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नसीरुद्दीन शाह हो या शाहरुख खान इनका एजेंडा एक ही है

बात थोड़ी पुरानी है। अभिनेता नसीरुद्दीन शाह अपनी जिन्दगी के संबंध की बात कर रहे थे। बात करते—करते साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि वे मजहब में विश्वास नहीं रखते। उन्होंने अपने और रत्ना पाठक के संबंध में बात की और फिर बातचीत का सिलसिला जब आगे बढ़ा तो उन्होंने बताया कि विवान शाह को उन्होंने कुरआन की तालीम दिलाई है। यह बात समझ आई कि एक व्यक्ति जिसका मजहब पर यकीन नहीं है। वह खुद से 15 साल बड़ी उम्र की पत्नी को छोड़कर एक महिला से शादी करता है। जिसके साथ वह लिव इन में रह चुका है। दोनों ही बातें गैर इस्लामिक हैं, लेकिन वह अपनी हिन्दू पत्नी से हुए बच्चों को कुरआन की तालीम दिलवाता है। उसी साक्षात्कार में नसीर फिर सफाई देते हैं। कुरआन इसलिए पढ़वाया क्योंंकि उससे उच्चारण साफ होता है। यदि बात सिर्फ उच्चारण की होती तो संस्कृत से भी वह स्पष्ट हो सकता था। 2020 और 2021 में नसीरुद्दीन जिस तरह से खांटी मुसलमान बनकर मैदान में कूदे, उसके बाद उनकी पंथ निरपेक्षता पर कोई पर्दा नहीं रह गया। शबाना आजमी और जावेद अख्तर भी नसीर की श्रेणी के पंथ निरपेक्ष प्रगतिशील रहे हैं।

एक और पंथ निरपेक्ष प्रगतिशील अभिनेता शाहरुख खान इन दिनों सोशल मीडिया पर चर्चा में है। कई बार सोचता हूं कि यदि शाहरुख सच में गौरी को प्रेम करते थे। मीडिया में उनके प्रेम की दर्जनों खबरें प्रकाशित हुई। फिर गौरी को खान क्यों होना पड़ा? यदि शाहरुख के प्रेम में गौरी ने खान होना मंजूर कर लिया तो शाहरुख क्यों नहीं छिब्बर हो गए? क्या गौरी को लोग गौरी छिब्बर के नाम से जानते तो शाहरुख का रुतबा कम हो जाता ? यह सवाल पूछने के लिए शाहरुख ने खुद मजबूर किया है, जब वे एक पत्रिका को साक्षात्कार के दौरान मई, 2007 में कहते हैं कि वे खुद को इस्लाम के एंबेसडर के तौर पर देखते हैं। क्या वे अपनी धर्मपत्नी गौरी छिब्बर को यह विश्वास दिलाने को तैयार हैं कि वह भी हिन्दुओं के अम्बेस्डर के तौर पर खुद को अपने समाज के सामने प्रस्तुत कर सके। वह भी एक फिल्म बना सकें, जिसका नाम हो आई एम छिब्बर।

शाहरुख जिस विवाद में पिछले दिनों आए, वह फूंकने और थूकने से जुड़ा था। भारत रत्न लता मंगेशकर की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए वह मैनेजर पूजा ददलानी के साथ आए थे। वहां से एक वीडियो वायरल हुआ और दूसरी तस्वीर भी। तस्वीर और वीडियो पर आगे बात करने से पहले, यह बात स्पष्ट तौर पर हमें समझ लेना चाहिए कि शाहरुख के वीडियो पर सिर्फ वही लोग विवाद कर सकते हैं, जिन्हें इस्लामिक बातों का इल्म नहीं है। या फिर वे लोग जो इस्लामिक बातों को भारतीय संस्कृति के बरक्स देखते हैं।

राजकिशोर सिन्हा के अनुसार — ”मेरी दादी बहुत ध्यान रखती थीं कि रसोई में उबलते हुए दूध आदि को फूंक कर न शांत किया जाए, क्योंकि फूंक के साथ थूक भी आता है। रसोई की शुद्धता और पवित्रता का ध्यान रखना हमारी सनातन परम्परा रही है। दीपक को बुझाना हो तो फूंक कर नहीं बुझाते हैं, हथेली से हवा देकर या पंखे से या अन्य तरीके से बुझाते हैं। कारण-अग्नि देवता का अपमान होगा। लोग हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं का भी ध्यान रखें, यह अपेक्षा करना किसी भी कोण से गलत नहीं है। इस सन्दर्भ में सेकुलर, लिबरल और अधिक ‘उदार हृदय’ होने का कोई औचित्य नहीं है।”

राजकिशोर ने जो लिखा उसके बाद यह समझना अधिक आसान है कि जिस थूकने और फूंकने की बहस में हम पड़े हैं। भारतीय संस्कृति में उन दोनों को अलग-अलग करके नहीं देखा गया है। जब हम थूकते हैं, उसमें फूंक शामिल होती है और जब हम फूंकते हैं, उसमें हमारी थूक भी शामिल होती है। इसलिए थूक और फूंक की सारी बहस निरर्थक है। मधुर भंडारकर की ‘हीरोइन’ फिल्म में अभिनेत्री करीना कपूर के अंतरंग पलों की तस्वीर उनकी मैनेजर मीडिया में लीक कर देती हैं। जब करीना इस पर नाराज होती हैं तब मैनेजर कहती है- अब तुम्हारे पास इसके अलावा बेचने के लिए कुछ नहीं है। फिल्म को देखे हुए थोड़ा समय गुजर चुका है तो शब्दों में थोड़ा अंतर हो सकता है, लेकिन भाव यही थे।

बात शाहरुख खान की करते हैं। शाहरुख 2007 में खुद को इस्लाम का अम्बेस्डर बताते हैं और तीन साल के बाद 2010 में जब पूरी दुनिया में इस्लाम की बदनामी हो रही थी, बोको हरम और अल कायदा पर ही हर तरफ चर्चा हो रही थी, इस्लाम का एक विकृत रूप पुरी दुनिया के सामने था। उसी समय शाहरुख अपनी फिल्म ‘माई नेम इज’ खान लेकर आते हैं। इस फिल्म से ‘माई नेम इज खान एंड आई एम नॉट ए टेररिस्ट’ का स्लोगन हर तरफ छा गया। यह एक तरह से इस्लाम के एक अम्बेस्डर की तरफ से इस्लाम की छवि सुधारने की कोशिश थी। फिल्म की अपील ने भारतीय समाज की संवेदना को छुआ। मतलब शाहरुख ने 2007 में सिर्फ खुद को इस्लाम का अम्बेस्डर बताया नहीं बल्कि 2010 में साबित भी किया।

वरिष्ठ पत्रकार और लेखक संदीप देव का सवाल है— ”हिंदू मूर्ति पूजा से लेकर अंतिम संस्कार तक यदि अनुष्ठान करें तो अंधविश्वासी पोंगा पंडित, और फिल्म स्टार शाहरुख खान यदि मजहबी फूंक/थूक मारे तो भी प्रगतिशील और मानवतावादी ?”

अब थूक और इस्लाम के रिश्ते पर गौर करें तो आप आश्चर्य करेंगे कि इस्लाम के अंदर थूक की कितनी महिमा बताई गई है। यदि कोई व्यक्ति इस्लाम को मानता है तो ‘थूक’ के महत्व को वह स्वीकार ना करता हो, यह कैसे मुमकिन है? तीन बार बाईं तरफ थूक देने से शैतान तक इस्लाम में भाग जाता है। इसे आज तक किसी वैज्ञानिक सिद्धान्त का कसीदा पढ़ने वाले प्रगतिशील लेखक ने अंधविश्वास नहीं लिखा।

अब थूक और फूंक के विवाद को समझिए। गूगल ऐसी अनगिनत खबरों से भरा पड़ा है, जहां कोई ना कोई मुसलमान खाने-पीने की सामग्री में थूकता पाया गया और पकड़ा भी गया। उन पर कार्रवाई भी हुई। जो पकड़े नहीं गए, उनकी संख्या इनसे कहीं अधिक होगी, जो पकड़ लिए गए। ऐसे समय में इस्लाम के अम्बेस्डर फिर सामने आए। एक बार फिर खाने में थूकते हुए पाए गए मुसलमानों की छवि सुधारने के लिए।

बेटे के जेल जाने के बाद समाज में उनकी खुद की छवि खराब हो गई है। ब्रांड के तौर पर बाजार में ब्रांड शाहरुख की कीमत गिरी है। मतलब उन्होंने लताजी की अंतिम विदाई का उपयोग अपनी ब्रांडिंग के लिए कर लिया तो आश्चर्य मत कीजिएगा।

शाहरुख की एक तस्वीर आती है मैनेजर पूजा ददलानी के साथ। जो उनकी ब्रांडिंग भी देख रही हैं। उस तस्वीर को कुछ इस तरह पेश किया गया कि उससे हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल कायम होती हो। दो प्रार्थना के लिए और दो हाथ दुआ के लिए। वह तस्वीर आते ही, ब्रांड शाहरुख की मार्केटिंग और पीआर टीम उनकी छवि सुधारने में लग जाती है। दूसरा जो थूकने-फूंकने वाला वीडियो था, वह इस तरह तैयार कराया गया, जिसे पहली नजर में देखकर कोई भी कहे कि शाहरुख खान थूक रहे हैं। थूकने वाले वीडियो की एक लंबी श्रृंखला थी। पहले तो इतना तय था कि यह वीडियो आते ही वायरल हो जाएगा। ऐसा लगा कि इस्लाम के अम्बेस्डर साहब के साथ थूक-फूंक मामले में जो हुआ, वह स्क्रीप्टेड था। लोग सवाल उठाएंगे और फौरन सामने से सफाई आ जाएगी। अनाधिकारिक सफाई का प्रसार-प्रचार करने वाली टीम तैयार थी। वही हुआ भी। जितनी तेजी से पहला वीडियो बढ़ा। उसके चंद घंटे के अंदर डैमेज कंट्रोल करके शाहरुख की पीआर और ब्रांडिंग टीम ने मजबूती के साथ ब्रांड शाहरुख को स्थापित किया। यह इतनी सधी हुई प्रमोशनल एक्टिविटी थी कि अंतिम विदाई में प्रधानमंत्री की उपस्थिति की खबर पीछे चली गई और शाहरुख खान ट्रेंड कर गए।
इस बात को ‘गीतायन’ के लेखक आनंद कुमार सरल शब्दों में समझाते हैं। आनंद के अनुसार— ”इस एक दृश्य पर जब आप बहस करते हैं कि वे थूक रहे थे या फूंक रहे थे, तो लोग बताने लगेंगे कि वे तो फूंक रहे थे! दुआ पढ़कर फूँका जा रहा था! आप बेकार ही अपनी ‘नफरत’ में उसे गलत बता रहे हैं! भारत की सबके समावेश वाली संस्कृति को आपके जैसे नफरती लोगों से ही खतरा है! इतने के बाद आपको एहसास कराया जाएगा कि आप गलत सोच रहे थे। आपकी सोच ही साम्प्रदायिक है। फिर अगली बार जब वो बिरयानी में, तंदूरी रोटी पर थूकते दिखेंगे तो आप घबराएंगे। थूकने का विरोध करें, या फूंक कर दुआ पढ़ रहा था? फिर धीरे धीरे थूकी रोटी-बिरयानी नॉर्मल हो जाएगी। शाहरुख़ थूकने को ‘नॉर्मलाइज’ कर रहे थे।’

अब चालाकी पकड़ी गई है तो सवाल बनता है कि इस नये ‘नॉर्मल’ से बचने का तरीका क्या है? आनंद बताते हैं-‘बहुत सरल है। जैसे बिना हलाल किया मुर्गा हम उन्हें खिलाने की कोशिश नहीं करते वैसे ही, उन्हें भी हम पर फूंकने-थूकने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। हर जगह की, हर समुदाय के अपने सांस्कृतिक तरीके होते हैं। उनका पालन किया जाना चाहिए। जैसे सिखों को सिगरेट नहीं देते, जापानी के घर जाकर उसके घर की किसी चीज की तारीफ़ नहीं करते, वैसे ही हमारे सांस्कृतिक तौर-तरीकों का भी सम्मान करो। थूको या फूंको, दोनों मना है। सीधी सी बात है।”

आनंद आगे बताते हैं- ”बाकी अगर आपको समझ में नहीं आता कि हिन्दुओं के सांस्कृतिक तरीकों का भी सम्मान होना चाहिए, और आप शाहरुख़ के बचाव में उतरे ‘नॉर्मलाइज’ करना देख या समझ नहीं पा रहे तो हमें आपको क्या मानना है वो छूट हमें दीजिये। क्या माना है, वो तो समझ ही गए होंगे?”

(लेखक राष्ट्रवादी विषयों पर खुलकर लिखते हैं)
साभार https://praarabdh.in/ से