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निष्कर्ष निकालने में मनमानी, चैनल बढ़ा रहे बार्क की परेशानी

गत कुछ सप्ताहों में इंडिया टुडे टीवी समूह और टाइम्स नाऊ के बीच जो झड़प चलती रही है वह इसी प्रकृति की अन्य खींचतान जैसी ही है। यानी होर्डिंग, ई-मेल, रेटिंग के आंकड़ों का हवाला देकर वाद-प्रतिवाद आदि का इस्तेमाल करके निपटाई जाने वाली झड़पें। कुछ सप्ताह पहले इंडिया टुडे टीवी (पहले हेडलाइंस टुडे) ने सात साल से अंग्रेजी टेलीविजन समाचार जगत के अगुआ टाइम्स नाऊ को पीछे छोड़ दिया था हालांकि हाल ही में जारी ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (बार्क) के आंकड़ों के मुताबिक टाइम्स नाऊ ने दोबारा अपनी जगह हासिल कर ली है। परंतु यहां बात केवल इनकी आपसी प्रतिद्वंद्विता की नहीं बल्कि दो चिंताजनक तथ्यों की है जो उभरकर सामने आ रहे हैं।

पहला, अत्यधिक सतर्कता बरतते हुए अपनी पसंद के आंकड़ों का चयन करना। यानी उन्हें साप्ताहिक आधार पर या प्रतिघंटा आधार पर चुनकर निष्कर्ष निकालना। टैम मीडिया रिसर्च ने इसे लेकर सभी को सख्त चेतावनी जारी की थी। बार्क के आंकड़ों के साथ भी यही हो रहा है। अंग्रेजी समाचार चैनलों की दर्शक संख्या के आंकड़ों का ही उदाहरण लें तो वे देश में कुल टेलीविजन देखे जाने के समय में आधे फीसदी का ही हिस्सा रखते हैं। बार्क के मुख्य कार्याधिकारी पार्थ दासगुप्ता के मुताबिक, 'चूंकि दर्शकों के आंकड़े इतने कम हैं इसलिए हम कहते हैं कि आंकड़ों को साप्ताहिक या घंटे के अनुपात में अलग-अलग करने के बजाय उन्हें चार सप्ताह के योग के रूप में पेश किया जाए।' ऐसा इसलिए भी क्योंकि अंग्रेजी समाचार या कारोबारी समाचार जैसे क्षेत्रों के आंकड़ों में स्थायित्व भी नहीं रहता। ऐसे में अगर उनका मनमुताबिक चयन किया जाए तो अजीबोगरीब परिणाम सामने आना तय है। यह बात संपादकों, चैनल के मार्केटिंग से जुड़े लोगों और मालिकों तक को तुनकमिजाज बना देती है। बार्क इस समय 12,000 घरों से आंकड़े जुटा रहा है और कुछ समय बाद यह संख्या करीब 20,000 हो जाएगी। लेकिन एक ऐसे बाजार में जहां टेलीविजन 16.1 करोड़ घरों अथवा 80 करोड़ लोगों तक पहुंच रखता है और जहां मनोरंजन ही सबसे बड़ा वाहक है वहां नमूने का आकार चाहे जितना बढ़ा दिया जाए, वह प्रतिघंटा आधार पर परिलक्षित नहीं हो सकता। यह कभी पता नहीं लगाया जा सकता है कि हर घंटे तमाम तेलुगू, तमिल या अंग्रेजी समाचार देखने वाले दर्शक क्या देख रहे हैं।

बार्क की तकनीकी समिति के सदस्य और प्रधान खास सलाहकार परितोष जोशी कहते हैं, 'समाचार चैनलों की प्रतिस्पर्धा को लेकर होने वाली बहस एकदम प्रारंभिक स्तर की है। ये चैनल बहुत मामूली में से भी मामूली आंकड़े प्रस्तुत करते हैं। आप स्टार, सोनी, जी अथवा वायकॉम 18 के काम करने का तरीका देखिए। वे निहायत सम्मानजनक ढंग से काम करते हैं।' आप यह कह सकते हैं कि समाचार चैनलों की तुलना में मनोरंजन चैनलों के नमूने भारी भरकम होते हैं इसलिए उनमें स्थिरता होती है। उनके पास मनमाने चयन की कोई वजह नहीं है। 
शायद ऐसा हो लेकिन प्रतिस्पर्धा का स्तर भी बहुत तगड़ा है। वहां काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है। टेलीविजन उद्योग की 43,000 करोड़ रुपये की आय का आधे से ज्यादा हिस्सा मनोरंजन चैनलों के खाते में ही जाता है। समाचार चैनलों की हिस्सेदारी 3,000 करोड़ के करीब है। इसके बावजूद टैम के दिनों से ही समाचार, संगीत और अन्य चैनल आंकड़ों का मनमाना प्रस्तुतीकरण करते रहे हैं। हालांकि  इसमें मोटै तौर पर समाचार चैनलों की ही भूमिका रही है क्योंकि वे आंकड़ों के उतार-चढ़ाव को लेकर असहज रहते हैं। आंकड़ों की इसी अस्थिरता ने बदलाव की प्रक्रिया को जन्म दिया और बार्क अस्तित्व में आया। अगर बार्क जल्दी कुछ प्रावधान नहीं करता या खास क्षेत्र के आंकड़ों को मासिक या त्रैमासिक आधार पर जारी नहीं करता तो यहां भी वही कहानी शुरू हो जाएगी। दासगुप्ता कहते हैं कि बार्क रास्ता तलाश कर रहा है। 

दूसरा तथ्य- इंडिया टुडे की उछाल में दोहरी फ्रीक्वेंसी का वितरण के तरीके के रूप में इस्तेमाल भी जिम्मेदार रहा बजाय कि टेलीविजन पर अधिक समय बिताने के। क्रोम डाटा एनालिटिक्स ऐंड मीडिया के मुताबिक जिस सप्ताह वह शीर्ष पर पहुंचा उस सप्ताह वह देश के 70 केबल नेटवर्क पर दो चैनलों पर दिखाया जा रहा था। इसकी बदौलत उसे टेलीविजन वाले घरों में 22 फीसदी अधिक पहुंच मिली। यही वजह रही कि जल्दी ही टाइम्स नाऊ दोबारा शीर्ष पर काबिज हो गया। 

किसी केबल सिस्टम में एक जगह दिखने की लागत ही एक चैनल को करीब 18 से 21 करोड़ रुपये सालाना पड़ती है। अगर वह दो स्थानों पर काबिज है तो माना जा सकता है कि इस लागत में करीब 50 फीसदी की बढ़ोतरी होनी तय है। अधिकांश विश्लेषकों का मानना है कि चैनल ज्यादा से ज्यादा दो और सप्ताह तक ऐसा कर सकते हैं। सबसे बड़े समाचार प्रसारकों  का कुल राजस्व करीब 450-500 करोड़ रुपये है। इसकी तुलना में स्टार का कुल राजस्व 7,200 करोड़ रुपये जबकि जी का 4,883 करोड़ रुपये है। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अगर ये चैनल भी वैसे ही हथकंडे अपनाने लगे तो क्या होगा? अब वक्त आ गया है कि नियामक की पहल के पहले भारतीय प्रसारण संघ खुद इस पर नजर रखना शुरू करे। 

 

साभार- बिज़नेस स्टैंडर्ड से