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आस्था, श्रध्दा, भक्ति और सामाजिक सद्भाव की प्रतीक है उज्जैन की पंचक्रोशी यात्रा

उज्जैन में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली यह यात्रा लोक जीवन, धर्म और संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा है। इस यात्रा का उल्लेख स्कन्दपुराण के अवन्तिखण्ड में मिलता है, जिसके अनुसार महाकाल वन के चारों दिशाओं में चार द्वार हैं – पूर्व में पिंगलेश्वर, पश्चिम में विल्वकेश्वर, उत्तर में दुर्दरेश्वर और दक्षिण में कायावरोहणेश्वर। इस बार सिंहस्थ में इस यात्रा का आयोदन होने की वजह से इसका विशेष महत्व है। इस वर्ष पंचक्रोशी यात्रा 1 मई से 6 मई तक हो रही हैं। सिंहस्थ महापर्व होने से इसमें करीब 5 लाख से अधिक श्रद्धालु भाग लेंगे। संभवतः यह अधिक लोगों को पता नहीं होगा कि उज्जैन का महत्व सिंहस्थ और कार्तिक मेले के अलावा पंचक्रोशी यात्रा के कारण भी हैं।

पंचक्रोशी यात्रा में तीर्थयात्रा उज्जैन की परिक्रमा करते हैं और फिर क्षिप्रा के तट पर विश्राम कर अष्टाविंशति तीर्थ यात्रा पूरी करते हैं। यात्रा वैशाख कृष्ण पक्ष दशमी को शुरू होती है और अमावस्या को समाप्त होती है।

दन्तकथाएँ कहती हैं कि नागचंडेश्वर महादेव (शिवलिंग) के दर्शन करने से तीर्थयात्री शिवनिर्माल्य उल्लंघन के महापापों से मुक्त हो जाते हैं। यात्रा के यात्री एकादशी के दिन पिंगलेश्वर मंदिर पहुँचते हैं। यह यात्रा का पहला दिन होता है। वे यहां 81वें महादेव की पूजा करते हैं। यह आस्था है कि पंचक्रोशी यात्रियों को समृद्धि और बुद्धिमत्ता का आशीर्वाद मिलता है। स्वर्ग में स्थित धर्मराज भी उन्हें मान लेते हैं। द्वादशी को यात्री 82वें महादेव कायावरोहणेश्वर की पूजा करते हैं। पुराणों में कहा गया है कि इस पूजन से व्यक्ति सभी पापों से तो मुक्त होता है, जीवन-मरण के चक्र से भी छूट जाता है। उसे स्वर्ग में स्थान मिलता है।

इसके बाद यात्रीगण के मार्ग में नलवा उप-पड़ाव आता है जहाँ यात्री विश्राम करते है। अम्बोदिया में विल्वकेश्वर महादेव मन्दिर है। जैथल से यहाँ गंभीर नदी का पानी कालियादेह महल तक जाता है कालियादेह महल पर क्षिप्रा नदी के 52 कुण्ड है एवं यह स्थान बहुत ही मनोरम है। और 84वें महादेव दारदुरेश्वर को श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं। किंवदंतियों के अनुसार यह वैशाख कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को पूजन करने से तीर्थयात्रियों के पूर्वजों को भी मुक्ति मिल जाती है। अमावस्या को यात्री उज्जैन पहुँचते हैं। यात्रा में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या कहीं अधिक होती है। तीर्थयात्री अपने साथ सारा जरूरी सामान ले जाते हैं और पूरी तरह आत्मनिर्भर होते हैं। वे यात्रा में कई स्थानों पर रूकते हैं और भजन गाते हैं। ग्रामीण इस यात्रा को एक उत्सव के रूप में मनाते हैं। कई तीर्थयात्री यात्रा के दौरान सड़क के किनारे पत्थरों का ढेर लगाते देखे जा सकते हैं। यह मिथक है कि ऐसा करने से अगले जनम में उन्हें रहने को भव्य इमारतें मिलेंगी। उज्जैन की परिक्रमा के साथ 84 महादेवों की परिक्रमा भी कर लेते हैं। इन 84 महादेवों के दर्शन से 84 लाख योनियों में जन्म लेने से उनका छुटकारा हो जाता है।

पंचक्रोशी यात्रा पहले पंचकोसी कहलाती थी । उज्जैन और शिप्रा के चारों तरफ परिक्रमा ही इस यात्रा का अर्थ हैं। इस यात्रा रूपी शिव आराधना के साथ-साथ चार द्वार व तीर्थ यात्राएँ भी होती हैं, जो पंचक्रोशी की मुख्य यात्रा के समानांतर ही चलती हैं। उज्जैन का आकार चौकोर हैं और क्षेत्ररक्षक देवता महाकाल बीचों-बीच स्थित हैं। महाकालेश्वर मंदिर से एक योजन (चार-चार कोस) की दूरी पर महादेव के मंदिर हैं जो द्वारपाल कहलाते हैं। चार द्वार यात्रा में कुछ यात्री-गण पाँचों दिन एक-एक मंदिर में दर्शन कर लौट आते हैं और निरंतर पदयात्रा नहीं करते।

वहीं दूसरी तरफ अष्ट तीर्थ-यात्रा पाँचवे दिन कर्कराज से आरंभ होकर सोमतीर्थ, रणजीत हनुमान, काल भेरू, सिद्धनाथ, कालियादेह होती हुई मंगलनाथ पर अमावस्या के दिन संपन्न होती हैं। इस यात्रा के कुल 28 तीर्थ हैं जो सभी शिप्रा नदी के किनारे हैं। वे हैं कर्कराज, नृसिंह, नीलगंगा, संगम, पिशाचामोचन, गधर्वती, केदार, चक्रतीर्थ, सोमतीर्थ, देवप्रयाग, योगीतीर्थ, कपिलाश्रम, धृतकृष्या मधुकृष्या, ओखरतीर्थ, कालभैरव, द्वादशांक, दशाश्वमेघ, अंगारक, स्वर्गतासंगम, ऋणमोचन, शक्तिभेद, पापमोचन, व्यासतीर्थ, प्रेतमोचन, शवदहन तीर्थ, मंदाग्नि और पितामह तीर्थ।

इतिहास में उज्जैन की पंचक्रोशी यात्रा का वर्णन मिलता हैं, जिसके मुताबिक यह अनादि काल से प्रचलित हैं। सम्राट विक्रमादित्य को इस तीर्थ यात्रा को जीवित रखने का श्रेय हैं। मराठाओं ने इसे पुनर्जीवित किया और तब से यह यात्रा प्रसंग अब तक सतत जारी हैं। वराह पुराण के अनुसार उज्जैन को इस महाक्षेत्र का नाभि देश एवं महाकालेश्वर को प्रमुख देवता निरूपित किया गया हैं।

लाखों श्रद्धालु चिलचिलाती धूप में 24 किलोमीटर प्रतिदिन चलते हैं। हालांकि उनके चेहरे पर थकान की एक रेखा भी नहीं मिलती। अपने वर्ग, वंश और जाति को भुलाकर वे सिर्फ ईश्वर भक्त हो जाते हैं। यहाँ तक कि भीड़ में उनके नाम व पहचान भी अप्रसांगिक हो जाते हैं। तीर्थयात्री पंचक्रोशी यात्रा को बिना किसी लौकिक अथवा अलौकिक उद्देश्य से पूरा करते हैं। यात्रा की एक अन्य विशेषता यह है कि आमतौर पर इसमें साधुओं की कोई भागीदारी नहीं होती। हालांकि कुछ साधु यात्रा में भाग लेते हैं पर वह भी ग्रामीणों के निवेदन पर।

प्रशासन यात्रा मार्ग पर रियायती मूल्य की वस्तुओं की दुकानें लगाकर प्रबंध में योगदान देता है। दुग्ध संघ हर पड़ाव पर दूध उपलब्ध कराता है। इसी प्रकार पेयजल और चलित चिकित्सा सुविधाओं की व्यवस्था भी हो जाती है।