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बलिदानी वीर बालक कुशल

एक छोटा सा बालक भी कभी देश के लिए बलिदान हो सकता है क्या? जी हाँ! हमारे देश ने बहुत से छोटे छोटे बालक पैदा किये, जिन्होंने अपने जीवन के अत्यंत अल्प काल में ही देश के लिए इतना बड़ा काम किया कि जिस काम को करने से आज बड़े बड़े भी डरते हैं| यह बालक अंग्रेज की जेलों में गए, भरपेट मार खाई और यहाँ तक कि फांसी से लटक कर अपने देश के लिए अपने जीवन तक को भी आहूत कर दिया| जिन बालकों ने देश के लिए अपना बलिदान दिया, उन बालकों में एक नाम बलिदानी बालक कुशल कोवंर का भी आता है, जिसका जीवन परिचय आज खोजने से भी नहीं मिलता|

आसाम के गोलाघाट जिला के अंतर्गत एक क्षेत्र आता है मौजा| इस मौजा क्षेत्र में ही एक गाँव का नाम है चाउदाचारि| इस गाँव में एक दम्पति रहते थे जिनका नाम था श्रीमती कनकेश्वरी तथा श्री सोनाराम| इन्हीं का ही एक बालक था, जिसका नाम था कोमल कोवंर| यह बालक अपने जिला गोलाघाट के एक राजकीय विद्यालय का विद्यार्थी था| यह बालक स्कूल से पढ़ने के पश्चातˎ अपने विश्राम के क्षणों का आनंद लेने के लिए जंगल के एकांत में चला जाता और वहां अकेले में बाँसुरी बजाकर इस बांसुरी का आनंद लिया करता था| एक दिन अपने इस नियम के अनुसार जून १९१९ का दिन था, जब यह बालक स्कूल से छुट्टी होने के पश्चातˎ जंगल में जाकर एक वृक्ष की शीतल छाया के नीचे बैठ कर बड़े प्रेम के साथ तथा बड़ी ही मधुर आवाज से बांसुरी बजा रहा था कि अकस्मातˎ उधर से एक साधू निकल रहा था| इस साधू के कानों में इस बांसुरी की मधुर ध्वनी पड़ी|

बाँसुरी की इस ध्वनी को सुनकर उस महात्मा को बड़ा आनंद भी अनुभव हुआ और दु:ख भी हुआ| वह महात्मा उस और बढ़ गया, जिधर से बांसुरी की धुन आ रही थी| सामने बाँसुरी बजा रहे एक बालक को देख, वह महात्मा उसके पास जा कर खडा हो गया| ज्यों ही इस बालक ने अपने सामने एक महात्मा को खड़े हुए देखा तो उसने बांसुरी बजाना रोक दिया तथा बिलकुल शांत भाव से बिना कुछ भी बोले वह उस महात्मा को देखने लगा| जब वह महात्मा को देख रहा था तो महात्मा ने उसे कुछ विचार, दिया जिसे इस बालक ने बड़े ध्यान से सुना|

“महात्मा ने उसे देश के लिए प्रेरित करते हुए कहा कि तुम बाँसुरी तो बहुत उत्तम स्वर में बजा लेते हो! लेकिन आज देश की स्थिति बहुत विस्फोटक है कि ˊअब चेन की बंसीˋ बजाने का समय नहीं कुछ करने का है| क्या तुम्हें नहीं मालूम कुछ ही दिनों पहले वैसाखी के पर्व पर अमृतसर के जलियांवाला बाग़ में २००० निर्दोष स्त्री,पुरुष व बच्चों को गोलियों से भून दिया आया| उस फिरंगी सरकार के सामने हम लोगों की जान की कोई कीमत नहीं| जानवरों और भेड बकरियों के बराबर भी नहीं| अत: बांसुरी बजानी ही है तो इसकी स्वर लहरी से एसा जादू भर दो, जो भारतीयों की सोई हुई आत्मा को झकझोर दे| जिसे सुनकर आतताई शासन के विरुद्ध जनता का स्वर हिलोरें लेने लगे| और उन हिलोरों में समाज का शोषण और उत्पीडन विलीन हो जाए|”

महात्मा के शब्दों को सुनकर बालक के ऊपर जैसा बाबा चाहते थे वैसा ही प्रभाव पडा| देश के लिए उसके अन्दर भी एक पीड़ा सी उठ खडी हुई और उसने महात्मा को वोश्वास दिलाते हुए कहा कि:-

“बाबा आपने आँखें खोल दीं| मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि अब मेरी बांसुरी से ऐसी ही स्वर लहरी गूंजेगी| लेकिन मुझे आपसे कुछ मार्गदर्शन चाहिए|”

बालक की इस बात का उत्तर देते हुए बाबा ने कहा “ जब चाह जागी है तो राह भी अपने आप निकल आयेगी|” यह कहकर इस महात्मा ने अपना मार्ग पकड़ा और अपने गंतव्य की और आगे बढ़ गया|

अब यह बालक चाहे स्कूल में होता, या घर पर या फिर जंगल में वंशी बजा रहा होता किन्तु इस महात्मा के शब्द उसके मस्तिष्क में घुमते रहते और यह उन शब्दों पर विचार करता रहता| अब देश के बारे में सोचने के कारण उसका मन पढ़ाई से उचाट हो गया था| जब वह इस अवस्था से निकल रहा था तो यह सन १९२० का वर्ष था, जिस वर्ष महात्मा गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन का आरम्भ किया था| गांधी जी के इस आन्दोलन की धमक असम तक भी आ पहुंची थी और यहाँ भी जगह जगह विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करते हुए धरने और प्रदर्शनों का दौर आरम्भ हो गया था| महात्मा गांधी जी ने जिस विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने की ज्योति देश में जगाई थी,उस से प्रेरित होकर असम के भी प्रत्येक गाँव में इस आन्दोलन का प्रभाव दिखाई देने लगा था| क्षेत्र भर में उठी इस नवचेतना की लहर को देख कर बालक कुशल कोवंर को वह वाक्य स्मरण हो आये, जो कुछ दिन पूर्व ही उसे एक साधु ने जंगल में उस की वंशी की आवाज को सुनकर कहे थे|

साधु के शब्द इस प्रकार थे,” जब चाह जागी तो राह अपने आप निकल आयेगी|” इन शब्दों को स्मरण करते ही इस बालक को कुछ करने के लिए मार्ग भी अपने आप ही दिखाई देने लगा| मार्ग दिखाई देते ही इस बालक ने स्कूल की शिक्षा को त्याग दिया और तत्काल अपने गाँव लौट आया| गाँव में आने पर यह बालक कांग्रेस का सक्रिय सदस्य हो गया| यह एक मृदुभाषी बालक था| इस की म्रिदुलता, मधुर व्यवहार तथा अपने कर्तव्य के प्रति सदा अडिग रहने के व्यवहार के कारण यह बालक शीघ्र ही कांग्रेस में अपना उत्तम स्थान बना पाने में सफल हो गया|

इन दिनों असहयोग आन्दोलन बल पकड़ चुका था और इस आन्दोलन की देश भर में खूब हलचल मच रही थी| कांग्रेस के कार्यकर्ता विभिन्न स्थानों पर गांधी जी के आदेशों का पालन करने के लिए निकलते किन्तु उन्हें अंग्रेज सरकार के कोप का भाजन बनना पड़ता क्योंकि स्थान स्थान पर निकल रहे इन जुलूसों पर अंग्रेज सरकार के आदेश पर या तो लाठियां बरसाई जा रहीं थीं और या फिर उन्हें गिरफ्तार कर उन्हें जेल भेजा जा रहा था| इस अहिंसक आन्दोलन का यह प्रभाव रहा कि अब भारतीय स्वाधीनता के लिए लड़ रहे गांधी जी के योद्धाओं में जेल जाने का किंचित भी भय नहीं रहा| अब तो जन सामान्य देश के लिए जेल जाना अपने लिए गौरवपूर्ण अनुभव करने लगा था| इस मध्य ही चोरीचौरा के स्थान पर जनता से एक अहिंसक घटना हो गई, जिसके कारण गांधी जी ने यह आन्दोलन वापिस ले लिया| गांधी जी के इस निर्णय का युवकों पर यह प्रभाव हुआ कि उनके अन्दर देश के लिए जो आग जल चुकी थी, वह उन्होने क्रांतिकारियों के साथ जुड़ कर शांत की| जब अनेक युवक क्रान्ति के मार्ग पर आगे बढ़ चुके थे तो भी यह बालक कुशल कोवंर गांधी जी के पदचिन्हों पर ही स्थिर था तथा उनके द्वारा चलाये जा रहे किसी भी आन्दोलन में सब से आगे दिखाई देता था| जब गांधी जी ने नमक आन्दोलन चलाया तो इस बालक ने अपने खाने में नामक का प्रयोग पूर्ण रूप से बंद कर दिया|

जब यह बालक इस साहस के साथ कांग्रेस के लिए कार्य कर रहा था तो बीच १९३४ को गांधी जी असम के गोलाघाट आये तो कोशल कोवंर जी को गांधी जी से मिलने का सुअवसर मिला| इस बालक ने जैसा गांधी जी को देखा अपनी दिनचर्या भी वैसी ही बना ली| अब वह नियमित रूप से गीता पाठ करने के साथ ही साथ गरीब लोगों की सेवा करते हुए छुआछूत के विरुद्ध खडा हो गया, वह गाँव गाँव जाकर कांग्र्रेस के संगठन में शक्ति फूंकने लगा और अपना आहार भी उसने गांधी जी के अनुरूप ही सीमित कर दिया| इस सब व्यवहार को उसने जीवन पर्यंत निभाया|

जब १९४२ में भारत छोडो आन्दोलन चलाया गया तो देश भर उथल पुथल के दौर से निकल रहा था| इस आन्दोलन के कारण देश में स्थान स्थान पर अंग्रेज सरकार के भवनों पर तिरंगा फहराने की एक प्रकार से होड़ सी ही लगी हुई थी| इस आन्दोलन के परिणाम स्वरूप असम की वीर बाला कनकलता तथा वीर मुकंद लाल अपना बलिदान दे चुके था जबकि आन्दोलन अब भी शांतिपूर्ण ही चल रहा था| इस आन्दोलन से अंग्रेज सरकार आग अबबूला हो रही थी तथा स्थान स्थान पर निहत्थे आन्दोलनकारियों पर गोलियों की बौछाड़ छोडी जा रही थी| इस का ही परिणाम था कि यह शांतिपूर्ण आन्दोलन हिंसक होता जा रहा था जबकि कुशल कोवंर अब भी आन्दोलन को अहिंसक बनाए रखने का प्रयास कर रहा था| अब तक वह कांग्रेस के अध्यक्ष बनकर कार्य कर रहे थे|

इस आन्दोलन को दबाने के लिए अंग्रेज सरकार के बहुत से अधिकारियों, सेना तथा बहुत सा गोलाबारूद लेकर एक रेल गाड़ी आसाम की ओर बढ़ रही थी कि क्रांतिकारी वीरों ने इस गाड़ी को पलट दिया| गाड़ी की इस दुर्घटना के परिणाम स्वरूप इसमें सवार लगभग १००० सैनिक मारे गए| इस घटना के कारण अंग्रेज और भी अधिक कुपित हो उठा तथा उसने अंधाधुंध यहाँ तक कि बेकसूर भारतियों को भी बंदी बनाना आरम्भ कर दिया|

अंग्रेज सरकार के इस कोप को देखते हुए माता श्रीमती कनकेश्वरी तथा पिता श्री सोनाराम ने अपने बालक को भूमिगत होने की सलाह दी किन्तु स्वाभिमानी कोशल कोवंर ने इस सलाह को अपने अनूकुल नहीं समझा और इसे न मानते हुए माता पिता को इस प्रकार उत्तर दिया:- “ मैं अहिंसा में विश्वास रखता हूँ| मुझे मेरे ईश्वर पर पूरा भरोसा है| सत्य कि सदा विजय होती है| इसी विश्वास से मैं अपना कर्तव्य पालन कर रहा हूँ|

मुझे छिपने की क्या आवश्यकता?” किन्तु अंग्रेज सरकार का आचरण तो सत्य वाला था ही नहीं , इस कारण सत्य की हार हुई और निरपराध कुशल कोवंर १३ नवम्बर को निर्दयी अंग्रेज सरकार ने उसे अपनी जेल में पहुंचा दिया| जेल में आने पर भी इस वीर ने अपने नित्य क्रम को नहीं छोड़ा| अब भी वह नित्य गीता का पाठ करता था| इतना ही नहीं इस जेल के अन्य कैदियों को भी वह गीता का उपदेश दिया करता था| वह कहा करते थे कि “ हिंसा और ध्वंस मूलक कार्यों से अहिंसा का पुजारी सदैव दूर रहता है|”

जब मुकद्दमा चला तो कोशल कुंवर ने इन शब्दों को बार बार दोहराया कि वह हिंसा में किंचित भी विश्वास नहीं रखता| इस कारण उसका रेल दुर्घटना से कुछ भी सम्बन्ध नहीं था| जबकि पुलिस इस बात से शर्मिन्दा थी कि इतनी बड़ी घटना हो गई और पुलिस कुछ भी पता लगाने मे असफल थी| पुलिस पर सरकार का यह दबाब भी बना हुआ था कि इस दुर्घटना को करने वाले अपराधियों पर तत्काल कार्यवाही की जावे| इस समय यहाँ का अधिकारी हेम्फ्रे साहिब थे| उसने अपने ऊपर के अधिकारियों को संतुष्टकरने के लिए झूठ का सहारा लेने में भी संकोच नहीं किया| इसके लिए झूठे गवाह भी तैयार कर लिए गए| इस सब के सहारे वीर कुंवर कोवंर को फांसी की सजा सुना दी गई और अन्य जिन लोगों को इस अपराध में पकड़ा गया था, उन सब को बरी कर दिया गया|

फांसी की कोठरी में रहते हुए भी स्वाधीनता के इस वीर योद्धा ने गीता का पाठ बंद नहीं किया | जब वह गीता पाठ समाप्त करके उठे ही थे कि सामने संतरी को देखकर बोले “ अच्छा मेरा बुलावा आ गया| तो मैं भी पूरी तरह से तैयार हूँ|” चलो| इतना कहकर वह संतरी के साथ चल दिए| अभी वह कुछ दूर ही चले थे कि एक स्थान पर रुक कर धरती माता की कुछ धूली मुठी में भर कर फिर से चल पड़े| मुठी में मिट्टी उठाते देख संतरी की यह जानने की जिज्ञासा हुई कि यह मिट्टी का इस समय क्या करेंगे?, तो संतरी ने इस वीर से यह पूछ ही लिया कि जमीन से आपने यह क्या उठाया है?

कुशल किशोर ने मुठी खोल कर सामने कर दी और बोले यह देखो मेरी मुठी में मिट्टी है| इस पर चौंकते हुए संतरी बोला क्या? मिट्टी| तो फांसी घर की और बढ़ते हुए इस वीर ने कहा कि “हाँ! मिट्टी| मेरी धरती माता! हमारी संस्कृति में जब प्राणी का अंतिम समय आता है तो उसे शैय्या से उतार कर धरती पर रख देते हैं, जिससे कि प्राण छूटते समय धरती माता से उसका संपर्क बना रहे| फांसी के फंदे पर झूलते समय मिट्टी हाथ में होने से मेरा संपर्क धरती माता से बना रहेगा|”

जिस कुशक कोवंर ने जीवन पर्यंत अहिंसा के व्रत का पालन किया| वह वीर अंत में क्रूर अंग्रेज की करूरता का शिकार हो गया और उसने हंसते हुए फांसी के फंदे को चूम कर अपने गले में डाल लिया| इस प्रकार इस वीर बलिदानी ने हंसते हुए १४ जून १९४३ को फांसी पर चढ़ कर इस देश के लिए अपना बलिदान दे दिया किन्तु जाते जाते भी फांसी पर चढने से पूर्व उसने एक सन्देश भी दिया:-“ देश के लिए बलिदान होने का ईश्वर ने मुझे अवसर प्रदान किया| आत्मा तो अमर है| एक दिन तो इस शरीर ने साथ छोड़ना ही था, यदि कौम की खातिर शरीर छोड़ना पड़े तो वह मेरे लिए बड़े गौरव की बात है| अत: फान्सी पर चढने के लिए मुझे कोई खेद नहीं है|”

निरपराध कुशल कोवंर को क्रूर अंग्रेज ने फांसी दे दी और उसकी फांसी के कुछ समय पश्चातˎ ही रेल को पलटने वाले वास्तविक देशभक्त भी पकड़ लिए गए| इन सबको पकड़ पर जेल में डाला गया किन्तु कुछ निर्णय होता, उससे पूर्व ही देश अंग्रेज के क्रूर पंजों से निकल कर स्वाधीन हो गया| देश की स्वाधीनता पर यह सब देश के दीवाने भारत की सरकार ने जेल से निकाल कर स्वाधीन कर दिए|

डॉ. अशोक आर्य
पाकेट १/६१ रामप्रस्थ ग्रीन से. ७ वैशाली
२०१०१० गाजियाबाद उ.प्र.भारत
चलभाष ९३५४८४५४२६
E Mail [email protected]

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From: ashok arya
Date: Tue, 15 Dec 2020, 15:46
Subject: बलिदानी वीर बालक कुशल कोवंर
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ओउम्
बलिदानी वीर बालक कुशल कोवंर
डॉ. अशोक आर्य
एक छोटा सा बालक भी कभी देश के लिए बलिदान हो सकता है क्या? जी हाँ! हमारे देश ने बहुत से छोटे छोटे बालक पैदा किये, जिन्होंने अपने जीवन के अत्यंत अल्प काल में ही देश के लिए इतना बड़ा काम किया कि जिस काम को करने से आज बड़े बड़े भी डरते हैं| यह बालक अंग्रेज की जेलों में गए, भरपेट मार खाई और यहाँ तक कि फांसी से लटक कर अपने देश के लिए अपने जीवन तक को भी आहूत कर दिया| जिन बालकों ने देश के लिए अपना बलिदान दिया, उन बालकों में एक नाम बलिदानी बालक कुशल कोवंर का भी आता है, जिसका जीवन परिचय आज खोजने से भी नहीं मिलता|
आसाम के गोलाघाट जिला के अंतर्गत एक क्षेत्र आता है मौजा| इस मौजा क्षेत्र में ही एक गाँव का नाम है चाउदाचारि| इस गाँव में एक दम्पति रहते थे जिनका नाम था श्रीमती कनकेश्वरी तथा श्री सोनाराम| इन्हीं का ही एक बालक था, जिसका नाम था कोमल कोवंर| यह बालक अपने जिला गोलाघाट के एक राजकीय विद्यालय का विद्यार्थी था| यह बालक स्कूल से पढ़ने के पश्चातˎ अपने विश्राम के क्षणों का आनंद लेने के लिए जंगल के एकांत में चला जाता और वहां अकेले में बाँसुरी बजाकर इस बांसुरी का आनंद लिया करता था| एक दिन अपने इस नियम के अनुसार जून १९१९ का दिन था, जब यह बालक स्कूल से छुट्टी होने के पश्चातˎ जंगल में जाकर एक वृक्ष की शीतल छाया के नीचे बैठ कर बड़े प्रेम के साथ तथा बड़ी ही मधुर आवाज से बांसुरी बजा रहा था कि अकस्मातˎ उधर से एक साधू निकल रहा था| इस साधू के कानों में इस बांसुरी की मधुर ध्वनी पड़ी|
बाँसुरी की इस ध्वनी को सुनकर उस महात्मा को बड़ा आनंद भी अनुभव हुआ और दु:ख भी हुआ| वह महात्मा उस और बढ़ गया, जिधर से बांसुरी की धुन आ रही थी| सामने बाँसुरी बजा रहे एक बालक को देख, वह महात्मा उसके पास जा कर खडा हो गया| ज्यों ही इस बालक ने अपने सामने एक महात्मा को खड़े हुए देखा तो उसने बांसुरी बजाना रोक दिया तथा बिलकुल शांत भाव से बिना कुछ भी बोले वह उस महात्मा को देखने लगा| जब वह महात्मा को देख रहा था तो महात्मा ने उसे कुछ विचार, दिया जिसे इस बालक ने बड़े ध्यान से सुना|
“महात्मा ने उसे देश के लिए प्रेरित करते हुए कहा कि तुम बाँसुरी तो बहुत उत्तम स्वर में बजा लेते हो! लेकिन आज देश की स्थिति बहुत विस्फोटक है कि ˊअब चेन की बंसीˋ बजाने का समय नहीं कुछ करने का है| क्या तुम्हें नहीं मालूम कुछ ही दिनों पहले वैसाखी के पर्व पर अमृतसर के जलियांवाला बाग़ में २००० निर्दोष स्त्री,पुरुष व बच्चों को गोलियों से भून दिया आया| उस फिरंगी सरकार के सामने हम लोगों की जान की कोई कीमत नहीं| जानवरों और भेड बकरियों के बराबर भी नहीं| अत: बांसुरी बजानी ही है तो इसकी स्वर लहरी से एसा जादू भर दो, जो भारतीयों की सोई हुई आत्मा को झकझोर दे| जिसे सुनकर आतताई शासन के विरुद्ध जनता का स्वर हिलोरें लेने लगे| और उन हिलोरों में समाज का शोषण और उत्पीडन विलीन हो जाए|”
महात्मा के शब्दों को सुनकर बालक के ऊपर जैसा बाबा चाहते थे वैसा ही प्रभाव पडा| देश के लिए उसके अन्दर भी एक पीड़ा सी उठ खडी हुई और उसने महात्मा को वोश्वास दिलाते हुए कहा कि:-
“बाबा आपने आँखें खोल दीं| मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि अब मेरी बांसुरी से ऐसी ही स्वर लहरी गूंजेगी| लेकिन मुझे आपसे कुछ मार्गदर्शन चाहिए|”
बालक की इस बात का उत्तर देते हुए बाबा ने कहा “ जब चाह जागी है तो राह भी अपने आप निकल आयेगी|” यह कहकर इस महात्मा ने अपना मार्ग पकड़ा और अपने गंतव्य की और आगे बढ़ गया|
अब यह बालक चाहे स्कूल में होता, या घर पर या फिर जंगल में वंशी बजा रहा होता किन्तु इस महात्मा के शब्द उसके मस्तिष्क में घुमते रहते और यह उन शब्दों पर विचार करता रहता| अब देश के बारे में सोचने के कारण उसका मन पढ़ाई से उचाट हो गया था| जब वह इस अवस्था से निकल रहा था तो यह सन १९२० का वर्ष था, जिस वर्ष महात्मा गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन का आरम्भ किया था| गांधी जी के इस आन्दोलन की धमक असम तक भी आ पहुंची थी और यहाँ भी जगह जगह विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करते हुए धरने और प्रदर्शनों का दौर आरम्भ हो गया था| महात्मा गांधी जी ने जिस विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने की ज्योति देश में जगाई थी,उस से प्रेरित होकर असम के भी प्रत्येक गाँव में इस आन्दोलन का प्रभाव दिखाई देने लगा था| क्षेत्र भर में उठी इस नवचेतना की लहर को देख कर बालक कुशल कोवंर को वह वाक्य स्मरण हो आये, जो कुछ दिन पूर्व ही उसे एक साधु ने जंगल में उस की वंशी की आवाज को सुनकर कहे थे|
साधू के शब्द इस परकर थे,” जब चाह जागी तो राह अपने आप निकल आयेगी|” इन शब्दों को स्मरण करते ही इस बालक को कुछ करने के लिए मार्ग भी अपने आप ही दिखाई देने लगा| मार्ग दिखाई देते ही इस बालक ने स्कूल की शिक्षा को त्याग दिया और तत्काल अपने गाँव लौट आया| गाँव में आने पर यह बालक कांग्रेस का सक्रीय सस्द्स्य हो गया| यह एक मृदुभाषी बालक था| इस की म्रिदुलता, मधुर व्यवहार तथा अपने कर्तव्य के प्रति सदा अडिग रहने के व्यवहार के कारण यह बालक शीघ्र ही कांग्रेस में अपना उत्तम स्थान बना पाने में सफल हो गया|
इन दिनों असहयोग आन्दोलन बल पकड़ चुका था और इस आन्दोलन की देश भर में खूब हलचल मच रही थी| कांग्रेस के कार्यकर्ता विभिन्न स्थानों पर गांधी जी के आदेशों का पालन करने के लिए निकलते किन्तु उन्हें अंग्रेज सरकार के कोप का भाजन बनना पड़ता क्योंकि स्थान स्थान पर निकल रहे इन जुलूसों पर अंग्रेज सरकार के आदेश पर या तो लाठियां बरसाई जा रहीं थीं और या फिर उन्हें गिरफ्तार कर उन्हें जेल भेजा जा रहा था| इस अहिंसक आन्दोलन का यह प्रभाव रहा कि अब भारतीय स्वाधीनता के लिए लड़ रहे गांधी जी के योद्धाओं में जेल जाने का किंचित भी भय नहीं रहा| अब तो जन सामान्य देश के लिए जेल जाना अपने लिए गौरवपूर्ण अनुभव करने लगा था| इस मध्य ही चोरीचौरा के स्थान पर जनता से एक अहिंसक घटना हो गई, जिसके कारण गांधी जी ने यह आन्दोलन वापिस ले लिया| गांधी जी के इस निर्णय का युवकों पर यह प्रभाव हुआ कि उनके अन्दर देश के लिए जो आग जल चुकी थी, वह उन्होने क्रांतिकारियों के साथ जुड़ कर शांत की| जब अनेक युवक क्रान्ति के मार्ग पर आगे बढ़ चुके थे तो भी यह बालक कुशल कोवंर गांधी जी के पदचिन्हों पर ही स्थिर था तथा उनके द्वारा चलाये जा रहे किसी भी आन्दोलन में सब से आगे दिखाई देता था| जब गांधी जी ने नमक आन्दोलन चलाया तो इस बालक ने अपने खाने में नामक का प्रयोग पूर्ण रूप से बंद कर दिया|
जब यह बाल इस साहस के साथ कांग्रेस के लिए कार्य कर रहा था तो इस मध्य १९३४ को गांधी जी असम के गोलाघाट आये तो कोशल कोवंर जी को गांधी जी से मिलने का सुअवसर मिला| इस बालक ने जैसा गान्दही जी को देखा अपनी दिनचर्या भी वैसी ही बना ली| अब वह नियमित रूप से गीता पाठ करने के साथ ही साथ गरीब लोगों की सेवा करते हुए छुआछूत के विरुद्ध खडा हो गया, वह गाँव गाँव जाकर कांग्र्रेस के संगठन में शक्ति फूंकने लगा और अपना आहार भी उसने गांधी जी के अनुरूप ही सीमित कर दिया| इस सब व्यवहार को उसने जीवन पर्यंत निभाया|
जब १९४२ में भारत छोडो आन्दोलन चलाया गया तो देश भर उथल पुथल के दौर से निकल रहा था| इस आन्दोलन के कारण देश में स्थान स्थान पर अंग्रेज सरकार के भवनों पर तिरंगा फहराने की एक प्रकार से होड़ सी ही लगी हुई थी| इस आन्दोलन के परिणाम स्वरूप असम की वीर बाला कनकलता तथा वीर मुकंद लाल अपना बलिदान दे चुके था जबकि आन्दोलन अब भी शांतिपूर्ण ही चल रहा था| इस आन्दोलन से अंग्रेज सरकार आग अबबूला हो रही थी तथा स्थान स्थान पर निहत्थे आन्दोलनकारियों पर गोलियों की बौछाड़ छोडी जा रही थी| इस का ही परिणाम था कि यह शांतिपूर्ण आन्दोलन हिंसक होता जा रहा था जबकि कुशल कोवंर अब भी आन्दोलन को अहिंसक बनाए रखने का प्रयास कर रहा था| अब तक वह कांग्रेस के अध्यक्ष बनकर कार्य कर रहे थे|
इस आन्दोलन को दबाने के लिए अंग्रेज सरकार के बहुत से अधिकारियों, सेना तथा बहुत सा गोलाबारूद लेकर एक रेल गाड़ी आसाम की ओर बढ़ रही थी कि क्रांतिकारी वीरों ने इस गाड़ी को पलट दिया| गाड़ी की इस दुर्घटना के परिणाम स्वरूप इसमें सवार लगभग १००० सैनिक मारे गए| इस घटना के कारण अंग्रेज और भी अधिक कुपित हो उठा तथा उसने अंधाधुंध यहाँ तक कि बेकसूर भारतियों को भी बंदी बनाना आरम्भ कर दिया| अंग्रेज सरकार के इस कोप को देखते हुए माता श्रीमती कनकेश्वरी तथा पिता श्री सोनाराम ने अपने बालक को भूमिगत होने की सलाह दी किन्तु स्वाभिमानी कोशल कोवंर ने इस सलाह को अपने अनूकुल नहीं समझा और इसे न मानते हुए माता पिता को इस प्रकार उत्तर दिया:-
“ मैं अहिंसा में विश्वास रखता हूँ| मुझे मेरे ईश्वर पर पूरा भरोसा है| सत्य कि सदा विजय होती है| इसी विश्वास से मैं अपना कर्तव्य पालन कर रहा हूँ|
मुझे छिपने की क्या आवश्यकता?” किन्तु अंग्रेज सरकार का आचरण तो सत्य वाला था ही नहीं , इस कारण सत्य की हार हुई और निरपराध कुशल कोवंर १३ नवम्बर को निर्दयी अंग्रेज सरकार ने उसे अपनी जेल में पहुंचा दिया| जेल में आने पर भी इस वीर ने अपने नित्य क्रम को नहीं छोड़ा| अब भी वह नित्य गीता का पाठ करता था| इतना ही नहीं इस जेल के अन्य कैदियों को भी वह गीता का उपदेश दिया करता था| वह कहा करते थे कि “ हिंसा और ध्वंस मूलक कार्यों से अहिंसा का पुजारी सदैव दूर रहता है|”
जब मुकद्दमा चला तो कोशल कुंवर ने इन शब्दों को बार बार दोहराया कि वह हिंसा में किंचित भी विश्वास नहीं रखता| इस कारण उसका रेल दुर्घटना से कुछ भी सम्बन्ध नहीं था| जबकि पुलिस इस बात से शर्मिन्दा थी कि इतनी बड़ी घटना हो गई और पुलिस कुछ भी पता लगाने मे असफल थी| पुलिस पर सरकार का यह दबाब भी बना हुआ था कि इस दुर्घटना को करने वाले अपराधियों पर तत्काल कार्यवाही की जावे| इस समय यहाँ का अधिकारी हेम्फ्रे साहिब थे| उसने अपने ऊपर के अधिकारियों को संतुष्टकरने के लिए झूठ का सहारा लेने में भी संकोच नहीं किया| इसके लिए झूठे गवाह भी तैयार कर लिए गए| इस सब के सहारे वीर कुंवर कोवंर को फांसी की सजा सुना दी गई और अन्य जिन लोगों को इस अपराध में पकड़ा गया था, उन सब को बरी कर दिया गया|
फांसी की कोठरी में रहते हुए भी स्वाधीनता के इस वीर योद्धा ने गीता का पाठ बंद नहीं किया | जब वह गीता पाठ समाप्त करके उठे ही थे कि सामने संतरी को देखकर बोले “ अच्छा मेरा बुलावा आ गया| तो मैं भी पूरी तरह से तैयार हूँ|” चलो| इतना कहकर वह संतरी के साथ चल दिए| अभी वह कुछ दूर ही चले थे कि एक स्थान पर रुक कर धरती माता की कुछ धूली मुठी में भर कर फिर से चल पड़े| मुठी में मिट्टी उठाते देख संतरी की यह जानने की जिज्ञासा हुई कि यह मिट्टी का इस समय क्या करेंगे?, तो संतरी ने इस वीर से यह पूछ ही लिया कि जमीन से आपने यह क्या उठाया है?
कुशल किशोर ने मुठी खोल कर सामने कर दी और बोले यह देखो मेरी मुठी में मिट्टी है| इस पर चौंकते हुए संतरी बोला क्या? मिट्टी| तो फांसी घर की और बढ़ते हुए इस वीर ने कहा कि “हाँ! मिट्टी| मेरी धरती माता! हमारी संस्कृति में जब प्राणी का अंतिम समय आता है तो उसे शैय्या से उतार कर धरती पर रख देते हैं, जिससे कि प्राण छूटते समय धरती माता से उसका संपर्क बना रहे| फांसी के फंदे पर झूलते समय मिट्टी हाथ में होने से मेरा संपर्क धरती माता से बना रहेगा|”
जिस कुशक कोवंर ने जीवन पर्यंत अहिंसा के व्रत का पालन किया| वह वीर अंत में क्रूर अंग्रेज की करूरता का शिकार हो गया और उसने हंसते हुए फांसी के फंदे को चूम कर अपने गले में डाल लिया| इस प्रकार इस वीर बलिदानी ने हंसते हुए १४ जून १९४३ को फांसी पर चढ़ कर इस देश के लिए अपना बलिदान दे दिया किन्तु जाते जाते भी फांसी पर चढने से पूर्व उसने एक सन्देश भी दिया:-
“ देश के लिए बलिदान होने का ईश्वर ने मुझे अवसर प्रदान किया| आत्मा तो अमर है| एक दिन तो इस शरीर ने साथ छोड़ना ही था, यदि कौम की खातिर शरीर छोड़ना पड़े तो वह मेरे लिए बड़े गौरव की बात है| अत: फान्सी पर चढने के लिए मुझे कोई खेद नहीं है|”

निरपराध कुशल कोवंर को क्रूर अंग्रेज ने फांसी दे दी और उसकी फांसी के कुछ समय पश्चातˎ ही रेल को पलटने वाले वास्तविक देशभक्त भी पकड़ लिए गए| इन सबको पकड़ पर जेल में डाला गया किन्तु कुछ निर्णय होता, उससे पूर्व ही देश अंग्रेज के क्रूर पंजों से निकल कर स्वाधीन हो गया| देश की स्वाधीनता पर यह सब देश के दीवाने भारत की सरकार ने जेल से निकाल कर स्वाधीन कर दिए|

डॉ. अशोक आर्य
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२०१०१० गाजियाबाद उ.प्र.भारत
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