव पडा और वह भी अपने अन्दर के गुणों के कारण शीघ्र ही अपने नए गुरु की कृपा का पात्र बन गया| परिणाम स्वरूप इस गुरु की विचारधारा ने शिष्य के सारे पौराणिक विचार धो डाले| अब बदन सिंह जी शुद्ध रूप से वैदिक पथ के पथिक बन चुके थे| वास्तव में बदनसिंह जी को हमारा चरित नायक बनाने वाले मास्टर शेरसिंह जी ही थे|

बदनसिंह जी अब तक मात्र अठारह वर्ष के ही हुए थे कि हैदराबाद में निजाम के अत्याचारों का विरोध करने के लिए सत्याग्रह आंदोलन का भीषण शंखनाद निनादित हो गया| यह तो बताने की अब आवश्यकता ही नहीं रह जाती कि हैदराबाद का निजाम प्रतिदिन हिंदुओं और विशेषरूप से आर्यों पर निरंतर असहनीय अत्याचार कर रहा था और निरंतर उसके आत्याचार बढ़ते ही चले जा रहे थे| आर्यों को सब और से काली घटाओं सा अन्धेरा ही दिखाई दे रहा था| यह सत्याग्रह आन्दोलन इन सब अत्याचारों का प्रतिशोध लेने की इच्छा शक्ति का ही परिणाम था| सत्याग्रह के लिए किये गए आह्वान् ने आर्यों में धर्म पर बलिदान होने के लिये केवल प्रेरणा ही नहीं दी अपितु बलिदान देने के लिए आर्य समाज के लोगों में एक प्रकार से स्पर्धा ही लग गई| इस भीषण नाद को सुनते ही हमारे कथानायक बदनसिंह जी के हृद्य में बलि पथ पर बढ़ने के लिए हिलौरें उठने लगीं| वह भी धर्म की रक्षा के लिए कुछ करने की इच्छा को अपने अन्दर संजोये हुए था| इस समय उनके यशस्वी पिता रोग शैय्या पर थे, जब कि बलिदानी मार्ग पर जाने के लिए बालक का जोश थमने का नाम न ले रहा था| अपने बालक बदनसिंह की इस अवस्था को देखते हुए पिता ने अपनी रोग अवस्था में भी, अपनी चिंता को छोड़ते हुए अपने एक मात्र सुपुत्र बदन सिंह को मौत के मुंह में जाने की स्वीकृति देते हुए उसे बलिदानी मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए कह दिया| अपनी स्वीकृति देते समय उन्होंने बदन सिंह को कहा कि “ जा बेटा आज धर्म को तेरी आवश्यकता है, मेरी सेवा करने से कहीं अधिक है, जा धर्म की रक्षा कर|” गाँव के लोगों ने भी बदनसिंह के पिता की सेवा करने का संकल्प लिया तथा बदनसिंह को भावपूर्ण विदाई देकर हैदराबाद में सत्याग्रह के लिए जाने को विदा कर दिया|

ठाकुर बदनसिंह ने बड़ी प्रसन्नता से मौत का आलिंगन करने के लिए बलि का यह मार्ग चुना| अत: १७ जून १९३९ को हैदराबाद के बेजवाडा में जाकर सत्याग्रह किया| उन्हें यहाँ से गिरफ्तार कर वारंगल की जेल में भेज दिया गया| जेल की अवव्यवस्था, गंदे दूषित वातावरण तथा अत्यंत घटिया और पत्थर मिले भोजन खाने के कारण शीघ्र ही बदनसिंह जी को आंत्र ज्वर नामक रोग ने आ घेरा| जब तक यह ज्वर अत्यंत भीषण रूप न ले गया, तब तक निजाम शाही ने इनकी रक्षा की और कुछ भी ध्यान न दिया, किन्तु रोग के अत्यंत भीष्ण हो जाने पर, जब निजाम को बदनसिंह जी का अंतिम समय दिखाई देने लगा तो अपनी नाक बचाने के लिए बदनसिंह जी को उपचार के लिए अस्पताल भेज दिया गया| कुछ दिन का उपचार उन्हें मौत के पंजे से न छुडा सका| अत: उन्होंने २४ अगस्त सन् १९३९ ईस्वी को सांसारिक बंधनों को तोड़ते हुए इस आशा के साथ अपने इस शरीर को छोड़ दिया कि शीघ्र ही नया जन्म लेकर पुन: इस आन्दोलन को सफल बनाने के लिए एक बार फिर लौट कर आउंगा और एक बार फिर से सत्याग्रह करते हुए इस जेल में आउंगा और यह क्रम तब तक चलता रहेगा, जब तक निजाम हमारी सब मांगों को स्वीकार नहीं कर लेता|

ज्यों ही बलिदानी बदनसिंह जी ने निजाम की जेल में अपना शरीर छोड़ कर अनंत यात्रा के लिये प्रस्थान किया, उधर मानो पिता भी अपने सुपुत्र के बलिदान के सुखदायी समाचार की प्रतीक्षा में थे और इस समाचार को सुनने के मात्र डेढ़ महीना बाद वह भी अपने नश्वर शरीर को त्याग कर बदन सिंह को मिलने के लिए अनंत की यात्रा पर निकल गए| इस प्रकार पिता पुत्र के इस अभूतपूर्व बलिदान ने बता दिया कि यदि धर्म की रक्षा करना चाहते हैं तो जीवन को धर्म की भेंट चढाने के लिए सदा तैयार रहना होगा| इन बलिदानों से युग युग तक लोगों को प्रेरणा प्राप्त होती ही रहेगी|

डॉ.अशोक आर्य
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