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पर्यावरणविद् डी के जोशी का मिशन अधूरा

प्रसिद्ध पर्यावरणविद् एवं सुप्रीम कोर्ट मानीटरिंग कमेटी के सदस्य डीके जोशी का जन्म 1938 में गुजरात ( पाकिस्तान) में हुआ था। पिता अयोध्यालाल जोशी और मां प्रकाशवती थे। विभाजन के बाद परिवार अजमेर में आकर बसा। यहीं पर डीके जोशी की पढ़ाई हुई। उन्होंने स्नातक किया। इसके बाद नौकरी की, अखबार से जुड़े, कारोबार किया, राजनीति में भी रहे। कांग्रेस के उत्तर प्रदेश महामंत्री रहे। अखबार की नौकरी की। कारोबार किया। फिर शहर की पेयजल, ड्रेनज और सीवर की समस्या का समाधान कराने के लिए पूर्णकालिक रूप से अंतिम सांस तक लगे रहे। वे प्रसिद्ध पर्यावरणविद् एवं सुप्रीम कोर्ट मानीटरिंग कमेटी के सदस्य थे। वह 78 वर्ष के थे। 22 दिन से दिल्ली के आनंद विहार स्थित एक हॉस्पिटल में भर्ती थे। उन्हें जीवन रक्षा प्रणाली (वेंटिलेटर) पर रखा गया था। सोमवार रात उन्होंने अंतिम सांस ली। उनके निधन की सूचना से पर्यावरण प्रेमी गहरे शोक में डूब गए। आगरा के शाहगंज की फ्रेंड्स कालोनी निवासी जोशी लंबे समय से पर्यावरण की रक्षा के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहे थे। उनके पार्थिव शरीर का दाह संस्कार मंगलवार दोपहर एक बजे ताजगंज स्थित मोक्षधाम श्मशान घाट पर किया गया । मैं डीके जोशी को श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं और दुआ करता हूं कि शहर में और कई डीके जोशी हों, ताकि ताजमहल के इस शहर का समन्वित विकास हो सके।

संघर्ष का दूसरा नाम:- डीके जोशी संघर्ष का दूसरा नाम थे। उनका रण भीषण था लेकिन कानून के दायरे में। वह सिस्टम से लड़ रहे थे, लेकिन कानून को हथियार बनाकर। उन्होंने आगरा के सीवेज, ड्रेनेज, पेयजल सुविधा के लिए अदालत में लंबी लड़ाई लड़ी। सुप्रीम कोर्ट, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल और हाईकोर्ट में तमाम जनहित याचिकाएं दायर कीं। केस लड़े। एक ओर पूरा सरकारी अमला, तो दूसरी तरफ अकेले जोशी। कभी डरे नहीं, तमाम बाधाएं आईं, पर कभी रुके नहीं।

डूब क्षेत्र बचाने की लड़ाई:-डीके जोशी नहीं रहे। ताजनगरी के लिए यह दुखद समाचार सदमे की तरह है। 78 वर्ष की उम्र में बीमारी से जूझने के बावजूद यह शख्स पर्यावरण की रक्षा के लिए सिस्टम से लड़ रहा था। उनके निधन की खबर आते ही हर शहरवासी की जुबां पर पहला सवाल यही आया, डूब क्षेत्र की लड़ाई कौन लड़ेगा। सूर सरोवर पक्षी विहार को बचाने के लिए भी उन्होंने लंबा संघर्ष किया। उनकी जगह यह बीड़ा अब कौन उठाएगा। शहर ने उम्मीद की एक मशाल को खो दिया है।

वाल्मीकि समाज पर पकड़:- पहले उनकी पहचान थी वाल्मीकि समाज पर पकड़ के कारण। नगर निगम की घेराबंदी करते थे। कई-कई दिन तक डटे रहते थे। वहीं पर भंडारा चलता था। वे स्वयं वाल्मीकि नहीं थे, लेकिन वाल्मीकि समाज के लोग उनके इशारे पर जान तक देने को तैयार रहते थे। उनकी इस ऐसी धमक थी कि नगर निगम के अधिकारी पानी भरते नजर आते थे। कई बार निजी लाभ का लोभ दिया गया, लेकिन वे डिगे नहीं। सफाई कर्मचारियों को स्थाई कराकर ही माने।

हर फाइल में ब्रेकिंग न्यूज:-उनके पास संग्रहीत हर फाइल में ब्रेकिंग न्यूज थी। आज के पत्रकार चाहते थे कि डीके जोशी खबर बनाकर दें। वे कहते थे कि फाइल का अध्ययन करो और स्वयं खबर बनाओ। पत्रकार इतना समय देना नहीं चाहते हैं। इसी कारण बहुत सी खबरें फाइलों में दफन होकर रह गई हैं।

शहर का विकास:-वास्तव में अजीब प्राणी थे डीके जोशी। एक ही धुन सवार थी- मेरे आगरा शहर का विकास कैसे हो? जिन अधिकारियों से हमारे जनप्रतिनिध डरते हैं, इतना डरते हैं कि ऊंची आवाज में बात नहीं कर सकते, उन सबको नाच नचाया। वे खूब हल्ला-गुल्ला करते थे। फिर उनकी समझ में आया कि सिर्फ हल्ला-गुल्ला से काम नहीं चलने वाला। उन्होंने सूचना का अधिकार (आरटीआई) और न्यायालय को हथियार के बतौर इस्तेमाल किया। कुछ ‘दुष्टों’ की इतनी पहुंच थी कि वे स्थनीय स्तर पर आरटीआई को भी दबा देते थे। वे लखनऊ से लेकर दिल्ली तक लड़ते थे और जवाब हासिल करके ही मानते थे।

ताज संरक्षित क्षेत्र:-जिला न्यायालय, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में उन्होंने अनेक याचिकाएं प्रस्तुत कीं। अनेक घोटाले खोले। कुछ में कार्रवाई हुई तो अधिकांश में नहीं। इसके बाद भी हिम्मत नहीं हारी। उनकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने ताज संरक्षित क्षेत्र (ताज ट्रेपेजियम जोन-टीटीजेड) का गठन किया और इसमें 600 करोड़ रुपये रखे। दिसम्बर, 1996 में इसका गठन किया गया। उद्देश्य ताजमहल को प्रदूषण से बचाना था। टीटीजेड में करोड़ों रुपय आए तो कई विभागों के अधिकारी फूले नहीं समाए। उनकी नजर से वे बच नहीं सके। उन्होंने हर विभाग का अनुश्रवण किया और समिति में बात रखी। जांच के आदेश हुए। उनकी पहल पर ही सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कोर्ट कमिश्नर की तैनाती की थी। वे कहते थे कि मैंने शहर के विकास के लिए इतने पैसे का इन्तजाम कर दिया है कि कोई जिन्दगी भर सांसद रहे, तो भी नहीं ला सकता है।

राष्ट्रीय हरित अधिकरण:-पर्यावरण और यमुना को बचाने के लिए डीके जोशी ने राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल-एनजीटी) को बतौर हथियार इस्तेमाल किया। डीके जोशी के तर्क इतने कानून सम्मत थे कि आगरा के कई बिल्डर सकते में थे। इन बिल्डरों का रक्षक है आगरा विकास प्राधिकरण (एडीए)। एडीए ने अपनी रिपोर्ट में बिल्डर्स को बचाने का प्रयास किया, लेकिन सफल नहीं हो सका। यमुना की तलहटी में बने निर्माण खतरे में है। यमुना को बचाने के लिए उन्होंने आंदोलन छेड़ रखा था। सवाल यह है कि अब यमुना मैया को बचाने के लिए एनजीटी में पैरवी कौन करेगा। उनके अवसान पर यमुना मैया जरूर आंसू बहा रही होगी। यमुना मैया की पुकार अब कौन सुनेगा? जितना जरूरी यमुना को स्वच्छ करना है, उतना ही जरूरी यमुना को बिल्डर्स के चंगुल से बचाना है। यह काम डीके जोशी के अलावा और कोई करने की हिम्मत नहीं कर सकता है। डीके जोशी ऐसे व्यक्ति थे, जो बिकाऊ नहीं थे। सूरसरोवर पक्षी विहार को बचाने के लिए शारदा ग्रुप से भी टकरा गए।

झोलाछाप चिकित्सकों पर प्रतिबंध:-डीके जोशी की याचिका पर हाईकोर्ट ने झोलाछाप चिकित्सकों पर प्रतिबंध लगाया था। यह बात वर्ष 2000 की है। स्वास्थ्य विभाग ने कोर्ट को दिखाने के लिए नाममात्र के लिए अभियान चलाया। देहात ही नहीं, शहर में भी झोलाछाप पूरी तरह सक्रिय हैं। डीके जोशी ने कई सीएमओ कोर्ट में तलब कराए, लेकिन कुछ हुआ नहीं। परिणाम यह है कि झोलाछाप के इलाज से मौतों की खबर आए दिन आती रहती है।
संसाधनों का अभाव:-डीके जोशी कहते थे कि संसाधनों के अभाव में भी लड़ाई लड़ी जा सकती है, अगर सच के पथ पर हैं। यह भी पता चलता है कि सच के रास्ते पर चलने वाले की राह में कांटे ही कांटे होते हैं। वे चाहते तो बिल्डर्स से सांठ-गांठ करके मौज कर सकते थे, लेकिन नहीं। पर्दे के पीछे रहकर होटल व्यवसायी संदीप अरोरा और राकेश चौहान जैसे अनेक शख्स उनकी मदद किया करते थे।

पशुवधशाला बंद कराना चाहते थे:-डीके जोशी का एक काम अधूरा रह गया। वे पशुवधशालाएं बंद कराना चाहते थे। इसके लिए राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली समेत कई राज्यों का दौरा करके आए थे। आरटीआई के माध्यम से सूचनाएं एकत्रित की थीं। सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करने की तैयारी कर रहे थे। लेकिन उनके इस अधूरे काम को पूरा करने की जरूरत है। वे चिन्तित थे कि अगर पशुधन नहीं रहा तो ग्रामीण भारत का क्या होगा? जो लोग केवल दुधारु पशुओं के सहारे जीवनयापन कर रहे हैं, उनका क्या होगा?

उत्तराधिकारी नहीं:- यह दुख का विषय है कि डीके जोशी ने कोई उत्तराधिकारी नहीं बनाया। नेशनल चैम्बर के पूर्व अध्यक्ष राजीव गुप्ता तो डीके जोशी से अकसर कहा करते थे- ‘अपने पीछे कोई चेला तैयार करो ताकि वह लड़ाई को जारी रख सके।‘ उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला, जो उनकी तरह कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलते हुए उनके जैसा बन सके। दूसरे आज किसी के पास इतना वक्त नहीं है कि बिना वेतन के, बिना निजी लाभ के दूसरों के लिए काम कर सके। कितना अच्छा होता कि वे अपने पीछे शहर की चिन्ता करने वाले कम से कम एक व्यक्ति को तो छोड़कर जाते।

अनुत्तरित प्रश्न:-डीके जोशी के यूं ही चले जाने के बाद कई प्रश्न अनुत्तरित हैं। अब अतिक्रमणों, अवैध निर्माण से यमुना मैया को कौन बचाएगा? किसमें इतनी कुव्वत है कि बिना निजी लाभ के सिर्फ शहर के समेकित विकास के बारे में सोचे? किसमें इतनी हिम्मत है, जो बड़े-बड़े अफसरों की बखिया उधेड़ सके? किसमें इतनी हिम्मत है, जो आईएएस, आईपीएस और पीसीएस अधिकारियों से न डरे? किसमें इतनी हिम्मत है जो सच को सच कहने की हिम्मत कर सके? किसमें इतनी हिम्मत है, जो मंडलायुक्त की अध्यक्षता वाली अनुश्रवण समिति की बैठक में अफसरों को कानून का ज्ञान दे सके?