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जम्मू वायुसेना स्टेशन पर ड्रोन हमला: तकनीकी चुनौती से कहीं बड़ा ख़तरा

वायुसेना स्टेशन के टेक्निकल एरिया में ही लड़ाकू विमान और दूसरे साजो-सामान रखे जाते हैं. ये इलाक़ा स्टेशन का सबसे सुरक्षित हिस्सा माना जाता है

27 जून को तड़के जम्मू में भारतीय वायुसेना स्टेशन (एएफएस) पर ड्रोन के ज़रिए आईईडी विस्फोटक से हमला किया गया. हमले के तत्काल बाद इस नई और विषम प्रकार की चुनौती को लेकर मीडिया में ख़बरों का बाज़ार गर्म हो गया. वायुसेना के बयान में “जम्मू एयरफ़ोर्स स्टेशन के टेक्निकल एरिया में कम तीव्रता वाले दो धमाकों” की बात कही गई. ये बयान अपने आप में मायने रखता है. वायुसेना स्टेशन के टेक्निकल एरिया में ही लड़ाकू विमान और दूसरे साजो-सामान रखे जाते हैं. ये इलाक़ा स्टेशन का सबसे सुरक्षित हिस्सा माना जाता है. वायुसेना के दूसरे केंद्रों के मुक़ाबले जम्मू एयरबेस छोटा है. आमतौर पर यहां लड़ाकू विमानों या ट्रांसपोर्ट्स की बजाए हेलिकॉप्टर्स रखे जाते हैं. बहरहाल ये देश का एक बेहद संवेदनशील इलाक़ा है. पाकिस्तान की सरहद यहां से महज 14 किमी दूर है. इतना ही नहीं यहां रनवे के विस्तार की एक परियोजना भी चल रही है जिसे इस साल के अंत तक पूरा किया जाना है.

वायुसेना के दूसरे केंद्रों के मुक़ाबले जम्मू एयरबेस छोटा है. आमतौर पर यहां लड़ाकू विमानों या ट्रांसपोर्ट्स की बजाए हेलिकॉप्टर्स रखे जाते हैं. बहरहाल ये देश का एक बेहद संवेदनशील इलाक़ा है.

भारतीय वायुसेना ने अपने बयान में कहा है कि इस हमले से एयरबेस के साजो-सामानों को किसी भी तरह का नुकसान नहीं पहुंचा. ये भी बताया गया कि केवल एक धमाके से वहां की “एक इमारत की छत को हल्का नुकसान पहुंचा”. बहरहाल ये बात पूरी तरह से साफ़ है कि इस हमले का कोई गंभीर परिणाम न होना पूरी तरह से किस्मत की बात है. ड्रोन को या तो सैटेलाइट नेविगेशन और इनर्शियल मेज़रमेंट यूनिट्स (आईएमयू) की मदद से पहले से प्रोग्राम कर पूर्व-निर्धारित रास्ते पर उड़ाया गया या फिर विस्फोटकों को फेंके जाने के स्थान तक हाथों के ज़रिए नियंत्रित कर संचालित किया गया. इन दोनों ही तरीकों से ड्रोन के संचालन की कुछ सीमाए हैं. ऐसा लगता है कि इसी वजह से इस हमले का सीमित असर ही हो पाया.

सैटेलाइट और आईएमयू नेविगेशन की तकनीक के ज़रिए सामान्य ऊंचाइयों तक ड्रोन उड़ाने में भी अक्सर ग़लतियां होने की संभावना रहती है. दूसरी ओर हाथों के ज़रिए ड्रोन के संचालन में हमारी नज़रों की अधिकतम क्षमता, साफ़-साफ़ देख पाने की काबिलियत और लक्ष्य किए गए स्थान की दूरी से जुड़ा अनुमान बेहद मायने रखता है. इतना ही नहीं कमज़ोर रेडियो लिंक की वजह से भी इसमें ग़लतियां होने के पूरे आसार होते हैं. बेशक इस पूरे कांड के मद्देनज़र इस बात से इनकार नहीं कर किया जा सकता कि इन ड्रोनों का पहले से पता नहीं लगाया जा सका. ड्रोन का संचालन करने वाले एक ऑपरेशनल एयरबेस के सबसे सुरक्षित स्थान पर विस्फोटक गिराने में कामयाब रहे. बहरहाल, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि भविष्य में अगर इस तरह के हमले होते हैं तो वो भी इतने ही बेअसर साबित होंगे.

जम्मू में वायुसेना स्टेशन को चाहे जो भी नुकसान पहुंचा हो मगर इस हमले के बाद सुरक्षा ख़तरों के नए रूपों को लेकर सतर्क हो जाने का समय आ गया है. इसमें कोई शक़ नहीं है कि अब भारतीय सेना भविष्य में ऐसे हमलों से अपने संवेदनशील ठिकानों को बचाने के लिए पूरी मुस्तैदी से सक्रिय हो जाएगी. शुरूआती ख़बरों से पता चलता है कि सीमा के नज़दीक के इलाक़ों में स्नाइपर्स और जैमर्स की तैनाती के साथ-साथ दूसरे आतंक-विरोधी उपायों पर अमल शुरू कर दिया गया है.

हालांकि, इस चुनौती से व्यापक रूप से निपटने का रास्ता उतना आसान नहीं है. जम्मू में हुए हमले में इलेक्ट्रिक मल्टी-रोटर किस्म के ड्रोन का इस्तेमाल किया गया. ये सस्ते होते हैं और आसानी से हासिल किए जा सकते हैं. इतना ही नहीं खुदरा बाज़ार से जुगाड़ किए गए कल- पुर्ज़ों से इनको तैयार करना कठिन नहीं होता. इस प्रकार तैयार किए गए ड्रोन का टोह लगाना बेहद मुश्किल होता है. अपने छोटे आकार की वजह से ये आसानी से रडार की पकड़ में नहीं आते. और तो और थर्मल और आवाज़ की पहचान करने वाली मशीनों के लिए भी इनका पता लगा पाना बेहद मुश्किल होता है. आसमान में उड़ते ख़तरनाक इरादों वाले ड्रोन की टोह लगा पाने की क्षमता उनको बनाने में इस्तेमाल हुए कच्चे मालों पर निर्भर करती है. ड्रोन का पता लगाने में होने वाली ये कठिनाई तब और बढ़ जाती है जब छोटे आकार वाली ये मशीन कम ऊंचाई पर और धीमी रफ़्तार से उड़ती है. इन ख़ासियतों के चलते इन ड्रोनों को आसमान में उड़ते बाक़ी वस्तुओं के समूह से अलग कर उनकी पहचान कर पाना मुश्किल हो जाता है.

अपने छोटे आकार की वजह से ये आसानी से रडार की पकड़ में नहीं आते. और तो और थर्मल और आवाज़ की पहचान करने वाली मशीनों के लिए भी इनका पता लगा पाना बेहद मुश्किल होता है.

बहरहाल, पकड़ में आने से जुड़ी मुश्किलों के बाद इन ड्रोनों को निष्क्रिय करने से जुड़ा मामला भी सामने आता है. ड्रोन को नष्ट करने के ‘शांत’ और ‘कठोर’ विकल्पों में से किसी एक का चयन करना आसान नहीं होता. कई मामलों में (ख़ासतौर से जम्मू में हुए ड्रोन हमले से जुड़े मामले में) ड्रोन को शांति के साथ नष्ट करने का तरीका ही ज़्यादा मुफ़ीद होता है. इस प्रक्रिया से उसके निर्माण से जुड़ी तमाम जानकारियां हासिल की जा सकती है. वहीं दूसरी ओर ख़ासतौर से बड़ी संख्या में ड्रोन के इस्तेमाल या ज़्यादा विस्फोटकों से लदे ड्रोन से हमलों के संदर्भ में तेज़ रफ़्तार से ड्रोन को नष्ट किए जाने की रणनीति अधिक कारगर होती है. ड्रोन का पता लगाने या नष्ट करने का चाहे जो भी तरीका अपनाया जाए वो तकनीकी रूप से जटिल और काफ़ी खर्चीला होता है. ड्रोन के ज़रिए सुरक्षा को पहुंच रहे संभावित ख़तरों के मुक़ाबले उनसे निपटने की लागत कहीं ज़्यादा होती है.

पाकिस्तानी आईएसआई की हरकत
इस तरह के ख़तरों से निपटने के रास्ते में कई और भी चुनौतियां हैं. जानबूझकर या बेपरवाही में की गई पुरानी ग़लतियों के चलते हालात और बदतर हो जाते हैं. देश में रक्षा प्रतिष्ठानों ख़ासतौर से एयरबेसों के चारों ओर भारी मात्रा में अतिक्रमण देखने को मिलता है. जम्मू जैसे सीमावर्ती बेस के चारों और असुरक्षित असैनिक निर्माणों की भरमार है. देश के बेहद अहम फाइटर स्टेशन (जैसे अंबाला स्थित राफ़ेल बेस) के रनवे के सामने बहुमंज़िला इमारतें खड़ी हैं. 2019 में अंबाला एयरबेस से उड़ान भरने वाले जगुआर की कई बार पक्षियों से टक्कर हो गई थी. इसके चलते विमान का इंजन बंद पड़ गया था. तब पायलट ने सूझबूझ दिखाते हुए न सिर्फ़ अपने लड़ाकू विमान बल्कि आस–पास की असैनिक आबादी को भी बचा लिया था. जगुआर के उस पायलट की सबने सराहना की थी. तब इस बात की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया कि एयरफ़ोर्स स्टेशन के पास बड़े पैमाने पर हुए शहरी अतिक्रमण की वजह से वहां पक्षियों की आवाजाही बढ़ गई है.

शुरूआत में ही इलाक़ों के वर्गीकरण और निर्माण गतिविधियों से जुड़े नियम-कायदों का अगर सख्त़ी से पालन किया गया होता तो इस तरह से किसी भी नागरिक की जान ख़तरे में नहीं आती. शहरी अतिक्रमण और अवैध निर्माण से संभावित हमलावरों को काफ़ी सहूलियत हो जाती है. अतिक्रमण और बेतरतीब निर्माण के चलते सुरक्षा को चुनौती पहुंचाने वाले इन ड्रोनों की टोह लगा पाना और मुश्किल हो जाता है. अतीत में भले ही इस समस्या की ओर ध्यान नहीं दिया गया लेकिन अब वक़्त आ गया है कि इस पर ध्यान देकर इसका निदान ढूंढा जाए.

आईएसआईएस इन तरीकों का व्यापक तौर पर इस्तेमाल करता रहा है. ऐसे में उनसे निपटने के पुराने अनुभवों से पता चलता है कि आतंक के इस नए हथियार के इस्तेमाल को तेज़ गति से रोकने में रक्षात्मक प्रणाली से ज़्यादा ख़ुफ़िया तंत्र कारगर साबित होता है.

एंटी-ड्रोन सिस्टम एक जटिल प्रणाली है. इनका इस्तेमाल कई मौकों पर किया जाता है. इस तरह की प्रणाली की मौजूदगी या ग़ैर-मौजूदगी को एक तरफ़ रखकर देखें तो हम पाते हैं कि ड्रोन से होने वाले संभावित आतंकी हमलों के बारे में पहले से ख़ुफ़िया जानकारी हासिल करने से जुड़े तंत्र में मज़बूती लाना बेहद ज़रूरी है. जब भी पाकिस्तानी ड्रोन का इस्तेमाल भारतीय सरज़मीन पर सक्रिय आतंकी नेटवर्क को हथियार और गोलाबारूद पहुंचाने के लिए किया जाता था तब ऐसी डिलिवरी को अक्सर पकड़ लिया जाता था या उनको निष्क्रिय कर दिया जाता था. व्यापारिक इस्तेमाल में आने वाले ड्रोन या बेसिक मल्टी-रोटर ड्रोन के निर्माण में इस्तेमाल होने वाले हार्डवेयर की खरीद-बिक्री पर निगरानी रखना आसान नहीं है. आईएसआईएस इन तरीकों का व्यापक तौर पर इस्तेमाल करता रहा है. ऐसे में उनसे निपटने के पुराने अनुभवों से पता चलता है कि आतंक के इस नए हथियार के इस्तेमाल को तेज़ गति से रोकने में रक्षात्मक प्रणाली से ज़्यादा ख़ुफ़िया तंत्र कारगर साबित होता है. हमले की ताक में उड़ान भर रहे ड्रोन को पकड़ने की बजाए उनसे निपटने का सबसे प्रभावी उपाय ये है कि हमारा ख़ुफ़िया तंत्र पहले ही ये पता लगा ले कि कब किसी नापाक इरादों वाले किरदार ने सर्किट बोर्ड और सोल्डरिंग आयरन का जुगाड़ किया है.

साभार- https://www.orfonline.org/hindi से