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डरे – डरे से राहुल और सहमी – सहमी सी कांग्रेस

कार्यकर्ताओं के टूटते मनोबल और चुनाव में लगातार मिल रही हार ने कांग्रेस और उसके नेता बुरी तरह परेशान है। हालात सुधारने के लिए मंथन किया जा रहा है। लेकिन पहली कोशिश ही फेल हो गई। कांग्रेस अध्य़क्ष सोनिया गांधी ने सांसदों से मिलने के लिए भोज का आयोजन किया। सबको न्यौता दिया। कांग्रेस अध्यक्ष ने अपने 44 लोकसभा और 59 राज्यसभा सांसदों के लिए पहुंचने की सुविधा का भी खयाल रखा और संसद परिसर में ही इस रात्रि भोज का आयोजन किया। लेकिन फिर भी कुल 103 में से सिर्फ 60 सांसद ही सोनिया गांधी से मिलने पहुंचे। 43 आए ही नहीं और न ही न आने की कोई सूचना तक दी। जो कांग्रेसी कभी सोनिया गांधी के निवास 10 जनपथ के बाहर घंटों कतार लगाकर अपने नेता की एक झलक पाने के लिए बेताब रहते थे, उनका व्यक्तिगत निमंत्रण पर भी न पहुंचना कांग्रेस को सबसे ज्यादा परेशान कर रहा है। शर्म से बचने के लिए कांग्रेस की तरफ से बहाना यह बनाया गया कि मोतीलाल वोरा की तबियत खराब हो गई थी, सो सांसद वहां चले गए थे। लेकिन देश बेवकूफ नहीं है, वह सब समझता है। मोतीलाल वोरा कोई गांधी परिवार के बुलावे के सामने इतने महत्वपूर्ण है कि सांसद राहुल गांधी और सोनिया की उपेक्षा करके उन्हें देखने चले जाएं। फिर ऐसे बहानों से अब बचाव की कोशिशें उल्टे कांग्रेस की भद्द ही पिटवा रहे है। हालात खराब है और सुधरने की गुंजाइश लगातार कम होती जा रही है।

कांग्रेस की सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि उसके सबसे बड़े नेता राहुल गांधी सार्वजनिक रूप से अदम्य आत्मविश्वास से भरे हुए तो लगते है, लेकिन हर बार चुनाव परिणाम में राहुल गांधी में ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता। उल्टे राहुल गांधी भीतर से साफ साफ डरे सहमे से लगते हैं। अभी अभी जो नतीजे आए हैं, उन उपचुनावों में तो वे खैर कहीं गए तक नहीं। लेकिन बीते चुनाव में भी देखें, तो उनके भाषण बिल्कुल वैसे ही रहे, जैसे पिछले विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनाव में हुआ करते थे। एक ही लाइन। कोजरीवाल की तर्ज पर सिर्फ मोदी विरोध। राहुल गांधी अब तक देश के सामने न तो अपना कोई विजन पेश कर पाए हैं और न ही कांग्रेस के नेताओं पर लगे गंभीर आरोपों से पार्टी का बचाव कर पा रहे हैं। कांग्रेस की सबसे ज्यादा खराब हालत यूपी चुनाव के बाद हुई है। हर तरफ निराशा और स्तर पर हताशा। न केवल कांग्रेस कार्यकर्ता, बल्कि पूरे देश के दिल में सबसे बड़ा सवाल यही है कि यह पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से आखिर कैसे बाहर निकलेगी। और यह देखकर देश दुखी भी हो रहा है कि कांग्रेस इसके लिए कोई मजबूत कोशिश करती भी नहीं दिख रही है।

राहुल गांधी से लोग कन्नी काट रहे हैं। मतदाताओं में उनका आकर्षण खत्म सा हो गया है। युवा वर्ग में भी वे कोई आशा की किरण नहीं जगा पा रहे हैं। कांग्रेस के भीतर भी अब करीब करीब यह तथ्य स्थापित सा होता जा रहा है कि राहुल गांधी में राजनीतिक रूप से परिपक्व होने की संभावनाएं कतई नहीं हैं। उनमें वो बीज ही नहीं है, जिसमें से कोई पौधा प्रस्फुटित हो सके। उनकी राजनीतिक गंभीरता का आलम यह है कि वे अपने सलाहकारों से सवाल पूछते हैं, और सलाहकार जब जवाब दे रहे होते हैं, तो राहुल उनकी बात पर ध्यान देने के बजाय अपने मोबाइल फोन पर गेम खेल रहे होते हैं। या फिर अपने कुत्ते के साथ खेल रहे होते हैं। कांग्रेस में यह बात धीरे धीरे फैलकर अब बहुत आम सी हो गई है कि राहुल गांधी को कुछ भी कहने का सही समय आने तक भी कोई मतलब नहीं निकलता। सो कांग्रेस के नेताओं में भी राहुल से मिलने में कोई उत्सुकता नहीं है। और जो संसद में बैठे हैं, उनको यह भरोसा हो गया है कि वे अगर अगले आम चुनाव में मैदान उतरे भी, तो कांग्रेस के नाम पर नहीं बल्कि अपनी मेहनत और अपने दम पर ही जीत पाएंगे। सो, राहुल गांधी नामक किसी नेता की छत्रछाया की अब उन्हें जरूरत नहीं है। संसद भवन में सोनिया गांधी के डिनर में सांसदों के कम पहुंचने की एक सबसे बड़ी वजह यह भी रही।

कांग्रेस के लिए सबसे खराब बात यह है कि कुछ लोगों ने गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स से संपर्क करके सबसे ज्यादा चुनाव हारनेवालों में राहुल गांधी का नाम शामिल करने की मांग की है। बहुत कोशिश करके भी कांग्रेस के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी की छवि नहीं सुधर रही है। यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि जहां भी राहुल गांधी ने प्रचार किया, वहीं पर ज्यादातर जगहों पर कांग्रेस हार गई। पिछले पांच साल में वे कुल 27 चुनाव हार चुके हैं। केवल नौ जगह ही कांग्रेस को जीत मिली है। ऐसे में किसी एक नेता के सर्वाधिक चुनाव हारने का रिकार्ड राहुल गांधी के खाते में दर्ज है। अगले चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार उन्हें अपने इलाके में प्रचार करने के लिए बुलाएं, इसके लिए राहुल गांधी को सबसे पहले अपनी सभाओं में आई भीड़ को वोटों में तब्दील करने का तरीका सीखना होगा। वरना, तो राहुल का कहीं प्रचार के लिए जाना भी उम्मीदवार के लिए किसी संकट से कम नहीं होगा। दरअसल, राहुल गांधी जहां भी आमसभा करने जाते हैं, वहां से निकलने के साथ ही बहुत बड़ी संख्या में अपनी पार्टी के वोट कम करके निकलते हैं। क्योंकि उनकी उपस्थिति किसी को भी उत्साहित नहीं करती। न मतदाता को और न ही कार्यकर्ता को।

कांग्रेस पार्टी की सबसे बड़ी समस्या उसके संगठन का लगातार कमजोर होना भी है। कई राज्यों में कई – कई सालों से कांग्रेस संगठन की कार्यकारिणी का गठन तक नहीं हुआ है। यही नहीं राहुल गांधी ने अपने नजदीकी ऐसे लोगों को प्रदेश की बागडोर सोंप दी है, जिनका न तो कोई राजनीतिक आधार है और न ही कोई बड़ा अनुभव। राजस्थान में अशोक गहलोत को दरकिनार करके सचिन पायलट जैसे नौसिखिए नेता तको युवा होने के कारण प्रदेश की बागडोर सौंपना कांग्रेस के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा है। सचिन के आने के बाद प्रदेश में कांग्रेस का ग्राफ लगातार गिर रहा है। वे कार्यकर्ताओं में उम्मीद जगाने में भी नाकाम रहे हैं। राजस्थान में कांग्रेस का मामला बिन गहलोत सब सून है। अपना मानना है कि राहुल गांधी को चाहिए कि वे केंद्र सरकार की कमजोरियों पर आक्रामक रुख अख्तियार करने के साथ-साथ पार्टी संगठन को मजबूत करने की दिशा में भी तेज कदम उठाएं। एक पार्टी के रूप में कांग्रेस के लिए भी यह बेहतर होगा कि उसके नेता राहुल गांधी औपचारिक तौर पर पार्टी के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी ग्रहण कर लें। ताकि उनके जिम्मेदारी से बचने के बहाने भी खत्म हो जाएं। और नीजे के तौर पर खैर, जो भी होना होगा, जल्दी हो जाएगा। वक्त बरबाद करने से वैसे भी किसी का भला नहीं हुआ है। दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में इस साल की शुरूआत में राहुल गांधी ने पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था कि कांग्रेस पार्टी का अर्थ है – ‘डरो मत’। लेकिन राहुल गांधी के भाषण में बार बार मोदी का जिक्र सुनकर लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सबसे ज्यादा तो वे खुद ही डरे हुए हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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