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दीपोत्सव : अंधकार की जड़ता पर चेतना का स्वर्णिम हस्ताक्षर

संसार की असंख्य दीपकों की उज्ज्वल प्रकाश रश्मियों से मन मंदिर को अालोकित करने की अनंत कामना का अपूर्व पर्व है दीपोत्सव। दीपावली केवल बाहर रोशनी जलाने का नाम नहीं, बल्कि अंतर को भी प्रज्ज्वलित करने का पर्व है। हमारी चेतना बाहर की ओर देखती है, अगर हम अंदर की ओर देखें तो कायाकल्प हो सकता है। अगर अंदर की रोशनी जल गई तो पूरा जीवन जगमग जगमग हो जाएगा। अपने अंतर में दीया जलाने की प्रक्रिया को ही ध्यान कहते हैं।
ओशो क्या खूब आह्वान करते हैं –
प्रज्ज्वलित है प्राण में अब भी व्यथा का दीप
ढाल उसमें शक्ति अपनी
लौ उठा !
लौह-छेनी की तरह आलोक की किरणें
काट डालेंगी तिमिर को
ज्योति की भाषा नहीं बंधती कभी व्यवधान से !
मुक्ति का बस है यही पथ एक !
हाथ मत जोड़ो आकाश के समक्ष, क्योंकि आकाश हाथ जोड़ने को नहीं समझता। न मंदिर-मस्जिदों में प्रार्थनाएं करो। वे प्रार्थनाएं शून्य में खो जाती हैं। प्रज्ज्वलित है प्राण में अब भी व्यथा का दीप। व्यर्थता दिखाई पड़ रही न; यह काफी शुभ लक्षण है।
उनकी देशना है कि ज्योति जलाओ। भीतर के दीये की ज्योति को उकसाओ। बुझ नहीं गई है, क्योंकि तुम्हें बोध हो रहा है कि जीवन व्यर्थ गया। किसे यह बोध हो रहा है? उस बोध का नाम ही ज्योति है। यह कौन तिलमिला गया है? यह कौन नींद से जाग उठा है? यह कौन- जिसका स्वप्न टूट गया है? इसी को पकड़ो। इसी को सम्हालो। इसी धीमी-सी उठती हुई आवाज को अपना सारा जीवन दो। इसी धीमी-सी जगमगाती लौ को अपनी पूरी ऊर्जा दो। और तुम्हारे भीतर जलेगी प्रज्ज्वलित अग्नि, जो न केवल प्रकाश देगी, वरन शीतल भी करेगी। जलेगी प्रज्ज्वलित अग्नि, जो तुम्हारे अहंकार को गलाएगी, जो तुम्हारे अंधकार को काटेगी और जो तुम्हारे लिए परम प्रकाश का पथ बन जाएगी।
जिस दिन भगवान महावीर को निर्वाण उपलब्ध हुआ, उस दिन जैन दीपावली मनाते हैं। महानिर्वाण हुआ उस दिन, उनकी ज्योति दीये से मुक्त हुई, उस दिन करोड़ों-करोड़ों दीये जलाते हैं। अमावस की अंधेरी रात! सब तरफ अंधकार है और महावीर प्रकाश हो गये। उस अंधकार में वह प्रकाश, ठीक विरोध के कारण प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ा। एक दीया जलाओ, जब पूर्णिमा की रात हो तो उसका कुछ पता भी न चलेगा। अंधेरी अमावस में एक दीया जलाओ, उसकी रोशनी बड़ी प्रगाढ़ होगी।
दो फकीर रास्ते से गुजरते थे। अचानक एक फकीर ने कहा कि सुना? अजान का समय हो गया। मस्जिद में अजान की आवाज आई। सांझ का वक्त उस दूसरे फकीर ने कहा, हैरान कर दिया तुमने। इस बाजार के कोलाहल में, जहां हजारों लोग भाव कर रहे हैं, चीजें बेच रहे हैं, चिल्ला रहे हैं, जहां कुछ समझ में नहीं आता, तुम्हें मस्जिद की अजान कैसे सुनाई पड़ी? उस दूसरे फकीर ने कहा, जिस तरफ ध्यान लगा हो, वह कहीं भी सुनाई पड़ जाएगा। उसने कहा, देख, तुझे मैं प्रत्यक्ष प्रमाण देता हूं। खीसे से एक रुपया निकाला, जोर से रास्ते पर पटका। खन की आवाज हुई। वे सब जो बड़ा शोरगुल मचा रहे थे, दुकानदार, ग्राहक, चिल्लाने वाले सब एकदम दौड़ पड़े। रुपया! उन सबका ध्यान, आवाज वे कहीं भी लगा रहे हों, लेकिन रुपये पर लगा है। उन्हें अजान सुनाई न पड़ी, जो कि रुपये की आवाज से बहुत तेज थी। रुपये की आवाज तत्क्षण सुनाई पड़ गई। वहां ध्यान लगा है। भीतर तो सतत रुपये की धुन चल रही है। उसी धुन ने महावीर को निर्वाण का अधिकारी बना दिया।
दीपावली त्यौहारों की पूरी श्रृंखला है जो पांच दिन तक मनाई जाती है। कार्तिक मास की कृष्ण त्रयोदशी से प्रारंभ होकर धन त्रयोदशी, नर्क चतुर्दशी (छोटी दीपावली), दीपावली गोवर्धन पूजा (अन्नकूट) और कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष द्वितीया (भाई दूज) तक लगातार पांच दिन की श्रृंखला के रूप में मनाई जाती है। जैन धर्म के छच्च्बीसवें र्तीथकर भगवान महावीर ने भी दीपावली के दिन ही बिहार के पावापुरी में अपना शरीर त्याग दिया। महावीर-निर्वाण संवत इसके दूसरे दिन से शुरू होता है। इसीलिए अनेक प्रांतों में इसे नव वर्ष की शुरुआत मानते हैं। महावीर स्वामी ने संसार रूपी दावानल के ताप को शांत करने के लिए अहिंसा के उपदेश दिए। उनके उपदेशों को जानने-समझने के लिए कोई विशेष प्रयास की जरूरत नहीं। जब भगवान महावीर पावानगरी के मनोहर उद्यान में जाकर विराजमान हो गए और जब चतुर्थकाल पूरा होने में तीन वर्ष और आठ माह बाकी थे तब कार्तिक अमावस्या के दिन सुबह स्वाति नक्षत्र के दौरान महावीर स्वामी अपने सांसारिक जीवन से मुक्त होकर मोक्षधाम को प्राप्त हो गए।
उस समय इंद्रादि देवों ने आकर भगवान महावीर के शरीर की पूजा की और पूरी पावानगरी को दीपकों से सजाकर प्रकाशयुक्त कर दिया। उस समय से आज तक यही परंपरा जैन धर्म में चली आ रही है और प्रतिवर्ष दीपमालिका सजाकर भगवान महावीर का निवार्णोत्सव मनाया जाता है। उसी दिन शाम को श्री गौतम स्वामी को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। तब देवताओं ने प्रकट होकर गंधकुटी की रचना की और गौतम स्वामी एवं केवलज्ञान की पूजा करके दीपोत्सव का महत्व बढ़ाया।
भगवान महावीर ने अपने हृदय के दीप को जलाया और फिर अनगणित बुङो हुए दीपों को ज्योतित किया तथा उनको इतनी सामथ्र्य भी दी कि वे ज्योतित दीप आज तक बुङो दीपों को प्रज्‍जवलित करते आ रहे हैं और उनसे प्रदीप्त दीप अनन्तकाल तक बुङो दीपों को ज्योति प्रदान करते रहेंगे। महावीर समभाव की पराकाष्ठा थे। उन्होंने यह नहीं देखा कि बुझा हुआ दीप मिट्टी का है या सोने का। उन्होंने समभाव से सभी को ज्योति प्रदान की। वह बुझा हुआ दीप चाहे अजरुनमाली जैसा कातिल हो, चाहे कोई छत्रधर राजा अथवा बंदनी चंदना हो, उन्होंने सबको ज्योति दी। कार्तिक अमावस्या की घोर अंधेरी रात का दीपावली पर्व भगवान महावीर की साधना यात्र के अथ और इति का सजीव साकार और मानव-जाति को आत्मा साधना की प्रेरणा देने वाला पर्व है।
मुनि पुलकसागरजी महाराज बताते हैं कि भगवान महावीर को मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति हुई और गौतम गणधर को कैवल्यज्ञान की सरस्वती की प्राप्ति हुई, इसलिए लक्ष्मी-सरस्वती का पूजन इस दिन की जाती है। लक्ष्मी पूजा के नाम पर रुपए-पैसों की पूजा जैन धर्म में स्वीकृत नहीं है, यह धर्म तो अपरिग्रहवाद का धर्म है।
भगवान महावीर ने भौतिक संपदा नहीं, आध्यात्मिक संपदा की प्राप्ति के लिए भौतिक संपदाएँ छोड़ी जाती हैं, उनकी पूजा नहीं की जाती। दुनिया में सफलता पुरुषार्थ से मिलती है और पुरुषार्थ धन-दौलत को समेटने में नहीं, समेटी हुई दौलत को छोड़ने में करना पड़ता है। हमारे यहाँ लक्ष्मी और सरस्वती इन दो देवियों की मान्यता है। लक्ष्मी पूजने योग्य तो है पर विश्वास के काबिल नहीं है, वह आज हमारी है कल किसी और की हो जाएगी, लेकिन सरस्वती पूजने योग्य भी है और विश्वास के काबिल भी।
आपने देखा होगा कि कई लखपति रातोंरात खाकपति हो जाते हैं पर ऐसा कभी नहीं सुना होगा कि कोई ज्ञानी रातोंरात बुद्धू बन गया हो। जैन धर्म में लक्ष्मी का अर्थ होता है निर्वाण और सरस्वती का अर्थ होता है कैवल्यज्ञान, इसलिए प्रातःकाल जैन मंदिरों में भगवान महावीर स्वामी का निर्वाण उत्सव मनाते समय भगवान की पूजा में लड्डू चढ़ाए जाते हैं।
लड्डू गोल होता है, मीठा होता है, सबको प्रिय होता है। गोल होने का अर्थ होता है जिसका न आरंभ है न अंत है। अखंड लड्डू की तरह हमारी आत्मा होती है जिसका न आरंभ होता है और न ही अंत। लड्डू बनाते समय बूँदी को कड़ाही में तपना पड़ता है और तपने के बाद उन्हें चाशनी में डाला जाता है। उसी प्रकार अखंड आत्मा को भी तपश्चरण की आग में तपना पड़ता है तभी मोक्षरूपी चाशनी की मधुरता मिलती है। उसी दिन यह आत्मा जगत को प्रिय लगने लगती है।
दीपावली दीपों का त्योहार है, धुएँ का नहीं। अमावस्या की अँधेरी रात में भगवान महावीर ने आत्मज्ञान की ज्योति जलाकर सारे जगत को रोशन कर दिया। हम भी उनसे प्रेरणा लेकर अँधेरों को रोशन करने का प्रयास करें। लोगों को मिठाइयाँ तो बहुत बाँटी, पर अब दुखी के आँसू पोंछकर खुशियाँ मनाएँ। द्वेष और दुश्मनी से दूसरों को बहुत जीत लिया, प्रेम और साधना से अपने आपको जीतो, दूसरों को जीतने वाला वीर होता है और अपने आपको जीतने वाला महावीर होता है।
प्रख्यात लेखक डॉ.प्रेम जनमेजय बड़ा माकूल सवाल करते हैं कि क्या कभी सोचा है कि घनघोर अँधेरे से लड़ना आसान हो जाता है पर घनघोर उजाले का भ्रम देने वाले उजाले से लड़ना कठिनतर? उजाला अँधेरे से लड़ता है या अंधेरा उजाले से लड़ता है? किस सत्ता की प्राप्ति के लिए लाखों वर्षों से यह लड़ाई जारी है? इस लड़ाई का कोई अंत है अथवा ये समाप्त होने का भ्रम पैदा कर ये पुन: आरंभ हो जाती है, बस मुखौटे बदल जाते हैं। राम-रावण युद्ध निंरतर है बस मुखौटा बदल जाता है। इतने सारे सवालों के बीच, उजाला एक विश्वास है जो अँधेरे के किसी भी रूप के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजाने को तत्पर रहता है। ये हममें साहस और निडरता भरता है। इसलिए रमेश तिवारी विराम के शब्दों में यही कहना ठीक है कि प्रकाश-प्रेमी मनुष्य ने इसी तिमिर-प्रिया अमावस्या की रात्रि को दीपोत्सव में परिवर्तित कर अंधकार की जड़ता पर अपनी चेतना के स्वर्णिम हस्ताक्षर अंकित किए हैं।

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