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…और इस तरह मंगल पांडे 1857 की क्रांति के नायक बन गए

जो क्रांति अगस्त 1857 में रानी विक्टोरिया के इंग्लैंड से बाहर होने पर की जानी थी, वह मंगल पांडे की वजह से मई में ही शुरू होकर शायद इसीलिए असफल भी हो गई

मार्च 29, 1857, दिन रविवार. बैरकपुर स्थित 34 बंगाल नेटिव इन्फेंट्री का एडजुटेंट लेफ्टिनेंट बाउ चर्च जाने की तैयारी कर रहा था कि तभी उसे खबर मिली कि इन्फेंट्री की यूनिट के जवान अशांत लग रहे हैं. उसे जल्दी चलने को कहा गया क्योंकि छठी कंपनी का सिपाही मंगल पांडे यूनिट के अंदर यह चिल्लाता हुआ घूम रहा था कि जो भी अंग्रेज़ अफ़सर उसके सामने आया वह उसे मार देगा.

वह दूसरे सिपाहियों को उसका साथ देने के लिए भी कह रहा था. लेफ्टिनेंट ने तुरंत अपना इरादा बदला, वर्दी पहनी, दो भरी पिस्तौल लीं और अपने घोड़े पर बैठकर यूनिट की तरफ चल दिया. उसे इतना भी समय नहीं मिला कि वह अपने साथ अपने अर्दली शेख पल्टू को ही ले लेता. जब अर्दली ने यह ख़बर सुनी, तो वह भी जिस हालत में था, उसी में परेड ग्राउंड के लिए दौड़ लगा दी.

ग्राउंड के बीचों-बीच कंपनी की तोप रखी हुई थी. मंगल पांडे ने जब बाउ को आते देखा तो जाकर तोप के पीछे छुप गया. लेफ्टिनेंट ने देखा कि सारे जवान अपनी बैरकों से बाहर निकल आये हैं. लेकिन उसे मंगल पांडे कहीं नज़र नहीं आया. लेफ्टिनेंट को यह मामूली खुराफात लगी जिससे निपटना उसे बखूबी आता था. उसने बाग़ी सिपाही को सरेंडर करने की ललकार लगाई ही थी कि धमाके के साथ गोली चली. जब तक वह कुछ समझ पाता गोली उसके घोड़े को लगी और दोनों ज़मीन पर गिर पड़े. अब उसे समझ में आ गया था कि यह कोई मामूली बात नही है. यह बग़ावत थी. पर सवाल यह था कि वह या कोई और अंग्रेज अफसर पहले इसे भांप क्यों नहीं पाया था?

तो बात यह थी कि…

लार्ड डलहौज़ी मार्च 1856 में हिंदुस्तान छोड़ कर चला गया था. उसके कारनामों ने इस मुल्क की तकदीर ही बदल कर रख दी. उसने ‘डॉक्टरिन ऑफ़ लैप्स’ के द्वारा यहां के कई राजाओं और नवाबों की हुकूमतें हड़प ली थीं. अपनी किताब ‘भारत की आजादी का संघर्ष’ में बिपिन चंद्र लिखते हैं कि हज़ारों ज़मींदारों, दक्षिण के पोलिगरों ने अपनी ज़मीनें गवां दी थीं क्योंकि वे लोग कंपनी में लगान जमा नहीं करा पा रहे थे. ईस्ट इंडिया कंपनी के लालच ने देश के किसानों की कमर तोड़ कर रख दी थी. 30 सालों के अंदर अकेले बंगाल से कंपनी ने मुग़लों की तुलना में दुगना लगान इकठ्ठा करना शुरू कर दिया था. डलहौज़ी की हवस इतनी बढ गयी थी कि सड़क पर चलने वाले राहगीरों से भी टैक्स वसूला जाने लगा था. अगर उसका बस चलता तो वह जानवरों से भी लगान वसूल लेता.

उधर हिंदुस्तानी सिपाहियों की हालत भी अच्छी नहीं थी. उनके और अंग्रेज़ सैनिकों की तनख्वाह, वजीफ़े, तरक्की और सहूलियतों में काफी अंतर था. इन्फेंट्री के एक सिपाही को उस वक़्त महज़ सात रुपये मिला करते थे जिसमें से उसकी वर्दी के रख-रखाव, खाना आदि में खर्च होने के बाद सिर्फ एक या दो रुपये ही बचते थे, जिन्हें वह घर भेज पाता. इसकी तुलना में एक घुड़सवार को सेना में उस वक़्त सत्ताईस रुपये मिलते थे. सिपाहियों को दी जाने वाली सुविधाएं भी काफी हद तक बंद कर दी गयी थी. मसलन अब उन्हें अपनी चिट्ठियां भेजने के लिए डाक टिकट तक खुद खरीदने होते थे.

अपनी किताब में बिपिन चन्द्र लिखते हैं कि 1763 से लेकर 1856 तक 40 से ज़्यादा बार बड़े स्तर की बग़ावतों की कोशिशें हुईं. छिटपुट किस्सों की गिनती तो 100 से ऊपर की है. गुज़रते वक़्त के साथ सिपाहियों में विद्रोह के स्वर ऊंचे होते जा रहे थे. ऐसी ही एक बड़ी बगावत 1852 में लॉर्ड एलनबरो के काल में हुई थी जिसे दबा दिया गया. दूसरी बार यह चिंगारी डलहौज़ी के काल में पंजाब में उठी थी. सैनिकों को सख्त हिदायत थी कि जनता पर कोई रहम न करते हुए उससे कर वसूला जाए और मना करने वालों के खिलाफ निर्मम कार्रवाई की जाती थी. ऐसे में अपने ही लोगों पर अफसरों के जुल्म को देखते हुए सैनिकों में असंतोष फूट पड़ा. लेकिन इसे जनरल चार्ल्स नेपियर ने अपनी समझदारी से दबा दिया.

1852 में जब डलहौज़ी ने 38 रेजिमेंट को बर्मा भेजने का हुकम दिया तो सिपाही एक बार फिर भड़क उठे. उनका मानना था कि बाहर भेजकर अंग्रेज उनका धर्म भ्रष्ट करना चाहते थे. और वापस लौटने पर समाज में उनकी स्वीकार्यता भी पहले जैसी नहीं रहती थी. डलहौज़ी बात को बढ़ाना नहीं चाहता था इसलिए उसने अपना आदेश वापस ले लिया पर तब तक बात काफ़ी आगे बढ चुकी थी. फिर आया 1856 का वो साल जहां से हालात तेज़ी से बदलते चले गए. इस साल डलहौज़ी ने जब अवध पर ‘डॉक्टरिन ऑफ़ लैप्स’ के तहत कब्ज़ा किया तो मुसलमान सैनिक नाराज़ हो गए क्योंकि उस समय गिने-चुने मुसलमान ही नवाबों की हैसियत रखते थे. और बावजूद इसके कि अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने ईस्ट इंडिया कंपनी की कई बार वित्तीय मदद की थी, डलहौज़ी ने उन्हें धोखा दिया था.

हालांकि इसके बाद डलहौज़ी भारत छोड़ कर चला गया था लेकिन उसके जाने के बाद भी देश में असंतोष का माहौल खत्म नहीं हुआ. ‘जिन प्रशासनिक अधिकारियों को वह यहां छोड़ कर गया था उन्होंने उसके बाद आये लार्ड कैनिंग को डलहौज़ी की नज़र से ही हिंदुस्तान देखने पर मजबूर किया’ यह बात कहने वाला कोई और नहीं बल्कि उस वक़्त हिंदुस्तान की फौज का मेजर जॉर्ज ब्रूस मालेसन था. उसने अपनी किताब,’ ‘बंगाल आर्मी का ग़दर’ में इस घटना का ऐतिहासिक ब्यौरा दिया है. यह शायद ग़दर पर सबसे पहली किताब थी क्योंकि इस पर 2 जुलाई 1857 को जारी होने की तारीख है.

मालेसन ने इसे बंगाल आर्मी का गदर कहा है और ऐसा इसलिए, क्योंकि उस वक़्त हिन्दुस्तान में तीन प्रेसीडेंसी थीं – बंगाल, मद्रास और बॉम्बे और इनकी फौजें थीं क्रमशः बंगाल आर्मी, मद्रास आर्मी और बॉम्बे आर्मी. बंगाल आर्मी के अलावा बाकी दोनों फौजों ने खुद को गदर से अलग रखा था. खैर, हम बात कर रहे थे उन प्रशासनिक अधिकारियों की जिनके पूर्वाग्रह और नाकाबिलियत की वजह से यह चिंगारी अनदेखी रह गयी थी. ये सिविल सर्वेन्ट्स थे श्रीमान दोरिन, जेपी ग्रांट, मद्रास आर्मी के मुखिया जनरल जॉन लोवे, और अधिवक्ता पीकॉक. इनके साथ चार और सचिव थे – वित्त सचिव लुशिंगटन, गृह सचिव बाड़ों, रक्षा सचिव कर्नल बिर्च, विदेश सचिव एड्मोंस्टोन.

बंगाल आर्मी में उस वक़्त ब्राह्मणों की बहुतायत थी, लिहाज़ा उनका दबदबा भी था. उदाहरण के तौर पर अगर किसी रेजिमेंट में 1000 सिपाही थे तो उनमे से 800 हिंदू और 200 मुसलमान. उन 800 हिंदुओं में भी लगभग 400 ब्राह्मण थे. बाकी के गैर-ब्राह्मण और तथाकथित नीची जाति के सिपाही अपने अफ़सरों से ज़्यादा ब्राह्मणों के आदेशों की पालना करना अपना धर्म समझते थे. हिंदू सिपाही ईसाई मिशनरीज से भी खार खाए बैठे थे क्योंकि उन्हें लगता था कि उनका मकसद हिंदुओं का धर्म परिवर्तन करना है.

नवाब साहब को कंपनी के सिपाहियों के अंदर असंतोष की आग के बारे में खबर लग चुकी थी. उनके एजेटों ने यह कहकर इसे हवा देना शुरू कर दिया कि अंग्रेज़ लुटेरे हैं और मिशनरियों की वजह से हिंदू सिपाहियों का मज़हब ख़तरे में है. वाजिद अली शाह ने बहादुर शाह ज़फर को अपने हर कदम की जानकारी दी और तामीर की कि जब अगस्त 1857 में रानी विक्टोरिया इंग्लैंड से बाहर होगी, तब बग़ावत के लिए सही समय होगा. लेकिन हिंदुस्तान की तकदीर उस समय रूठी हुई थी और जो क्रांति अगस्त में होनी तय थी, वह मई में शुरू हो गयी. यह एक बड़ा कारण था कि 1857 की क्रांति असफल हो गयी थी.

खैर, अंग्रेज़ अफसर सिपाहियों के बढते असंतोष को भांप नहीं पा रहे थे और न ही वाजिद अली शाह की चालों को. जैसा हमने ऊपर पढ़ा कि नवाब के एजेंट अग्रेजों के ख़िलाफ़ सिपाहियों के कान भर रहे थे पर फिर भी वे हिंदुओं को यह बात ठीक से नहीं समझा पा रहे थे कि कैसे उनका धर्म संकट में है. तभी वह बात हो गयी जिसने नवाब का काम आसान कर दिया. लंदन में बनी एनफ़ील्ड रायफल को हिंदुस्तान की सेना में इस्तेमाल होने के आदेश की पालाना की जल्दी में कर्नल बिर्च और गृह सचिव बाड़ों ये भूल गए कि इसके कारतूस के खोल में लिपटी गाय और सुअर की चर्बी देश में आग लगा देगी. कर्नल बिर्च ने हिदुस्तान में भी उसी प्रकार के कारतूस को बनवाने का हुक्म ही नहीं दिया, बल्कि हिदुस्तानी सिपाहियों को इसे इस्तेमाल करने का आदेश भी दे दिया.

इसकी ख़बर भी बड़े दिलचस्प तरीके से हिंदू सिपाहियों को मालूम पड़ी. दरअसल ये कारतूस तथाकथित नीची जाति के लोग बनाते थे और एक बार किसी कारतूस बनाने वाली कंपनी में काम करने वाले आदमी ने ब्राह्मण सिपाही से पीने के लिए पानी मांगा तो उसने ऐसा करने से मना कर दिया. इस पर उस व्यक्ति ने ताना मारते हुए कहा, ‘धर्म तब कहां जाता है बाबू, जब मेरे हाथ के बने गाय की चर्बी वाले कारतूस को अपने मुंह से काट कर अपनी बंदूक में भरते हो?’ बस, फिर क्या था उस सिपाही ने यह बात अपने बाकी साथियों को बताई और जब इसकी पड़ताल करवाई तो इस सच से उनके पावों तले ज़मीन खिसक गयी. इसके बाद यह बात हर तरफ आग की तरह फैल गई. लेकिन कर्नल बिर्च ने चार महीने तक इस बात पर कोई तवज़्ज़ो नहीं दी. बाद में जब इस असंतोष की वजह से इन कारतूसों का बनना बंद हो गया, तब भी कर्नल साहब ने यह ज़रूरी नहीं समझा कि सिपाहियों को इसकी जानकारी दे दी जाए. इधर वाजिद अली के लोगों ने अफवाह फैला दी कि लार्ड कैनिंग तो तीन साल में पूरे हिंदुओं को ईसाई बना देगा.

इन अफवाहों और उन पर अफसरों का ध्यान न देने की लापरवाही का असर यह हुआ कि कारतूस वाली बात के मालूम होने के सात दिन बाद, यानी 24 जनवरी को बैरकपुर में टेलीग्राफ दफ्तर जला दिया गया. बगावत की आग अब फैलने लगी थी. और फिर आई 24 फ़रवरी, 1857 की शाम. हुआ यों कि उस दिन बैरकपुर से 34 नेटिव इन्फेंट्री के गारद सिपाहियों की एक टुकड़ी बहरामपुर पहुंची. वहां उनकी मुलाकात 19 रेजिमेंट के साथियों से हुई. गारद टुकड़ी के सिपाहियों ने अपना पूरा दुखड़ा उनके सामने रख दिया. बस फिर क्या था! एक जवान दूसरे जवान का साथी होता है.

अगले दिन जब कर्नल मिशेल ने रेजिमेंट को परेड करने का हुक्म दिया तो उसने मना कर दिया और बैरक में रखे सारे हथियार कब्ज़े में ले लिए. पर कर्नल मिशेल ने अपनी सूझबूझ से विद्रोह दबा दिया. 19 रेजिमेंट की इस बगावत की ख़बर बैरकपुर पहुंची तो 34 रेजिमेंट के जवानों में जोश भर गया. वे अब दबंगियत से बर्ताव करने लग गए. अंग्रेज अब तक ख़बरदार हो चुके थे उन्होंने बर्मा से अपनी सबसे ख़ास 84 रेजिमेंट को बुला भेजा जो 20 मार्च को कलकत्ता पहुंच गयी और इसको बहरामपुर के पास स्थापित कर दिया गया. इसके पहुंचते ही बहरामपुर की 19 रेजिमेंट को बैरकपुर जाने का हुक्म सुना दिया गया.

अब यह सिर्फ दिमागी कसरत भर है कि अगर 29 मार्च के पहले 19 रेजिमेंट बैरकपुर आकर 34 रेजिमेंट के साथ मिल जाती तो क्या होता. खैर, ऐसे मौकों पर उसी दौर के नामचीन शायर ग़ालिब का शेर याद आता है:

न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ भी न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न मैं होता तो क्या होता.

साभारः https://satyagrah.scroll.in से