अपने समय की स्वर कोकिला प्रेमलता जैन

“फूलों की कोमल सेज कभी, शूलों का कभी बिछौना है
पूजो तो नारी देवी है, खेलो तो सिर्फ खिलौना है”

यही वह गीत है जिसे किसी जमाने में कवियित्री प्रेमलता जैन पढ़ती थी तो आकाश तालियों की आवाज़ से गूंज उठता था। उनके स्वर माधुर्य की वजह से उन्हें स्वर कोकिला कहा जाता था। इस गीत में इन्होंने आजादी की जंग की आमजन के दिलों में उठती भावनाओं को बहुत ही खूबसूरत अंदाज़ में भावपूर्ण शब्दों में अभिव्यक्ति दी है। इंकलाब की बोलियां गूंजते जब रास्ते पर दिल में आज़ादी का ज्वार लिए टोलियां निकल पड़ती थी तो कभी खून की होली होती थी तो कभी पुलिस की लाठियां। ऐसे शासन को उलटने और नई संजीवनी देने के संदेश को आगे की पंक्तियों में यूं लिखा है…………..
और “जब निकलती मुक्ति पथ पे टोलियाँ गूँजती हैं इंकलाबी बोलियाँ
क्यों सड़क पे खून की हैं होलियाँ
क्यों पुलिस की भूनती हैं गोलियाँ
ऐसी कुर्सियों को तुम कुलांट दो
भीड़ को नया प्रकाश बाँट दो”

सत्तर के दशक तक स्वर कोकिला कहा जाने वाली कवियित्री 1985 तक कवि सम्मेलनों में खूब सक्रिय रहीं। उस समय उनके हिन्दी और राजस्थानी के गीत बहुत चाव से सुने जाते थे। कवि सम्मेलनों की जान होती थी ये। जिसमें ये नहीं होती थी वह सम्मेलन सूना -सूना रहता था। एक रिक्तता इनका अहसास कराती रहती थी। कहने का तात्पर्य है की किसी भी कवि सम्मेलन की शान थी प्रेमलता।

हिंदी के साथ-साथ राजस्थानी भाषा में भी इन्होंने जम कर काव्य सृजन किया।राजस्थानी गीत संग्रह ‘कनकी’ नाम से प्रकाशित हुआ।

श्रृंगार रस उनकी पहली पसंद थी और राजस्थानी भाषा में उन्होंने श्रृंगार गीत बहुत गीत लिखे। उस समय उनके लोकप्रिय गीतों में एक गीत के मुखड़े की बानगी देखिए……….
सारसड़ी ऐ सारसड़ी
सारस की लड़ली सारसड़ी
कद आवैगी साजनिया संग उड़बा की घड़ी”
इनके हिन्दी गीतों का संग्रह ‘जनपथ के जख्म’ नाम से छपा। इस संग्रह के गीतों में उन्होंने आम आदमी के दुखों को शिद्दत से उकेरा है।
इस संग्रह के गीतों का प्रमुख स्वर था ……..
“खूब छला खादी ने फुटपाथों के नंगे बचपन को
खूब जी लिया है हमने जन-गण-मन के अनुशासन को
रुग्ण हवाओं के झौंके ही मिले हमेशा भोजन को
राजनीति के सर्पों ने कर दिया विषैला जीवन को
गंदे जल से प्रजातंत्र का हो प्रक्षालन क्यों?
जिन तथ्यों में सत्य नहीं उनका अनुमोदन क्यों। ”

संग्रह में इस गीत के भाव बताते हैं की इनका सृजन मुख्य तौर पर देश भक्ति को समर्पित रहा है। संग्रह का विमोचन देश के नामी साहित्यकार राजेंद्र यादव ने 25 अगस्त 1995 को भरतपुर में किया था।

कोटा आने पर इनके गुरु जमना प्रसाद ठाड़ा राही से इन्हें नई साहित्य चेतना मिली। मुंबई के एक कलाकार से इनका गायन मुकाबला भी रामगंजमंडी में हुआ था। इस मुकाबले में इन्होंने विजयश्री को वरन किया और समाज ने इन्हें स्वर्ण पदक प्रदान कर सम्मानित किया था। कुछ समय पहले ही इनकी आत्मकथा का भी प्रकाशन “ओळ्यूँ के आँगणै’ (यादों के आँगन में) नाम से हुआ।

परिचय
प्रेमलता जैन का जन्म 20 अप्रैल 1936 को झालावाड़ जिले के एक प्रतिष्ठित जैन परिवार में हुआ। बचपन बहुत लाड़ में बीता। उनके बड़े भाई नमजी जैन भजन लिखा और गाया करते थे। बाबा देवीलाल जी कोटा रियासत में नाजिम थे और वो भी उर्दू में लिखा करते थे।

शादी के बाद प्रेमलता जी का जीवन आर्थिक और पारिवारिक संकटों में बीता। एक बार तो उन्हें और उनके पति स्वर्गीय श्री लालचंद जैन को चार महीने के लिए जंगलों में भी भटकना पड़ा। उनके साथ उनके देवर इंद्रमल जैन भी थे। दरअसल रिश्ते की एक भाभी से कुछ विवाद हुआ और दंपत्ति ने घर छोड़ने का निर्णय कर लिया। देवर से पुत्रवत प्रेम था तो वो भी साथ हो लिया। किसी ने उनके पति से वादा किया था कि वो आगरा में नौकरी दिला देगा । लेकिन आगरा पहुँच कर वो इस युवा दंपति को ठग कर सारा पैसा ले गया और परदेस में ये भटकते रहे। उस समय आज की तरह संचार के तीव्र माध्यम तो थे नहीं । इन्होंने अपनी आत्मकथा में इस का वर्णन बहुत विस्तार से किया है।

यह अपने भाई की शैली से प्रभावित होकर जैन समाज में भजनों के कार्यक्रम देती रहीं। रामगंजमंडी से इनका परिवार कोटा आ गया। इनके पुत्र अतुल कनक आज नामी रचनाकार हैं जिनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और पुत्र वधु ऋतु जैन के भी दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। जीवन के 78 बसंत की बाहर देख चुकी कवियित्री आज भी अपना समय स्वाध्याय और सृजन में बिताती है। पलंग के सिरहाने पर एक सेल्फ में पुस्तकें रखी हैं। नई प्राप्त प्रत्येक पुस्तक को अध्योपान्त पढ़ कर ही दम लेती हैं और सेल्फ में रख देती हैं। गजब की स्वाध्याय वृति युवा रचनाकारों के लिए अनुकरणीय है।