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डॉ. पद्मावतीः डॉक्टर जो देवी से बढ़कर थी!

बात उन दिनों की है जब मैं 1980 में पत्रकारिता के सिलसिले में नौकरी करने दिल्ली आया ही था। एक दिन मेरे एक परिचित का जो कि आला कंपनी में बड़े अधिकारी थे, फोन आया। उन्होंने मुझे बताया कि उनकी कंपनी के एक आला अधिकारी को दिल का दौरा पड़ा है और वे लोग उन्हें लेकर दिल्ली आए हैं। उन्होंने मुझे मिलने के लिए दक्षिण दिल्ली में ईस्ट आफ कैलाश स्थित नेशनल, हार्ट इंस्टीटयूट आने को कहा।

शाम को छुट्टी होने के बाद मैं कई बसें बदल कर अस्पताल पहुंचा। वहां मरीज अफसर एक निजी कमरे में भरती था। वहां मैं पहली बार डा. पद्मावती शिव राम कृष्णा अय्यर उर्फ डा. पद्मावती से मिला। जब कुछ मित्र के साथ उन्हें देखने की औपचारिकता निभाकर कमरे के बाहर आया तो मैं बाकी उनके साथियों से बातचीत करने लगा।

कोई कह रहा था कि हमारे देश में चिकित्सा के क्षेत्र में कितनी प्रगति हो गई है कि अब दिल्ली में निजी क्षेत्र में दिल का इतना बड़ा अस्पताल खुल गया है। वरना हम लोग तो इन्हें मद्रास (चेन्नई) स्थित अपोलो ले जाने की सोच रहे थे। मगर एक महिला इस क्षेत्र में कितना काम कर रही है। जब डा. पद्मावती के कोविड का शिकार हो जाने की खबर पढ़ी तो सारी घटना याद आ गई।

अमेरिकी उपराष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ रही कमला हैरिस के बाद वे भारत की सबसे चर्चित महिला थी जिन्हें की गॉडमदर आफ कार्डियोलाजी के नाम से जाना जाता था। उनके नेशनल हार्ट इंस्टीट्यूट में देश की पहली हार्ट लैब व कैथेटर स्थापित हुआ। उनका जन्म 1917 में बर्मा (म्यांमार) में हुआ था। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद में भारत आई व दिल्ली में बस गई। पहले वे लेडी हार्डिंग कालेज में चिकित्सा की शिक्षा देती थी। उन्हें हारवर्ड मेडिकल इंटरनेशनल अवार्ड, डा. बीसी राय अवार्ड के अलावा कमला मेनन रिसर्च अवार्ड, पदमश्री व पदम विभूषण तक मिले।


बाद में वे मौलाना आजाद मेडिकल कालेज में नौकरी करने लगीं। वे देश की जानी मानी दिल के रोगों की विशेषज्ञ थीं। उनके तमाम छात्र प्रतिष्ठित हृदय रोग विशेषज्ञ बने। वे अपनी सेहत का काफी ख्याल रखती थी। वे 93-94 साल की आयु तक रोज बैंडमिंटन खेलती रही। उन्हें टेनिस खेलना भी पंसद था मगर उम्र के साथ साथ उन्होंने दोनों खेल खेलना बंद कर दिया। वे 1967 में मौलाना आजाद मेडिकल कालेज के डायरेक्टर प्रिसिंपल भी बनीं। वहां उन्होंने कार्डियोलाजी विभाग शुरु करवाया व पहली कोरोनरी केयर यूनिट शुरु कर दी जो कि दिल की पहली देसी यूनिट थी।

वे अपने मरीजों के साथ मधुर संबंध बनाने के लिए डाक्टरों पर जोर डालती थीं। उनका मानना था कि दिल के रोगों के इलाज पर ज्यादा जोर देने की जगह उनकी रोकथाम के लिए ज्यादा प्रयास किए जाने चाहिए। यह बात तब की है जब कि देश में यह माना जाता था कि दिल का रोग तो अमीरों की बीमारी है व दिल्ली में उसके आपरेशन की सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। उस समय दिल्ली में दिल का आपरेशन किया जाना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी।

मुझे उनकी सबसे अच्छी बात यह लगी कि यह वह समय था कि अस्पताल का मतलब ही सरकारी होता था। तब देश में निजी क्षेत्र में अस्पताल नहीं हुआ करते थे। शायद यही वजह थी कि हमारे देश के बड़े-बड़े नेता व पैसे वाले लोग अपना इलाज करने के लिए बाहर विदेश जाते थे। उस समय एक महिला डाक्टर द्वारा दिल के रोगियों के लिए निजी क्षेत्र में अस्पताल खोलना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी।

जब मैं वहां भर्ती हुए सज्जन के पास था तो संयोग से वहां डाक्टर साहिबा आ गईं। मैंने सिर झुकाकर उनका अभिवादन किया मगर जवाब में उन्होंने लगभग झल्लाते हुए कहा कि आप लोगों को यहां भीड़ नहीं लगानी चाहिए, आपको नहीं पता कि रोगी के देखने वालों के कारण उसकी जिंदगी के लिए खतरा बढ़ जाता है क्योंकि वे लोग अपने साथ इन्फेक्शन लेकर आते हैं।

बाद में जब मैं अपने दिल के आपरेशन के लिए एम्स में भर्ती हुआ तो मैंने वहां के दीवारों पर लिखा देखा कि रोगी से मिलने वालों को अस्पताल नहीं आना चाहिए, उनके आने से रोगियों को कहीं ज्यादा दिक्कत होती है। क्योंकि उनको इनफेक्शन होने का खतरा होता है जो कि जान लेवा साबित हो सकता है। संयोग से जब एक केंद्रीय मंत्री अपने सुरक्षाकर्मियों व दूसरी फौज के साथ मुझे देखने आएं तो वहां मेरा आपरेशन करने वाले हृदय रोग विशेषज्ञ डा. वेणुगोपाल आ गए। उन्होंने मंत्रीजी व मुझे जमकर लताड़ा और उन्हें तुरंत वहां से चले जाने को कहा। वह नेता भी उनके काफी घनिष्ट जानकार रहे थे और उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया और वहां से तुरंत निकल गए।

इसे समय का फेर और डा. पद्मावती की मेहनत ही कहेंगे कि जो महिला द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान म्यामांर पर जापान के हमले के बाद अपने परिवार समेत सारी महिला सदस्यों की जान बचाने के लिए भागकर भारत आयी थीं वह तीन साल तक पिता समेत बिना किसी पुरुष सदस्य के भारत में रहीं। उसके पिता व परिवार के पुरुष सदस्य तीन साल बाद भारत आए, भारत में रहकर वह पढ़ाई में जुटी रहीं व देखते ही देखते वह दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के काफी करीब आ गईं।

जब उन्होंने नेशनल हार्ट इंस्टीट्यूट का गठन किया तो इंदिरा गांधी दिल्ली में उनका अस्पताल खोलने में मदद करना चाहती थीं मगर आपातकाल लग जाने के कारण उनकी मदद का मामला रुक गया। तब बेनेट एंड कोलमैन कंपनी के मालिक साहू जैन ने अस्पताल स्थापित करने में उनकी काफी मदद की। उन्हें आइसीएमआर की प्रबंध समिति में रखा व पद्मश्री व पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया। कुछ समय पहले वे अपनी बढ़ती उम्र के कारण लगभग सन्यास ही ले चुकी थीं। बैडमिंटन व टेबिल टेनिस खेलना उनके प्रमुख शौक थे।

उनके अस्पताल का इंदिरा गांधी ने ही उदघाटन किया था। इसे किस्मत का खेल ही कहेंगे कि जो डाक्टर जीवन भर लोगों की जान बचाने में लगी रही। उसने अंततः 103 साल की आयु में कोविड का शिकार बन जाने के कारण लंबे अरसे तक सांस की तकलीफ झेलते हुए अपनी जान दे दी।

 

 

 

 

 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं व नया इंडिया से जुड़े हैं, अपने संस्मरण वे रोचक अंदाज में लिखते हैं )
साभार- https://www.nayaindia.com/ से