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22 अप्रैल – पृथ्वी दिवस पर विशेष ः धरती की डाक सुनो रे केऊ

मनुस्मृति के प्रलय खंड में प्रलय आने से पूर्व लंबे समय तक अग्नि वर्षा और फिर सैकङो वर्ष तक बारिश ही बारिश का जिक्र किया गया है। क्या वैसे ही लक्षणों की शुरुआत हो चुकी है ? तापमान नामक नामक डाकिये के जरिये भेजी पृथ्वी की चिट्ठी का ताजा संदेशा तो यही है और मूंगा भित्तियों के अस्तित्व पर मंडराते संकट का संकेत भी यही। अलग-अलग डाकियों से धरती ऐसे संदेशे भेजती ही रहती है। अब जरा जल्दी-जल्दी भेज रही है। हम ही हैं कि उन्हे अनसुना करने से बाज नहीं आ रहे। हमें चाहिए कि धरती के धीरज की और परीक्षा न लें। उसकी डाक सुनें भी और तद्नुसार बेहतर कल के लिए कुछ अच्छा गुने भी।

गौरतलब है कि मूुुगा भित्तियां कार्बन अवशोषित करने का प्रकृति प्रदत अत्यंत कारगर माध्यम हैं। इन्हे पर्यावरणीय संतुलन की सबसे प्राचीन प्रणाली कहा जाता है। हमारी पृथ्वी पर जीवन का संचार सबसे पहले मूंगा भित्तियों में ही हुआ। यदि जीवन संचार के प्रथम माध्यम का ही नाश होना शुरु हो जाये, तो समझ लेना चाहिए कि अंत का प्रारंभ हो चुका है। खबर है कि लाखों एकङ मूंगा भित्तियां हम पहले ही खो चुके हैं। समुद्र का तापमान मात्र आधा इंच बढने से शेष मूंगा भित्तियों का अस्तित्व भी खतरे पङ जायेगा। यदि इस सदी में 1.4 से 5.8 डिग्री सेल्सियस तक वैश्विक तापमान वृद्धि की रिपोर्ट सच हो गई और अगले एक दशक में 10 फीसदी आधिक वर्षा का आकलन झूठा सिद्ध नहीं हुआ, तो समुद्रों का जलस्तर 90 सेंटिमीटर तक बढ जायेगा; तटवर्ती इलााके डूब जायेंगे। इससे अन्य विनाशकारी नतीजे तो आयेंगे ही, धरती पर जीवन की नर्सरी कहे जाने वाली मूंगा भित्तियां पूरी तरह नष्ट हो जायेंगी; तब जीवन बचेगा… इस बात की गारंटी कौन दे सकता है ?

एटमोस्फियर, हाइड्रोस्फियर और लिथोस्फियर – इन तीन के बिना किसी भी ग्रह पर जीवन संभव नहीं होता। ये तीनो मंडल जहां मिलते हैं, उसे ही बायोस्फियर यानी जैवमंडल कहते हैं। इस मिलन क्षेत्र में ही जीवन संभव माना गया है। यदि इन तीनों पर ही प्रहार होने लगे…. यदि ये तीनों ही नष्ट होने लगें, तो जीवन पुष्ट कैसे हो सकता है ? परिदृश्य देखें तो चित्र यही है। जिस अमेरिका में पहले वर्ष में 5-7 समुद्री चक्रवात का औसत था, उसकी संख्या 25 से 30 हो गई है। न्यू आर्लिएंस नामक शहर ऐसे ही चक्रवात में नेस्तनाबूद हो गया। लू ने फ्रांस में हजारों को मौत दी। कायदे के विपरीत आबूधाबी में बर्फ की बारिश हुई। जमे हुए ग्रीनलैंड की बर्फ भी अब पिघलने लगी है। पिछले दशक की तुलना में धरती के समुदों का तल 6 से 8 इंच बढ गया है। परिणामस्वरूप, दुनिया का सबसे बङा जीवंत ढांचा कहे जाने वाले ग्रेट बैरियर रीफ का अस्तित्व खतरे में है। करीब 13 साल पहले प्रशांत महासागर के एक टापू किरीबाटी को हम समुद्र में खो चुके हैं।

ताज्जुब नहीं कि वनुबाटू द्वीप के लोग द्वीप छोङने को विवश हुए। न्यू गिनी के लोगों को भी एक टापू से पलायन करना पङा। भारत के सुंदरबन इलाके में स्थित लोहाचारा टापू भी आखिरकार डूब ही गया।मात्र तीन दिन की प्रलयंकारी बारिश ने मुंबई शहर का सीवर तंत्र व जमीनी ढांचों की उनकी औकात बता ही दी थी। सुनामी का कहर अभी हमारे जेहन में जिंदा है ही। हिमालयी ग्लेशियरों का 2077 वर्ग किमी का रकबा पिछले 50 सालों में सिकुङकर लगभग 500 वर्ग किमी कम हो गया है। गंगा के गोमुखी स्त्रोत वाला ग्लेशियर का टुकङा भी आखिरकार चटक कर अलग हो ही गया। अमरनाथ के शिवलिंग के रूप-स्वरूप पर खतरा मंडराता ही रहता है। उत्तराखण्ड विनाश के कारण अभी खत्म नहीं हुए हैं। तमाम नदिया सूखकर नाला बन ही रही हैं। भूजल में आर्सेनिक, फ्लोराइड के अलावा भारी धातुओं के इलाके बढ़ ही रहे हैं।

यह सच है कि अपनी धुरी पर घुमती पृथ्वी के झुकाव में आया परिवर्तन, सूर्य के तापमान में आया सूक्ष्म आवर्ती बदलाव तथा इस ब्राह्मंड में घटित होने वाली घटनायें भी पृथ्वी की बदलती जलवायु के लिए कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं। लेकिन इस सच को झूठ में नहीं बदला जा सकता कि आर्थिक विकास और विकास के लिए अधिकतम दोहन से जुङी इंसानी गतिविधियों ने इस पृथ्वी का सब कुछ छीनना शुरु कर दिया है। जीवन, जैवविविधता, धरती के भीतर और बाहर मौजूद जल, खनिज, वनस्पति, वायु, आकाश…. वह सब कुछ जो उसकी पकङ में संभव है। दरअसल, नये तरीके का विकास.. भोग आधारित विकास है। यदि यह बढेगा तो भोग बढेगा, दोहन बढेगा, कार्बन उत्सर्जन बढेगा, ग्रीन गैसें बढेंगी, तापमान बढेगा; साथ ही बढेगा प्राकृतिक वार और प्रहार। घटेगी तो सिर्फ पृथ्वी की खूबसूरती, समृद्धि। यह तय है। फिर एक दिन ऐसा भी आयेगा कि विकास, भोग, दोहन, उत्सर्जन, तापमान सब कुछ बढाने वाले खुद सीमा में आ जायेंगे। पुनः मूषक भव ! यह भी तय ही है। अब तय सिर्फ हमें यह करना है कि पृथ्वी के जीवन की सबसे पुरानी इकाई तक जा पहुंचे इस संकट को लाने में मेरी निजी भूमिका कितनी है।

गौरतलब है कि अपने घरों में तरह-तरह के मशीनी उपाय बढाकर हम समझ रहे हैं कि हमने प्रकृति के क्रोध के प्रति अपनी प्रतिरोधक क्षमता बढा ली है। लेकिन सच यह है कि हमारे शरीर व मन की प्रतिरोधक क्षमता घट रही है। थोङी सी गर्मी, सर्दी, बीमारी और संताप सहने की हमारी प्राकृतिक प्रतिरोधक शक्ति कम हुई है। अब न सिर्फ हमारा शरीर, मन और समूची अर्थव्यवस्था अलग-अलग तरह के एंटीबायोटिक्स पर जिंदा हैं। धरती को चिंता है कि बढ रहे भोग का यह चलन यूं ही जारी रहा, तो आने वाले कल में ऐसी तीन पृथ्वियों के संसाधन भी इंसानी उपभोग के लिए कम पङ जायेंगे। मानव प्रकृति का नियंता बनना चाहता है। वह भूल गया है कि प्रकृति अपना नियमन खुद करती है। धरती चिंतित इस प्रवृति के परिणाम को लेकर भी है।

फिलहाल सरकारें क्या करेंगी या नहीं करेंगी; दुनिया के शक्तिशाली कहे जाने वाले देश जिस तरह दूसरे देशों के संसाधनों से आर्थिक लूट का खेल चला रहे हैं, बिगड़ ते पर्यावरण के पीछे एक बङा कारण यह भी है। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ठीक ही कहा था कि आर्थिक साम्राज्यवाद के फैले जाल मंे फंस चुकों का निकलना इतना आसान नहीं। लेकिन निजी भोग व लालच के जाल से तो हम निकल ही सकते हैं। आइये, निकलें! इसी से प्रकृति और राष्ट्र के बचाव का दरवाजा खुलेगा; वरना् प्रकृति ने तो संकेत कर दिया है।

आज संकट साझा है… पूरी धरती का है; अतः प्रयास भी सभी को साझे करने होंगे। समझना होगा कि अर्थव्यवस्था को वैश्विक करने से नहीं, बल्कि ’वसुधैव कुटुंबकम’ की पुरातन भारतीय अवधारणा को लागू करने से ही धरती और इसकी संतानों की सांसें सुरक्षित रहेंगी। यह नहीं चलने वाला कि विकसित को साफ रखने के लिए वह अपना कचरा विकासशील देशों में बहाये। निजी जरूरतों को घटाये और भोग की जीवन शैली को बदले बगैर इस भूमिका को बदला नहीं जा सकता है। ”प्रकृति हमारी हर जरूरत को पूरा कर सकती है, लेकिन लालच किसी एक का भी नहीं।” – बापू का यह संदेश इस संकट का समाधान है। यह मानवीय भी है और पर्यावरणीय भी।

यदि हम सचमुच प्रकृति के गुलाम नहीं बनना चाहते, तो जरूरी है कि प्रकृति को अपना गुलाम बनाने का हठ और दंभ छोड़ें। टेस्ट ट्युब बेबी का जनक बनने में वक्त न गंवायें। अजन्मी बच्चियों को बेमौत मारने का अपराध न करें। कुदरत को जीत लेने में लगी प्रयोगशालाओं को प्रकृति से प्राप्त सौगातों को और अधिक समृद्ध, सेहतमंद व संरक्षित करने वाली धाय मां में बदल दें। नदियों को तोङने, मरोङने और बांधने की नापाक कोशिश न करें। पानी, हवा और जंगलों को नियोजित करने की बजाय प्राकृतिक रहने दें। बाढ और सुखाङ के साथ जीना सीखें। जीवन शैली, उद्योग, विकास, अर्थव्यवस्था आदि के नाम पर जो कुछ भी करना चाहते हैं,करें… लेकिन प्रकृति के चक्र में कोई अवरोध या विकार पैदा किए बगैर। उसमें असंतुलन पैदा करने की मनाही है। हम प्रकृति को न छेङेंगे, प्रकृति हमें नहीं छेङेगी। हम प्रकृति से जितना लें, उसी विन्रमता और मान के साथ उसे उतना और वैसा लौटायें भी। यही साझेदारी है और मर्यादित भी। इसे बनाये बगैर प्रकृति के गुस्से से बचना संभव नहीं। बचें। अनसुना न करें धरती का यह संदेश। ध्यान रहे कि सुनने के लिए अब वक्त भी कम ही है।

.अरुण तिवारी
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