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दिल्ली इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल और भारतीय सिनेमा की हिस्सेदारी

बल्कि भारतीय सिनेमा के बारे में बहुत कुछ ऐसा जानते थे जो शायद किसी भी भारतीय फिल्म प्रशंसक को शरमा दे. खालिद अल जद्जाली ओमान में ना केवल ओमान फिल्म सोसाइटी के चेयरमैन हैं बल्कि ओमान में सबसे पहले फिल्म बनाने वाले ऐसे फ़िल्मकार भी हैं जिन्होने अपने अथक प्रयासों से मस्कट इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल की शुरुआत भी की है.

मस्कट इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल दो साल में एक बार होने वाला फिल्म फेस्टिवल है लेकिन जैसे पश्चिमी देशों में सिनेमा का विकास हुआ है वैसे सिनेमा का विकास ओमान में अभी नहीं हो पाया है. हाँ, बाकी के अरब देशों में जरुर सिनेमा को बहुत आगे जाने का मौका मिला है. इनमे इजिप्ट और मोरक्को का सिनेमा दुनिया भर में अपनी एक अलग पहचान बनाने में कामयाब भी हुआ हैं और अगर हम इसे इस्लामिक देशों में सिनेमा से जोड़कर देखे तो ईरान की इस्लामी क्रांति की सफ़लता के बाद के वर्षों में ईरान में अन्य मुस्लिम देशों की तुलना में सिनेमा ने महत्वपूर्ण प्रगति की है। इस क्षेत्र में यहां सफ़ल फ़िल्मों और धारावाहिकों का निर्माण हुआ है। जहाँ तक मस्कट इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भारतीयों की हिस्सदारी की बात है तो यहाँ गत वर्षों में मलयालम फिल्मों की बहुतायत के साथ हिन्दी, बांग्ला और उड़िया भाषा की फ़िल्में दिखाई जाती रही हैं. इस बार फेस्टिवल में राष्ट्रीय पुरस्कार लेने वाली सलीम अहमद की मलयालम फिल्म पाथेर मारी ही शामिल हो पायी. फिल्म में ममूटी और ज्वेल मेरी की भूमिका हैं. पिछले सालों में यहाँ संजय दत्त, अमिताभ बच्चन और ममूटी के अलावा नंदिता दास, शर्मिला टैगोर और कई बड़े कलाकार और फ़िल्मकार शामिल होते रहे हैं .

IMG_20160323_164709नौवें मस्कट इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में इस बार ११ फीचर फ़िल्में, १३ लघु फ़िल्में, ९ डॉक्यूमेंटरी दिखाई गई और इनमे कुल मिलाकर १९ फ़िल्में बाहर के देशों से भी शामिल हुई. २१ से २५ मार्च तक चलने वाले इस फिल्म फेस्टिवल के पांच दिन में कुल २५ देशों की ३६ फिल्मों में इराक, इजिप्ट, सीरिया, ट्युनिसिया, मोरक्को, बहरीन, ईरान और अल्जीरिया जैसे देशों की फ़िल्में शामिल हुई. इसकी वजह है कि ओमान में सिनेमा धीरे धीरे आगे बढ़ रहा है जबकि बहुत सी भारतीय और विदेशी फ़िल्में यहाँ फिल्माई जा रही हैं. ओमान फिल्म सोसाइटी यहाँ सिनेमा के विकास के लिए बहुत काम कर रही हैं. पर अभी ये एक लम्बा सफर है. लेकिन यहाँ ग्रीस के पेत्रोस सीवास्तोकोग, अल्जीरिया के लोत्फी बुशोची, बहरीन के मोहमद रशीद और इजिप्टी निर्देशक आमिर राम्सिस के साथ भारतीय निर्देशक सलीम अहमद को भी खूब सराहना मिली. फेस्टिवल में इराक के निर्देशक राद मुशहातत की जिस फिल्म द साइलेंस ऑफ़ द शेफर्ड को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अवार्ड मिला मैं उसे अपने साथ इस बार के दिल्ली फिल्म समारोह के लिए साथ ले आया.

अरब देशों के फिल्म फेस्टिवल्स में मुझे एक बात और बहुत प्रभावित करती है और वो है सीरिया जैसे देश में सिनेमा का बनते रहना. मस्कट और रबात में मेरी मुलाक़ात अल्जीरिया टीवी की सीनियर पत्रकार राभा से हुई जिसने मेरा परिचय सीरिया की सबसे लोकप्रिय अभिनेत्री सुलफ फवाखेर्जी से करवाया . मैं हैरान हूँ कि आतंकवाद से जूझते देश में जहाँ लीना मुराद जैसे सक्षम अभिनेत्रियाँ देश छोड़कर पेरिस में बस गई हों वहां सुलफ जैसी अभिनेत्री अभी भी सीरिया में जमी हुई हैं और उनकी फिल्म ‘चेरी लेटर्स’ की डीवीडी मैं खुद दिल्ली फिल्म फेस्टिवल के लिए चुन ले आया हूँ .

इस साल हम दिल्ली इंटर नेशनल फिल्म समारोह में अरब सिनेमा के लिए अगर फोकस करने का मन बना रहे हैं तो उसकी वजह है ओमान में खालिद जैसे फिल्मकारों का होना और उनके साथ अरब सिनेमा के नए चेहरे का सामने आना. जहाँ शेष विश्व के सामने उन्हें खुद को साबित करने की जरुरत नहीं है. वो तो पहले से ही ऐसा सिनेमा बना रहे हैं जो जिन्दगी और इंसानियत को पहचानता रहा है.

A32Z2621मस्कट फिल्म फेस्टिवल कई मायनों में दिल्ली फिल्म फेस्टिवल की तर्ज पर हो रहा है. वहां फेस्टिवल के दौरान चित्रकार पेंटिंग करते हैं और उनकी कार्यशाला होती है . संगीत होता है और उनके सेमिनार भी. हाँ एक बात अलग है. वहां हमारे यहाँ की तरह केवल युवा वालिन्टरस ही नहीं होते बल्कि जमील अल याकूबी जैसे इंजीनयर और इसा जैसे वरिष्ठ ज्वेलरी डिजाइनर भी शमिल होते हैं जो न केवल फिल्म बना रहे हैं बल्कि ओमान में खालिद के साथ फिल्म निर्माण और सिनेमा के विकास में भी मदद कर रहे हैं. खालिद की इस मुहीम में हम भी अगले साल शामिल होंगे और भारत से एक भारतीय सिनेमा का प्रोग्राम लेकर ना केवल ओमान जायेंगे बल्कि मोरक्को और अल्जीरिया जैसे देशों अरब देशों में ऐसे फिल्म समारोहों में उनके आयोजकों की मदद भी करेंगे जो अपना सिनेमा दूसरे देशों में दिखाना चाहते हैं और भारतीय सिनेमा को अपना यहाँ सम्मान के साथ देखना चाहते हैं.

और एक बात . मस्कट जाते समय मुझे याद था कि इस बार मेरी होली भारत में नहीं होगी. सो गुलाल और गुजिया साथ ले गया था. मेरा इरादा वहां भारतीय राजदूत इंद्रा मणि पाण्डेय से मिलना और उन्हें इस मौके पर रंग में शामिल करना था. मैंने उन्हें रंग, गुजिया और दिल्ली फिल्म इंटरनेशनल फेस्टिवल की जानकारी के साथ अलबम और ब्रोशर भेंट किया. लेकिन मेरी असली होली तो फेस्टिवल के चौथे दिन तब हुई जब खालिद ने सल्तनते ओमान के एक प्रतिनिधि के सामने मुझसे एक भव्य कार्यक्रम के दौरान पुछा, “ राम शुरुआत तुम करोगे या हम हम करें.’ मैं ये मौका नहीं छोड़ना चाहता था और मैंने जब सैकड़ों मेहमानों के सामने खालिद को गुलाल लगाया और गुजिया खिलाई तो उनके चेहरा खिला हुआ था. वो बोले मैं जरा जायदा लगाऊंगा. सच में उन्होंने मेरा चेहरा रंग से मल दिया. इसके बाद रबात फिल्म फेस्टिवल की निदेशक मलक दहमौनी ने होटल के लौबी में जो गुलाल उड़ाया उसका रंग अगले दिन तक लोगों पर छाया रहा. भारत वापिस आते हुए मैं सोच रहा था कि रंग, सिनेमा, संस्कृति, प्रेम और लोग. बस यही तो बाकी है जो तमाम विरोधाभासों में बाद भी जमा रहता है. कभी नहीं मरता .
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