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निजाम की सत्ता को चुनौती देने वाले हैदराबाद के बलिदानी स्वामी कल्याणानंद सरास्वती

जब स्वामी दयानंद जी सरस्वती के कार्यों की चर्चा केवल भारत में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में हो रही थी तथा स्वामी जी ने मुंबई नगर में आर्य समाज की स्थापना का प्रथम और असफल प्रयास किया था, उन्हीं दिनों सन् १८७४ ईस्वी में आर्य समाज की विधिवत् स्थापना अर्थात् चैत्र प्रतिपदा सन् १८७५ ईस्वी से कुछ ही पूर्व जिला मुज्जफरनगर के गाँव किनौनी के एक जाट परिवार में स्वामी जी का जन्म हुआ| स्वामी जी के पिता का नाम चौ.साहमल जी था जबकी माता सुजान कौर ही स्वामी जी की माता थी| स्वामी जी अपने माता पिता की चतुर्थ संतान थी| स्वामी जी के जानकरों ने कभी इस बात का सोचा भी नहीं था कि उनके गाँव में जन्म लेने वाला यह बालक एक दिन आर्य समाज के कार्यों के लिए अपना बलिदान देकर अपना तथा उनके गाँव क नाम रोशन करेगा|

इस बालक का आरम्भिक समय खेलने खाने में ही बीता तथा सोलह वर्ष की आयु में इन्हें पढने के लिए स्कूल भेजा गया| इस पढ़ाई के अनन्तर आप गांव हरसौली के स्कूल में अध्यापक के पद पर आसीन हो गए| आपके जन्म के कुछ दिनों बाद ही आर्य समाज की स्थापना हो गई थी तथा आप के विद्यार्थी काल तक आर्य समाज के कार्यों की चर्चा सब और हो रही थी| इस कार्य को आप ने भी सुना और आर्य समाज को जानने के लिए आर्य समाजियों के साथ जुड़ गए| आप कब आर्य समाज के कार्यों को उत्तम समझते हुए इस में सक्रीय हो गए ,इसका तो पता ही नहीं चला| आर्य समाजी होने की कारण अध्यापन का कार्य करने के साथ ही साथ सामाजिक पुरानी रुढियों, गंदे रीती-रिवाजों आदि पर वाद विवाद भी करते रहते थे| अब आप न केवल वैदक साहित्य तथा ऋषि कृत ग्रन्थों का पाठ ही करने लगे अपितु नियमित रूप से संध्या वंदन भी करने लगे| जब आप गाँव हरसौली से बदलकर गाँव दतयाने चले गए तो आप में वैदिक धर्म के प्रचार तथा प्रसार की धुन सवार हुई|इस धुन को क्रियान्वित करने के लिए आपने नौकरी को त्याग दिया और अब अपना पूरा समय वेद प्रचार तथा ऋषि के सिद्धांतों के प्रसार में देने लगे| आपने क्षेत्र भर में ही नहीं दूरस्थ स्थानों तक भी खूब वेद प्रचार का कार्य किया | प्रचार की इस धुन के धनी स्वामी कल्यानानंद जी ने अनेक पाठशालाए भी सथापित कीं| अब तक आपका विवाह हो चुका था तथा आपकी संतान भी पढने योग्य हो गई थी| अत: आपने अपने छोटे सुपुत्र को वैदिक शिक्षा लेने के लिए गुरुकुल कांगड़ी भेज दिया|

इन्हीं दिनों हरिद्वार में कुम्भ का मेला लगा| इस मेले के अवसर पर ही आपमें वैराग्य जागृत हुआ तथा आपने हरिद्वार की मायापुर वाटिका में स्वामी ओंकार सच्चिदानंद जी से संन्यास की दिक्षा ली| संन्यास की दिक्षा लेकर आप वेद प्रचार करने के लिए पन्जाब चले गए| पंजाब के ग्रामीण क्षेत्र में आपने घूम घूम कर महर्षि दयानद सरस्वति जी के मतानुसार खूब धुन के साथ वेद प्रचार करने लगे|

पंजाब के पश्चात् आपने जिला मुज्जफरनगर, बुलंदशहर, मेरठ,सहारनपुर आदि के क्षेत्रों में भी आर्य समाज के प्रचार की धूम मचा दी| आप प्रचार कार्य को साधारण में न लेते थे अपितु इस कार्य के लिए बहुत मेहनत करते थे| यहाँ तक कि सीमांत क्षेत्र में तो आप ने वेद प्रचार तथा ऋषि मिशन के प्रसार की दुन्दुभी ही बजा दी| आप स्वभाव से अत्यंत नम्र, मिलनसार, पवित्र ह्रदय तथा सदाचारी होने के साथ ही साथ सब के दु:ख सुख के साथी थे| आप नित्य हवन अग्निहोत्र करते थे तथा स्त्री शिक्षा के लिए आपमें अत्यधिक अनुराग था|

इन्हीं दिनों सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के नेत्रत्व में हैदराबाद में धर्म की रक्षा के लिए सत्याग्रह आन्दोलन का शंखनाद किया गया| इस सत्याग्रह के शंखनाद के समय आपकी आयु ६५ वर्ष की थी| यद्यपि इस समय तक शरीर तो ठीक ठाक था किन्तु इस आयु में जेल और वह भी निजाम के राज्य की जेल, जिस में मिलने वाले दारुण यातना पूर्ण कष्टों के कारण बड़े बड़े पहलवानों का दिला भी दहल जाता था, ऐसी निजाम की जेल में बुढापे की आयु में जीवन का क्या होगा? इस सम्बन्ध में स्वामी जी ने तनिक भी नहीं विचारा ऑर न ही इसे अपने निश्चय के आड़े आने दिया अत: आर्य समाज के इस सच्चे सेवक तथा स्वामी दयानंद सरस्वति जी ने अपना स्वयं का बलिदान देकर आर्य समाजियों के सामने जो बलिदान का पाठ रखा था, उस बलिदान का अनुसरण करने, पालन करने की धुन के सच्चे अर्थों में पालन करने के दृढ़ संकल्पित थे स्वामी जी|

स्वामी जी जब एक बार कोई निर्णय ले लेते थे तो विश्व की कोई भी शक्ति उनके इस दृढ निश्चय को बदल नहीं सकती थी वह भी उस समय जब देश भर में जहाँ भी देखो हैदराबाद के सत्याग्रह आन्दोलन की चर्चाएँ हो रहीं थीं| इतना ही नहीं उस समय के समाचार पत्रों के कालमों इस सत्याग्रह के सत्याग्रहियों पर निजाम द्वारा नृशंस अत्याचारों की कथाएं भी प्रतिदिन प्रकाशित हो रहीं थीं| इन अत्याचारों की सम्पादकीय लेखों में निंदा हो रही थी | इन समाचारों तथा सम्पादकीय लेखों को पढ़कर कायर लोगों में भी नई जान आ जाती थी, उर में बलिदान देने की भयानक लहरें उठने लगती थीं, जन जन में कुर्बानी देने की इच्छा बल पकड़ने लगती थी| इस सब का परिणाम यह था कि प्रतिदिन अनेक लोग बलिदान की भावना संजोये अपने घर-बार, दुकानों तथा अपने व्यवसाय को छोड़कर सत्याग्रहियों के दलों में जा मिलते थे| इन दिनों हैदराबाद जाने वाले सत्याग्रहियों की इतनी अधिक संख्या होती थी कि प्राय: सब स्टेशन तथ बस अड्डे ओउम् के झंडों से भरे रहते थे तथा एसा लगता था कि यहाँ कोई आर्य समाज का मेला लगा हो| कोई तो हाथ में झंडा लिए सत्याग्रहियों के स्वागत के लिय उमड़ रहा होता था तो कोई स्वयं ही हाथ में झंडा लिए सत्याग्रह के लिए रवाना हो रहा होता था|

स्वामी कल्याणानंद जी ने तो स्वयं ही अपने जीवन को धर्म के प्रचार तथा प्रसार को समर्पित कर रखा था| अत: यह समर्पित स्वामी आर्यों पर हो रहे अत्याचारों को मूक दर्शक बनकर कैसे देख सकता था? परिणाम स्वरूप अपने ही खार्चे पर सत्याग्रहियों का जत्था लेकर शोलापुर पहुँच गए| यहाँ से प्राप्त आदेशानुसार गुलबर्गा गए| यहीं से आपने अपने साथियों सहित सत्याग्रह किया तथा तत्काल पुलिस ने इस दल को हिरासत में ले लिया तथा कारागार में डाल दिया गया|

जैसे ऊपर बताया गया है कि इस समय स्वामी जी की आयु इस प्रकार के संकट सहन करने की नहीं थी किन्तु उन्होंने इस सब की चिंता किये बिना जेल का अर्थात् मृत्यु का मार्ग चुना था| जेल में जिस स्थान पर उन्हें रखा गया, वह स्थान बहुत ही अधिक गंदा था| खाने के लिए मिलने वाला भोजन भी बेहद घटिया तथा कंकर मिला होता था| इन कारणों से कुछ ही दिनों में स्वामी जी को रोग ने आ घेरा| निजाम की जेलों में तो साधारण स्वस्थ सत्याग्रही को तो क्या रोगियों पर भी कुछ भी दया नहीं की जाती थी| आत: आप को असाध्य रोग होने पर भी नृशंस अत्याचारों का सामना प्रतिदिन करना पड़ता था| जब निजाम के अत्याचारी जेल कर्मचारियों ने देखा की स्वामी जी का रोग अत्यधिक असाध्य हो गया है तो स्वामी जी को अस्पताल भेज दिया गया किन्तु अस्पताल में भी निजाम के अत्याचारों में कुछ भी कमी नहीं आई| निजाम और उसकी पुलिस तो चाहती ही थी कि सब सत्याग्रही उनकी जेलों में सड सड कर मर जावें| इस सब के परिणाम स्वरूप दिनांक आठ जुलाई १९३९ ईस्वी को स्वामी जी ने निजाम की जेल ही में वीरगति प्राप्त की|

स्वामी जी की वीरगति का समाचार भी निजाम को परेशान करने वाला था क्योंकि निजाम दुनियां को यह नहीं दिखाना चाहता था कि उसकी जेलों में सत्याग्रहियों पर अत्यधिक अत्याचार होते हैं और इन अत्याचारों के कारण सत्याग्रही दम तोड़ रहे हैं| इस कारण निजाम तथा उसकी पुलिस ने स्वामी जी के देहावसान का समाचार गुप्त रखने का प्रयास किया| इस समाचार को बाहर न निकलने देने के आदेश जेल अधिकारियों को मिल चुके थे तो भी स्वामी जी का शरीर जेल में बन्द अन्य सत्याग्रहियों को सौंप दिया गया | इन सत्याग्रहियों ने जेल में ही आपका अंतिम संस्कार संपन्न किया| इस प्रकार ६५ वर्ष की आयु में भी आपने जाते जाते संसार को यह सन्देश दिया कि मृत्यु का वरण भी हंसते हंसते करना ही उत्तम है|

यह जगत् विख्यात् है कि महापुरुष लोग अपना बलिदान देकर अपने पीछे बहुत सी मधुर यादें छोड़ जाते हैं| जो जातियां महापुरुषों की इन यादों को याद कर इस बलिदानी परम्परा को बनाये रखते हुए निरंतर आगे बढती रहती हैं, वह जातियाँ विश्व मानचित्र पर स्वर्णाक्षरों में अंकित रहती हैं किन्तु जो जातियां अपने बलिदानियों को और उनकी बलिदानी परम्पराओं को भूल जाती है, उनका नाम विश्व मानचित्र से लुप्त हो जाता है| आज का आर्य समाज कुछ स्वार्थी और पदलोलुप लोगों के हाथ का खिलौना बनता जा रहा है| यह कब्जाधारी तथाकथित आर्य समाजी इसे नष्ट करने पर तुले हैं| इन स्वार्थी तथा पद लौलुप लोगों के हाथों से आर्य समाज को बचाने के लिए एक बार फिर से बलिदानी परम्परा को लाने की आवश्यकता है| यदि हम इसे बचाने के लिए हमारी पुरानी बलिदानी परम्परा को आगे न ला सके तो हम एक दिन इतिहास के पन्नों में ही खो कर रह जावेंगे| अत: आओ हम एक बार फिर आपसी मतभेद भुलाकर स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के बताये वेद मार्ग पर बलिदानी भावना से आगे बढ़ें| यदि हम ऐसा कर पाए तो निश्चय ही वह दिन दूर नहीं जब संसार हमारा अनुगमन करेगा|
डा.अशोक आर्य
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