1

आर्यसमाज के भूषण पण्डित गुरुदत्तजी के अद्भुत जीवन का कारण क्या था?

महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के सच्चे भक्त विद्यानिधि, तर्कवाचस्पति, मुनिवर, पण्डित गुरुदत्त जी विद्यार्थी, एमए का जन्म २६ अप्रैल सन् १८६४ ई० को मुलतान नगर में और देहान्त २६ वर्ष की आयु में लाहौर नगर में १९ मार्च सन् १८९० ई को हुआ था। आर्य जगत् में कौन मनुष्य है, जो उनकी अद्भुत विद्या योग्यता, सच्ची धर्मवृत्ति और परोपकार को नहीं जानता? उनके शुद्ध जीवन, उग्र बुद्धि और दंभरहित त्याग को वह पुरुष जिसने उनको एक बेर भी देखा हो बतला सकता है। महर्षि दयानन्द के ऋषिजीवन रूपी आदर्श को धारण करने की वेगवान् इच्छा, योग समाधि से बुद्धि को निर्मल शुद्ध बनाने के उपाय, और वेदों के पढ़ने पढ़ाने में तद्रूप होने का पुरुषार्थ एक मात्र उनका आर्य्यजीवन बोधन कराता है।

अंग्रेजी पदार्थविद्या तथा फिलासोफी के वारपार होने पर उनकी पश्चिमी ज्ञानकाण्ड की सीमा का पता लग चुका था। जब वह पश्चिमी पदार्थविद्या और फिलासोफी क उत्तम से उत्तम पुस्तक पाठ करते थे, तो उनको भलीभांति विदित होता था कि संस्कृत विद्या के अथाह समुद्र के सन्मुख अंग्रेजी तथा पश्चिमी विद्या की क्या तुलना हो सकती है? एक समय लाहौर आर्य्यसमाज के वार्षिकोत्सव के अवसर पर उन्होंने अंग्रेजी में व्याख्यान देते हुए ज्योतिष शास्त्र और सूर्य्य सिद्धान्त की महिमा दर्शाते हुए, यह वचन कहे थे कि संस्कृत फिलासोफी का वहां आरम्भ होता है, जहां कि अंग्रेजी फिलासोफी समाप्त होती है।
वह कहा करते थे कि पश्चिमी विद्याओं में पदार्थविद्या उत्तम है और यह पदार्थविद्या तथा इसकी बनाई हुई कलें बुद्धि बल के महत्व को प्रकट करती हैं, इन कलों से भी अद्भुत विचारणीय पश्चिमी पदार्थविद्या के बाद हैं, परन्तु वह सर्व वाद वैशेषिक शास्त्र के आगे शान्त हो जाते हैं। वह कहते थे कि कणाद मुनि से बढ़कर कोई भी पदार्थविद्या का वेत्ता इस समय पृथिवी पर उपस्थित नहीं है। कई बेर उनको आर्य सज्जनों ने यह कहते हुए सुना कि मैं चाहता हूं कि पढ़ी हुई अंग्रेजी विद्या भूलजाऊँ, क्योंकि जो बात अंग्रेजी के महान् से महान् पुस्तक में सहस्र पृष्ठ में मिलती है, वह बात वेद के एक मन्त्र अथवा ऋषि के एक सूत्र में लिखी हुई पाई जाती है। वह कहते थे कि जो “मिल” ने अपने न्याय में सिद्धान्त रूप से लिखा है वह तो न्यायदर्शन के दो ही सूत्रों का आशय है। एक बेर उन्होंने कहा कि हम एक पुस्तक लिखने का विचार करते हैं जिसमें दर्शायेंगे कि भूत केवल पांच ही हो सकते हैं न कि ६४ जैसा कि वर्तमान समय में पश्चिमी पदार्थवेत्ता मान रहे हैं।
सन् १८८९ के शीतकाल में, मैं और लाला जगन्नाथ जी उनके दर्शनों को गये। वह उस रोग से जो अन्त को उनकी मृत्यु का कारण हुआ ग्रसे जा चुके थे। हम ने पूछा कि पण्डित जी आप प्रेम तथा विद्या की मूर्ति होने पर क्यों रोग से पकड़े गए? उत्तर में मुस्कराते हुए सौम्य दृष्टि से हम दोनों को कहने लगे कि क्या आप समझते हो कि स्वामी जी की महान् विद्या और उनका महान् बल मेरी इस मलीन बुद्धि और तुच्छ शरीर में आ सकता है, कदापि नहीं। ईश्वर मुझे इस से उत्तम बुद्धि और उत्तम शरीर देने का उपाय कर रहा है, ताकि मैं पुनर्जन्म में अपनी इच्छा की पूर्ति कर सकूं। यह वचन सुनकर हम आश्चर्य सागर में डूब गए और एक एक शब्द पर विचार करने लगे। पुनर्जन्म को तो हम भी मानते थे पर पुनर्जन्म का अनुभव और उसकी महिमा उनके यह वचन सुनकर ही मन में जम गई। स्थूलदर्शी जहां रोगों से पीड़ित होने पर निराशा के समुद्र में मूर्छित डूब जाते हैं, वहां तपस्वी पण्डित जी के यह आशामय वचन कि मृत्यु के पीछे हमें स्वामी जी के ऋषिजीवन धारण करने का अवसर मिलेगा कैसे सारगर्भित और सच्चे आर्य्य जीवन के बोधक हैं।
जबकि वह रोग से निर्बल हो रहे थे तो एक दिन कहने लगे के हमारा विचार है, कि एक व्याख्यान इस विषय पर दें कि मौत क्या है? मृत्यु कोई गुप्त वस्तु नहीं है। लोग मौत से व्यर्थ भय करते हैं। यह सच है कि पण्डित जी से ईश्वर उपासक और धार्मिक, योगाभ्यासी के लिए मौत भयानक न हो, परन्तु वह मनुष्य जो ऐसी उच्च अवस्था को नहीं प्राप्त हुआ वह क्योंकर अपने मुख से कह सकता है कि मौत भयानक नहीं है? पण्डित जी ने इस वाक्य को अपनी मौत पर जीवन में सिद्ध कर दिखाया। श्रीयुत लाला जयचन्द्र जी तथा भक्त श्री पण्डित रैमलजी, जो बहुधा उनके पास रोग की अवस्था में रहते थे वह उनकी मृत्यु से निर्भय होने की साक्षी भली प्रकार दे सकते हैं।
एक बार लाहौर समाज की धर्मचर्चा सभा में “वर्तमान समय की विद्या प्रणाली” के विषय में विचार होना था। इस वाद में कई बीए, एमए भाई अंग्रेजी विद्या तथा वर्तमान समय की विद्या प्रणाली की उत्तमता दर्शाने का यत्न करते रहे। अन्त को पण्डित जी ने “मातृमान् पितृमानाचार्य्यमान् पुरुषो वेद” की प्रतीक रखकर एक अद्भुत और सारगर्भित रीति से उक्त वचन की व्याख्या करते हुए लोगों को निश्चय करा दिया कि अंग्रेजी विद्या भ्रान्ति युक्त होने से विद्या ही कहलाने के योग्य नहीं है और वर्तमान शिक्षा प्रणाली शिर से पग तक छिद्रों से भरपूर है। उनका एक वचन कुछ ऐसा था कि “Modern System of Education is rotten from top to bottom.” एक समय इसी प्रकार धर्मचर्चा के अन्त में जबकि लोग “वक्तृता” के विषय में वाद विवाद कर चुके तो पण्डित जी ने अपने व्याख्यान में यह सिद्ध किया कि सत्य कथन ही का दूसरा नाम अद्भुत वक्तृता है।
जब कभी वह आर्य्य सभासदों को अपने नाम के पीछे अपनी ज्ञाति लिखते हुए देखते तो वह रोक देते थे, यह कहते हुए कि यह ज्ञाति की उपाधि किसी गुण कर्म की बोधक नहीं किन्तु रूढ़ी है और साथ ही कहते थे कि वर्ण तो गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल चार हो सकती हैं।
जब कभी वह हमें सुनाते कि यूरोप में अमुक नवीन वाद किसी विद्या विषय में निकला है, तो अत्यन्त प्रसन्न होकर साथ ही कहते कि यूरोप सत्य के निकट आ रहा है यदि कोई उनको ही कहता कि पण्डित जी यूरोप तो उन्नति कर रहा है, तो कहते कि भाई वेद के निकट आ रहा है। सत्य नियम की उन्नति कोई क्या कर सकता है? क्या दो और दो चार का कोई नवीन वाद उल्लंघन कर सकता है, कदापि नहीं। वह कहते थे कि वर्तमान यूरोप योगविद्या से शून्य होने के कारण सत्य नियमों को निर्भ्रान्त रीति से नहीं जान सकता। इसीलिए यूरोप में एक वाद आज स्थापित किया जाता और दश वर्ष के पीछे उसको खण्डन करना पड़ता है।
यदि योगदृष्टि से यूरोप के विद्वान् युक्त होते, तो जो वाद आज निकालते वह कभी परसों खण्डन न होते। उनका कथन था कि विद्या बिना योग के अधूरी रहा करती है। आर्ष ग्रन्थ इसीलिए पूर्ण हैं, कि उनके कर्त्ता योगी थे। अष्टाध्यायी इसीलिए उत्तम है कि महर्षि पाणिनि योगी थे। दर्शन शास्त्र के कर्त्ता अपने अपने विषय का इसलिए उत्तम वर्णन करते हैं कि वह योगी थे। कई मित्र उनके यह वचन सुन कर कह देते कि योगी तो किसी काम करने के योग्य नहीं रहते। इस शंका के उत्तर में वह कहते कि यह सत्य नहीं है, देखो महर्षि पतञ्जलि ने योगी होने पर योग शास्त्र और शब्द शास्त्र अर्थात् महाभाष्य लिखा, कृष्ण देव ने योगी होने पर कितना परोपकार किया था? प्राचीन समय में कोई ऋषि मुनि योग से रहित न था और सब ही उत्तम वैदिक कर्म्म करते थे। वर्तमान समय में क्या स्वामी जी ने योगी होने पर थोड़ा काम किया है? हां यह तो सत्य है कि योग व्यर्थ पुरुषार्थ नहीं करते।
पण्डित जी कहा करते थे कि वर्तमान पश्चिमी आयुर्वेद योग के ही न होने के कारण अधूरा बन रहा है। टूटी हुई अङ्गहीन कला से उसकी क्रियामान उत्तम दशा का पूर्ण अनुमान जैसे नहीं हो सकता, वैसे ही मृत शरीर के केवल चीरने फाड़ने से जीते हुए क्रियामान शरीर का पूर्ण ज्ञान नहीं मिल सकता। एक योगी जीते जागते शरीर की कला को योग दृष्टि से देखता हुआ उसके रोग के कारण को यथार्थ जान सकता और पूर्ण औषधी बतला सकता है परन्तु प्रत्यक्षप्रिय पश्चिमी वैद्यक विद्या यह नहीं कर सकती। जब कोई विद्यार्थी उनसे प्रश्न किया करता कि मैं आत्मोन्नति के लिए क्या करूँ, तो वह उत्तर में कहते कि अष्टाध्यायी से लेकर वेद पर्य्यन्त पढ़ो और अष्टांग योग के साधन करो। विवाह की बात करते हुए एक समय वह कहने लगे कि हम अपने लड़के को जब वह स्वयं विवाह करना चाहेगा तो यह प्रेरणा कर देंगे कि पाताल देश में जाकर वहां किसी योग्य स्त्री को आर्य्य बनाओ और उससे विवाह करो।
वह अष्टाध्यायी श्रेणी के सर्व विद्यार्थियों को उपदेश किया करते थे कि प्रातः काल सन्ध्या के पश्चात् एक घण्टा सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा करो, वह कहते थे कि मैंने ११ बेर सत्यार्थ प्रकाश को विचार पूर्वक पढ़ा है, और जब जब पढ़ा नए से नए अर्थों का भान मेरे मन में हुआ है। वह कहते थे कि शोक की बात है कि लोग सत्यार्थ प्रकाश को कई बेर नहीं पढ़ते। एक अवसर पर प्राणायाम का वर्णन करते हुए वह कहने लगे कि असाध्य रोगों को यही प्राणायाम दूर कर सकता है। उन्होंने बतलाया कि कभी कभी एक हृष्ट पुष्ट मनुष्य को प्राणायाम निर्बल कर देता है, परन्तु थोड़े ही काल के पश्चात् वह मनुष्य बलवान् और पुष्ट हो जाता है। उनका कथन था कि सृष्टि में सबसे उपयोगी वस्तु बिन मोल मिला करती है, इसलिए सबसे उत्तम औषधी असाध्य रोगों के लिए वायु ही है, और यह वायु प्राणायाम की रीति से हमें औषधी का काम दे सकती है।
एक बार लाला शिवनारायण अपने पुत्र को पण्डित जी के पास ले गये और कहने लगे कि पण्डितजी इसको मैं अष्टाध्यायी पढ़ाता हूं और मेरा विचार है कि इसको अंग्रेजी न पढ़ाऊं आपकी क्या सम्मति है? पण्डित जी बोले हमारी आपके अनुकूल सम्मति है, जब सौ में ९५ पुरुष बिना अंग्रेजी पढ़े के रोटी कमा सकते हैं तो आपको रोटी के लिए भी इसको अंग्रेजी नहीं पढ़ानी चाहिए।
एक बार मेरे साथ पण्डित जी ने प्रातः काल भ्रमण करने का विचार किया। मैं प्रातः काल ही उनके गृह पर गया और सब से ऊपर के कोठे पर उनको एक टूटी सी खाट पर बिना बिछोने और सिरहाने के सोता पाया। मैंने एक ही आवाज दी तुरन्त उठ कर मेरे साथ हो लिए। मैंने पूछा पण्डित जी आपको ऐसी खाट पर नींद आ गई, कहने लगे कि टूटी खाट क्या निद्रा को रोक सकती है? मैंने कहा कि आपको ऐसी खाट पर सोना शोभा देता है, कहने लगे कि सोना ही है कहीं सो रहे, बहुधा कंगाल लोग भी जब ऐसी खाटों पर सोते हैं तो हम क्या निराले हैं?
इस प्रकार बात चीत करते हुए मैं और लाला जगन्नाथ जी पण्डित जी के साथ नगर से दूर निकल गये। रास्ते में उन्होंने छोटे-छोटे ग्रामों में रहने के लाभ दर्शाये, फिर घोड़ों की कथाऐं वर्णन करते हुए हमें निश्चय करा दिया कि पशुओं में भी हमारे जैसा आत्मा है और यह भी सुख दुःख को अनुभव करते हैं। गोल बाग में आकर उन्होंने हमें बतलाया कि वनस्पति में भी आत्मा मूर्छित अवस्था में है और एक फूल को तोड़कर बहुत कुछ विद्या विषयक बातें वनस्पतियों की सुनाते रहे। इतने में लाला गणपतराय जी भी आ मिले और हम सब एकत्र होकर पण्डित जी की उत्तम शिक्षाएं ग्रहण करने लगे। उन्होंने गन्दे विषयासक्ति के दर्शाने वाले कल्पित ग्रन्थों के पढ़ने का खण्डन किया और पश्चिमी देशों के बड़े बड़े इन्द्रियाराम धनी पुरुषों के पापमय जीवनों का वर्णन करते हुए कहा कि निर्वाह मात्र के लिए धर्म से धन प्राप्त करना साहूकारी है न कि पाप से रुपया कमा कर विषय भोग करना अमीरी है।
अन्त में उन्होंने कहा कि पूर्ण उन्नत मनुष्य का दृष्टान्त ऋषि जीवन है। फिर उन्होंने कहा कि वह प्राचीन ऋषि, नहीं जान पड़ता कि कैसे अद्भुत विद्वान् होंगे जो अपने हाथों से, अनुभव करते हुए यह लिख गए कि संसार में ईश्वर इस प्रकार प्रतीत हो रहा है जैसा कि खारे जल में लवण विद्यमान् है।
एक समय लाहौर में ईसाइयों के स्थान में एक अंग्रेज ने व्याख्यान दिया जिसमें उसने मैक्समूलर आदि के प्रमाणों से वैदिक धर्म को दूषित बतलाया। पण्डित जी भी वहां गए हुए थे। आते हुए रास्ते में कहने लगे कि हम इसके कथन से सम्मत नहीं हैं। क्या यह हो सकता है कि हम भारतवर्ष के निवासी लण्डन में जाकर अंग्रेजी के प्रोफैसरों के सन्मुख “शेक्सपीअर” और “मैकाले” की अशुद्धियां निकालें और अंग्रेजी शब्दों के अपने अर्थ अंग्रेजों को सुनाकर कहें, कि तुम “शेक्सपीअर” नहीं जानते हमसे अर्थ सीखो। क्या “मैक्समूलर” वेदों के अर्थ अधिक जान सकता है अथवा प्राचीन ऋषि मुनि? निरुक्त आदि में वेद के अर्थ मिल सकते हैं न किसी विदेशी की कल्पना वेद के अर्थ को जान सकती है।
जब कोई उनसे स्वामी दयानन्द जी के जीवन चरित्र के विषय में प्रश्न करता तो वह सब काम छोड़कर उसके प्रश्न को सुनते और उत्तर देने को प्रस्तुत हो जाते। एक बेर किसी भद्रपुरुष ने उनको कहा कि पण्डित जी आप तो स्वामी जी के योगी होने के विषय में इतनी बातें विदित हैं, आप क्यों नहीं उनका जीवन चरित्र लिखते? उत्तर में बड़ी गम्भीरता से कहने लगे, कि हां, यत्न तो कर रहा हूं कि स्वामी जी का जीवन चरित्र लिखा जावे, कुछ कुछ आरम्भ तो कर दिया है। उसने कहा कि कब छपेगा, बोले कि आप पत्र पर जीवन चरित्र समझ रहे हो, हमारे विचार में स्वामी दयानन्द का जीवन चरित्र जीवन में लिखना चाहिए। मैं यत्न तो कर रहा हूं कि अपने जीवन में उनके जीवन को लिख सकूं।
एक बार अमृतसर समाज के उत्सव पर व्याख्यान देते हुए, उन्होंने दर्शाया कि स्वामी जी के महत्व का लोगों को २०० वर्ष के पीछे बोधन होगा जब कि विद्वान् पक्षपात् से रहित हो कर उनके ग्रन्थों को विचारेंगे। अभी लोगों की यह दशा नहीं कि योगी की बातों को जान सकें। वह कहा करते थे कि जैसे पांच सहस्र वर्ष व्यतीत हुए कि एक महाभारत युद्ध पृथिवी पर हुआ था, जिसके कारण वेदादि शास्त्रों का पठन पाठन पृथिवी पर से नष्ट होता गया, वैसे ही अब एक और विद्यारूपी महाभारत युद्ध की पृथिवी पर सामग्री एकत्र हो रही है, जब कि पूर्व और पश्चिम के मध्य में विद्या युद्ध होगा और जिसके कारण फिर वेदों का पठन पाठन संसार में फैलेगा और इस आत्मिक युद्ध का बीज स्वामी दयानन्द ने आर्य्यसमाज रूपी साधन द्वारा भूगोल में डाल दिया है।
एक अवसर पर किसी पुरूष के उत्तर में उन्होंने बतलाया कि स्वामी जी ने अजमेर में कहा था कि महाराजा युद्धिष्ठिर के राज से पहले चूहड़े अर्थात् भंगी आर्य्यावर्त्त में नहीं होते थे। आर्ष ग्रन्थों में भंगियों के लिए कोई शब्द नहीं है।
एक बेर, लाहौर में जब कि लोग अष्टाध्यायी पढ़ने के विपरीत युक्तियां घड़ रहे थे, तो उन्होंने समाज में एक व्याख्यान इस विषय पर दिया कि “लोग क्या कहेंगे” जिसमें उन्होंने सिद्ध किया कि जब कोई नया शुभ काम आरम्भ किया जाता है तब ही करने वालों के मन में उक्त प्रकार प्रश्न उठा करते हैं, परन्तु दृढ़ता के आगे ऐसे ऐसे प्रश्न स्वयं ही शान्त हो जाया करते हैं।
आरोग्यता सम्बन्धी बहुत सी बातें वह हमको बतलाया करते थे। उनका कथन था कि प्रातः काल भ्रमण करने के पीछे पांच वा सात मिनट आते ही लेट जाना चाहिए, इससे मल उतर आता है यदि रास्ते में भ्रमण करते समय एक संतरा खा लिया जाए तो और भी हितकारी है। वह मद्य, मांस, तमाकू, भंग आदि का खाना पीना सबको वर्जन करते थे रोटी के संग जल पान करने को अहित दर्शाते थे। वह स्वयं, जल रोटी खाने के कुछ काल पीछे पान करते थे। एक बेर स्वामी स्वात्मानन्द जी ने उनसे प्रश्न किया, कि वीर क्षत्रियों को मांस खाने की आवश्यकता है वा नहीं? इसके उत्तर में उन्होंने यूनान देश के योद्धाओं, नामधारी सिक्खों और ग्राम निवासी वीरों के दृष्टान्तों से सिद्ध कर दिया कि क्षत्री को मांस खाने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है, उन्होंने अर्जुन के दृष्टान्त से विदित किया कि वीरता का एक कारण आत्मिक संकल्प आदि है। क्योंकि जिस समय अर्जुन ने विचार किया था कि मुझको नहीं लड़ना चाहिए वह कायर हो गया, परन्तु जब कृष्णदेव के उपदेश ने उसके मनोभाव पलट दिए तो वही अर्जुन फिर वीर हो कर लड़ने लगा। अन्त में उन्होंने कहा कि अखण्ड ब्रह्मचर्य वीरता के लिए अत्यन्त आवश्यक है। स्वात्मानन्द जी मान गये कि बिना मांस भक्षण किये क्षत्री वीर हो सकते हैं।
एक बार उन्होंने लाला केदारनाथजी को उपदेश किया कि जल की नवसार चढ़ाया करो और “ऐनक” लगाना आंखों पर से छोड़ दो। उन्होंने मुझे तथा अन्य भाईयों को बिच्छु काटने, स्मृति के बढ़ाने और शीतला के रोकने की औषधियाँ बतलाईं थीं।