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मरीज एवं डाॅक्टर के बीच रिश्तों का धुंधलाना

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने रविवार को एक कार्यक्रम में मरीजों और डाॅक्टरों के बीच भावनात्मक रिश्ते की जरूरत को उजागर किया। उनका कहना था कि गलाकाट व्यावसायिकता ने मानवीय संवेदनाओं को लील लिया है, लिहाजा इसका असर डाॅक्टर और रोगी के संवेदनशील संबंधों पर पड़ रहा है। यह बिल्कुल ठीक बात है लेकिन यह भी सोचा जाना चाहिए कि आखिर क्या कारण है कि डाॅक्टर को भगवान का दर्जा दिया जाता है लेकिन वे शैतानियत पर उतर रहे हैं। यदि रिश्ते खराब हुए हैं तो उसके बीज दोनों ही वर्गों में छुपे हैं। डाॅक्टरों में अनेक कमियां हैं। देश में आज डाॅक्टर एवं अस्पताल लूट घसौट, लापरवाही, भ्रष्टाचार, अनैतिकता एवं अमानवीयता में शुमार हो चुके है, आए दिन ऐसे मामले प्रकाश में आते हंै कि अनियमितता एवं लापरवाही के कारण मरीज का इलाज ठीक ढंग से न होने पाने के कारण मरीज की मौत हो गयी या उससे गलत वसूली या लूटपाट की गयी। डाॅक्टरी पेशे पर ये बदनुमा दाग है।

सरकारी अस्पतालों में जहां चिकित्सा सुविधाओं एवं दक्ष डाॅक्टरों का अभाव होता है, वहीं निजी अस्पतालों में आज के भगवान रूपी डॉक्टर मात्र अपने पेशे के दौरान वसूली व लूटपाट ही जानते हैं। उनके लिये मरीजों का ठीक तरीके से देखभाल कर इलाज करना प्राथमिकता नहीं होती, उन पर धन वसूलने का नशा इस कदर हावी होती है कि वह उन्हें सच्चा सेवक के स्थान पर शैतान बना देता है। जो शर्मनाक ही नहीं बल्कि डॉक्टरी पेशा के लिए बहुत ही घृणित है। डाॅक्टरों की लिखी दवा मेडिकल कंपनियों के सौजन्य से अस्पताल, क्लीनिक या नर्सिंग होम के सामने वाली दुकान पर ही मिलती है। पैथोलाजी से कमीशन बंधा होता है। उसकी विश्वसनीयता हो या न हो, खास कारणों से डाॅक्टर जांच वहीं कराएगा। सरकारी अस्पताल का डाॅक्टर रोगी को घर बुलाता है। अस्पतालों में दवाएं नहीं मिलतीं। जांच के लिए खरीदी गई महंगी मशीनें जानबूझकर खराब कर दी जाती है और मरीज को बाहर से जांच करानी पड़ती है। ऐसे और भी कारण हैं जिन्होंने रोगी और चिकित्सक के बीच के पवित्र रिश्ते को कमजोर किया है। हालात इतने खराब हो चुके हैं कि सरकारी नौकरी करने वाला भी सरकारी अस्पतालों से बचता हैं। परंतु यह तस्वीर का एक पहलू है। यदि डाॅक्टर संवेदनहीन हुए है तो उनके ऊपर भार भी बहुत है। आबादी इतनी बढ़ चुकी है कि अस्पतालों के बाहर लाइन कम ही नहीं होती। मरीज के साथ ऊंच नीच हो जाने पर डाॅक्टर के साथ मारपीट तक कर दी जाती है, जो निंदनीय कृत्य है। रोगी चिकित्सक संबंध सुधारने के लिए सरकार को अस्पतालों के संसाधन बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए।

डाॅक्टरों की अमानवीयता एवं घृणा की बढ़ती स्थितियों पर नियंत्रण की अपेक्षा लगातार महसूस की जाती रही है, इस दिशा में एक सार्थक पहल हुई है कि एमबीबीएस के पाठ्यक्रम में व्यापक परिवर्तन किये जा रहे हंै, जिसमें उन्हें चिकित्सा का तकनीकी ज्ञान देने के साथ-साथ नैतिक मूल्यों का प्रशिक्षण देने की भी व्यवस्था की जा रही है। वह स्वागतयोग्य है कि अगले सत्र से एमबीबीएस छात्र जिस परिवर्तित पाठ्यक्रम से परिचित होंगे उसमें उन्हें मरीजों के साथ सही तरह से पेश आने की शिक्षा दी जाएगी।

डाॅक्टर का पेशा एक विशिष्ट पेशा है। एक डाॅक्टर को भगवान का दर्जा दिया जाता है, इसलिये इसकी विशिष्टता और गरिमा बनाए रखी जानी चाहिए। एक कुशल चिकित्सक वह है जो न केवल रोग की सही तरह पहचान कर प्रभावी उपचार करें, बल्कि रोगी को जल्द ठीक होने का भरोसा भी दिलाए। कई बार वह भरोसा, उपचार में रामबाण की तरह काम करता है। ऐसे में एमबीबीएस छात्रों के पाठ्यक्रम में डाॅक्टरों और मरीजों के रिश्ते को भी शामिल किया जाना उचित ही है। एक व्यक्ति डाॅक्टर, इंजीनियर, वकील, जज बनने से पहले अच्छा इंसान बने, तभी वह अपने पेशे के साथ न्याय कर सकते हैं।
निरंतर मरीजों से लूटपाट एवं लापरवाही के मामले सामने आ रहे हैं, चिकित्सा का क्षेत्र सेवा का मिशन न होकर एक व्यवसाय हो गया है। डाॅक्टरों की गैरजिम्मेदारी के कारण अनेक मरीज अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं, कोई जिम्मेदारी नहीं लेता- कोई दंड नहीं पाता। भारत में मुर्गी चुराने की सजा छह महीने की है। पर एक मरीज के जीवन से खिलवाड़ करने के लिए कोई दोषी नहीं, कोई सजा नहीं। चिकित्सा क्षेत्र में बढ़ रहा इस तरह का अपराधीकरण अपने चरम बिन्दु पर है। वर्ष 2013 के एक शोध के मुताबिक दुनिया में हर साल करीब 4.3 करोड़ लोग असुरक्षित चिकित्सीय देखरेख के कारण दुर्घटना का शिकार होते हैं। रिपोर्ट में पहली बार ये पता लगाने की कोशिश की गई थी कि चिकित्सीय भूल के कारण हुई दुर्घटना में कितने साल की मानवीय जिंदगी का नुकसान होता है ।

सरकारी स्वास्थ्य ढांचे से इतर निजी क्षेत्र ने अपना एक अहम स्थान बना लिया है। जिसने चिकित्सा की मूल भावना को ही धुंधला दिया है। निजी अस्पतालों की स्थिति तो बहुत डरावनी है, वहां पैसे हड़पने के लिए लोगों को बीमारी के नाम पर डराया जाता है, उन्हें वो टेस्ट करने को कहा जाता है या फिर उन पर वो सर्जरी और ऑपरेशन किए जाते हैं जिसकी कोई जरूरत नहीं होती। साथ ही डॉक्टरी पेशे में कमीशन के चलन भी बहुत बढ़ते जा रहे हंै, यानि डॉक्टरों की दवा कंपनियों या डायग्नोस्टिक सेंटरों के बीच कमीशन को लेकर सांठगांठ। भारत में सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं खस्ताहाल होने के कारण निजी अस्पतालों का 80 प्रतिशत बाजार पर कब्जा है। आरोप लग रहे हैं कि कानूनों के कमजोर क्रियान्वयन के कारण निजी अस्पतालों के जवाबदेही की भारी कमी है।

आज डाक्टरी पेशा नियंत्रण से बाहर हो गया है। मनुष्य के सबसे कमजोर क्षणों से जुड़ा यह पेशा आज सबसे कुटिल व हृदयहीन पेशा बन चुका है। स्वार्थी सोच वाले व्यक्ति नियंत्रण से बाहर हो गए हैं और सामान्य आदमी के लिए जीवन नियंत्रण से बाहर हो गया है। डाॅक्टर पैसे की संस्कृति यानी स्वर्ण मृग के पीछे भाग रहे हैं- चरित्र रूपी सीता पूर्णतः असुरक्षित है। आज हमारे पास कोई राम या हनुमान भी नहीं है। अनेक राष्ट्र-पुरुष हो गए हैं जिन्होंने चरित्र की रोशनी दी, चरित्र को स्वयं जीया, लेकिन भगवानरूपी डाॅक्टर अपने चरित्र एवं नैतिकता को दीवार पर लटकाकर स्वच्छंद है। इसलिये एमबीबीएस के पाठ्यक्रम में नैतिक मूल्यों के प्रशिक्षण को आवश्यक समझा गया, क्योंकि बीते कुछ समय से मरीजों और उनके परिजनों की डाॅक्टरों एवं अस्पतालों से शिकायतें बढ़ी हैं। कई बार तो तीमारदारों और डाॅक्टरों में मारपीट की नौबत तक आ जाती है। इसी तरह मेडिकल काॅलेजों के परिसर अथवा उनके इर्द-गिर्द वैसे झगड़े भी खूब बढ़े हैं जिनमें एक पक्ष जुनियर डाॅक्टरों का होता है। इसके मूल में कहीं न कहीं सदाचरण का अभाव है तो इसे निराधार नहीं कहा जा सकता।

राष्ट्रीय जीवन की कुछ सम्पदाएं ऐसी हैं कि अगर उन्हें रोज नहीं संभाला जाए या रोज नया नहीं किया जाए तो वे खो जाती हैं। कुछ सम्पदाएं ऐसी हैं जो अगर पुरानी हो जाएं तो सड़ जाती हैं। कुछ सम्पदाएं ऐसी हैं कि अगर आप आश्वस्त हो जाएं कि वे आपके हाथ में हैं तो आपके हाथ रिक्त हो जाते हैं। इन्हें स्वयँ जीकर ही जीवित रखा जाता है। डाॅक्टरों एवं अस्पतालों को नैतिक बनने की जिम्मेदारी निभानी ही होगी, तभी वे चिकित्सा के पेशे को शिखर दें पाएंगे और तभी मरीज एवं डाॅक्टर के बीच का संवेदनशील रिश्ता धुंधलाने से बच सकेगा।
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(ललित गर्ग)
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