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बस्तों का बोझ कम होने से लौटेगा बचपन

स्कूली बच्चों पर बस्तों का बोझ कम करने की चर्चा कई वर्षों से होती आई है लेकिन अब केन्द्र सरकार ने पाठ्यक्रम का बोझ कम करने का फैसला किया है, जो एक सराहनीय कदम है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने स्कूलों को निर्देश दिए हैं कि पहली और दूसरी के छात्रों को होमवर्क न दिया जाए और उनके बस्तों का वजन भी डेढ़ किलो से ज्यादा नहीं होना चाहिए। मंत्रालय ने पहली से लेकर दसवीं क्लास तक के बच्चों के बस्ते का वजन भी तय कर दिया है। निश्चित ही शिक्षा पद्धति की एक बड़ी विसंगति को सुधारने की दिशा में यह एक सार्थक पहल है जिससे भारत के करीब 24 करोड़ बच्चों का बचपन मुस्कुराना सीख सकेगा।

सरकार ने संभवतः पहली बार यह बात स्वीकार की है कि बच्चों को तनावमुक्त बनाये रखना शिक्षा की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। पिछले कुछ समय से विभिन्न सरकारों की यह प्रवृत्ति हो चली है कि वे शिक्षा में बदलाव के नाम पर पाठ्यक्रम को संतुलित करने की बजाय उसमें कुछ नया जोड़ती रही एवं बोझिल करती रही हैं। इस तरह पाठ्यक्रम बढ़ता चला गया। सरकार ने बच्चों के बचपन को बोझिल होने से बचाने के लिये अनेक सूझबूझवाले निर्णय लिये हैं। मंत्रालय ने इन्हें केवल गणित और भाषा पढ़ाने को कहा है, जबकि तीसरी से पांचवीं कक्षा के स्टूडेंट्स को गणित, भाषा और पर्यावरण विज्ञान पढ़ाने का निर्देश दिया गया है। प्राइमरी शिक्षा में निश्चय ही यह एक बड़ा सुधार है, बशर्ते यह लागू हो जाए। स्कूल बैग का वजन कम करने को लेकर नियम पहले से ही बने हुए हैं पर वे लागू नहीं हो पाए। गौरतलब है कि 1993 में यशपाल कमिटी ने प्रस्ताव रखा था कि पाठ्यपुस्तकों को स्कूल की संपत्ति समझा जाए और बच्चों को अपनी किताबें क्लास में ही रखने के लिए लॉकर्स अलॉट किए जाएं।

आधुनिक समाज में बच्चों का जीवन बोझिल हो गया एवं उनका बचपन लुप्त होने लगा है, क्योंकि शिक्षा के निजीकरण के दौर में बस्ते का बोझ हल्का करने की बात एक सपना बन कर रह गयी थी। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने स्वीकार किया कि एनसीईआरटी का पाठ्यक्रम जटिल है और सरकार इसे घटाने की दिशा में पहल कर रही है। वर्ष 2005 में नैशनल करिकुलम फ्रेमवर्क (एनसीएफ) ने एक सर्कुलर जारी किया जिसमें बच्चों के शारीरिक और मानसिक दबाव को कम करने के सुझाव दिए गए थे। इसके आधार पर एनसीईआरटी ने नए पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें तैयार कीं, जिसे सीबीएसई से संबद्ध कई स्कूलों ने अपनाया। उसके बाद चिल्ड्रन्स स्कूल बैग एक्ट, 2006 के तहत कहा गया कि बच्चों के स्कूल बैग का वजन उनके शरीर के कुल वजन के 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। इन सब उपायों के बावजूद आज भी ज्यादातर स्कूली बच्चों को भारी बोझा अपनी पीठ पर ढोना पड़ता है। स्कूल चाहे सरकारी हो या प्राइवेट, हकीकत यही है कि जिस स्कूल का बस्ता जितना ज्यादा भारी होता है और जहां जितना ज्यादा होमवर्क दिया जाता है, उसे उतना ही अच्छा स्कूल माना जाता है।

जबकि सचाई यह है कि पाठ्यक्रम के भारी भरकम बोझ से बच्चों का मानसिक विकास अवरुद्ध होता है, इससे बच्चों को भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है। एक तो बच्चों पर पढ़ाई का अतिरिक्त बोझ बढ़ा और जो व्यावहारिक ज्ञान एवं प्रायोगिक प्रशिक्षण बच्चों को विद्यालयों में मिलना चाहिए था, उसका दायरा लगातार सिमटता गया। बस्तों के बढ़े बोझ तले बच्चों का शारीरिक व मानसिक विकास सही ढंग से नहीं हो पा रहा है। आज बच्चे अपने बचपन को ढूंढ रहे हैं। किताबों से भरे बस्ते बेचारे मासूम बच्चे अपने कंधों पर ढो रहे हैं। हंसने-खेलने की उम्र में बच्चों की पीठ पर किताबों, कापियों का इतना बोझ लादना क्या इन मासूमों पर अत्याचार नहीं है? शरीर विज्ञानी चेतावनी दे चुके हैं कि भारी बस्ता बच्चों की हड्डियों में विकृति पैदा करता है और बड़े होने पर वे गंभीर बीमारियों के शिकार हो सकते हैं। इस भारी-भरकम पाठ्यक्रम को लादे बच्चें इस तरह बीमार रहने लगे, तनाव के शिकार होने लगे। तनाव है तो उद्दण्डता भी होगी, आक्रामक भी बनेंगे, इस बढ़ती आक्रामकता को हमने पिछले दिनों देखा है, किस तरह से बच्चे ने अपने प्रिसिंपल को ही गोली मार दी या किसी दूसरे साथी बच्चे की हत्या कर दी।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे को लागू करने के लिये सरकार सक्रिय हैं। शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) में संशोधन के आशय वाला बिल भी संसद के समक्ष रखा गया है। मद्रास हाईकोर्ट ने 30 मई को एक अंतरिम आदेश में केंद्र से कहा था कि वह राज्य सरकारों को निर्देश जारी करे कि वे स्कूली बच्चों के बस्ते का भार घटाएं और पहली-दूसरी कक्षा के बच्चों को होमवर्क से छुटकारा दिलाएं। कई शिक्षाविदों ने इस पर सवाल उठाया और कहा कि कम उम्र में बहुत ज्यादा चीजों की जानकारी देने की कोशिश में बच्चे कुछ नया नहीं सीख पा रहे, उलटे पाठ्यक्रम का बोझ उन्हें रटन विद्या में दक्ष बना रहा है। यही नहीं, इस दबाव ने बच्चों में कई तरह की मनोवैज्ञानिक समस्याएं पैदा की हैं, वह कुंठित हो रहा है, तनाव का शिकार बन रहा है। पहले तो स्कूलों का तनावभरा परिवेश, आठों कलांशें पढ़ने से बच्चे थक जाते हैं और ऊपर से उनको भारी होमवर्क दे दिया जाता है। इस तरह होमवर्क कुल मिलाकर एक कर्मकांड का रूप ले चुका है, जिसका विकल्प ढूंढना जरूरी है। कच्ची उम्र में पढ़ाई का दबाव औसत मेधा और भिन्न रुचियों वाले बच्चों को कुंठित बनाता है। तोतारटंत के बजाय बच्चों में कुछ सीखने की सहज प्रवृत्ति पैदा हो, उन्हें प्राकृतिक परिवेश दिया जाये, इसी में उनके साथ-साथ देश की भी भलाई है, इसी में शिक्षा पद्धति की भी परिपूर्णता है। एकदम छोटे बच्चों को होमवर्क के झंझटों से मुक्त करना जरूरी है।

शिक्षाशास्त्री बताते हैं कि 4 से 12 साल तक की उम्र बच्चे के व्यक्तित्व के विकास की उम्र होती है, इसलिए इस दौरान रटंत पढ़ाई का बोझ डालने के बजाय सारा जोर उसकी रचनात्मकता एवं सृजनात्मकता विकसित करने पर होना चाहिए। आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने जीवन विज्ञान के रूप में शिक्षा की इन कमियों को उजागर करते हुए एक परिपूर्ण शिक्षा का स्वरूप प्रस्तुत किया। अच्छा है कि सरकार ने उनके सुझावों एवं विशेषज्ञों की राय पर ध्यान दिया और शुरुआती कक्षाओं में पाठ्यक्रम का बोझ कम करने का निर्णय किया। उम्मीद करें कि राज्य सरकारें उसके निर्देशों की रोशनी में नियम बनाएंगी। पब्लिक स्कूलों के संचालकों, शिक्षकों और उन अभिभावकों को भी इन नियमों को मन से स्वीकार करना होगा, जो बच्चों को अधिक से अधिक पाठ रटा देने को ही गुणात्मक शिक्षा मान बैठे हैं।

बोझिल वातावरण में आज के बच्चे माता-पिता की आकांक्षाओं का बोझ भी ढ़ो रहे हैं और उन पर अभिभावकों की सामाजिक प्रतिष्ठा को बढ़ाने की जिम्मेदारी भी है। इन सब जटिल स्थितियों को भारत का बचपन संभाल नहीं पा रहा और वह आगे बढ़ने की अपेक्षा परीक्षा में फेल होने के डर से मौत को गले लगाने लगा हैं। आए दिन ऐसी खबरें आती रहती हैं, जो भारत की शिक्षा पर एक बदनुमा दाग है। आज पाठ्यक्रम में व्यावहारिक पाठ्यक्रम के ज्ञान व शिक्षा से भी बच्चों को वंचित होना पड़ रहा है। कहना न होगा कि बस्तों के बढ़े बोझ तले बच्चों का शारीरिक व मानसिक विकास सही ढंग से नहीं हो पा रहा है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि 12 साल की आयु के बच्चों को भारी स्कूली बस्तों की वजह से पीठ दर्द का खतरा पैदा हो गया है। पहली कक्षा में ही बच्चों को छह पाठ्य पुस्तकें व छह नोट बुक्स दी जाती हैं। मतलब पांचवीं कक्षा तक के बस्तों का बोझ करीब आठ किलो हो जाता है। बच्चों के बस्ते और भारी भरकम पाठ्यक्रम हैं। इससे बच्चों को पीठ, घुटने व रीढ़ पर असर पड़ रहा है। आजकल बहुत सारे बच्चे इसके शिकार हो रहे हैं। बस्तों के बढ़े बोझ से निजी स्कूलों के बच्चे खेलना भी भूल रहे हैं। घर से भारी बस्ते का बोझ और स्कूल से होम वर्क की अधिकता से शिशु दिमाग का विकास बाधित हो रहा है।

बढ़ी स्पर्धा के दौर में सरकारी स्कूलों को छोड़कर अभिभावक अपने नौनिहालों को बेहतर शिक्षा दिलाने के लिए निजी स्कूलों की ओर रुख कर रहे हैं। परीक्षा का समय हो या अध्यापक का व्यवहार, घरेलू समस्या हो या आर्थिक समस्या-तनावमुक्त परिवेश बहुत आवश्यक है। लेकिन बच्चों को तनावमुक्त परिवेश देने में शिक्षा को व्यवसाय बनाने वाले लोगों ने कहर बरपाया है। निश्चय ही कुछ स्वार्थी तत्त्व इन बच्चें रूपी महकते पुष्पों पर भी अत्याचार करने से बाज नहीं आते। उनका उद्देश्य हर कक्षा में अधिक से अधिक पुस्तकें लगवाना रहता है, जिससे वे पुस्तक-विक्रेताओं और दुकानदारों से कमीशन लेकर अपनी जेब गर्म कर सकें। दूसरी बात जो ध्यान में देनी है, वह यह है कि कक्षा के बंद कमरे में पाठ रटवाने के स्थान पर उन्हें रोचक ढंग से पढ़ाया जाए। बच्चों के दिमाग में शब्दों को भरना नहीं चाहिए, बल्कि उनके मस्तिष्क में शब्दों को निकलवाना चाहिए। वे अच्छी तरह से शब्दों को समझें, रटें नहीं। बच्चों को व्यावहारिक विद्या सिखलाई जानी चाहिए, ताकि उनके विचार शक्ति में इजाफा हो। केन्द्र सरकार को चाहिए कि वह शिक्षा पद्धति की विसंगतियों को दूर करने के लिये केवल कानून ही नहीं बनाये, बल्कि उन्हें पूरी ईमानदारी से लागू भी करें, तभी भारत का बचपन मुस्कुराता हुआ एक सशक्त पीढ़ी के रूप में नयी दिशाओं को उद्घाटित कर सकेंगा।

 

 

 

 

 

 

 

(ललित गर्ग)
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