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पिता

“पिता ”
आरज़ू का दिल है,
आरिज़ पर मुस्का का तिल है,
अन्दर से पंखुड़ी सा कोमल,
ऊपर से कठोर,
रामसेतु सा पुल है।
ये एक पिता है।

बिन पैसे बच्चों के लिए खिलौने लाता है,
जिम्मेदारी अनकहे निभाता है,
कड़ी धूप में परिवार कि छांव है,
शतरंज कि जीत अब समझ आती है,
हारकर हर बाज़ी जो मुस्काता है,
ये एक पिता है।

मार-मार कर पत्थर को हीरा बनाता है,
जौहरी ऐसा नसीब वालों को मिलता है,
डांट का मतलब आज समझ में आता है,
मोटी रकम जब सेठ देता है।
स्वयं को भूल हमें बनाता है,
ये एक पिता है।

अल सुबह घर में ख्वाहिशों का ढेर देखता है,
पहर दर पहर फिर भागा दौड़ी करता है,
शाम को चाकलेट ले जाने के लिए जेब टटोलता है,
खाली जेब अवसाद से भर देती,
दुकान पर उधार लिखवाकर ,
बच्चे को जो मुस्कान देता है,
इतना अमीर सिर्फ,
एक पिता है।

हर रात एक चिंता का बसेरा रहता है,
गुड़िया कल कौनसी फ्रॉक पसंद करेगी,
इसी उधेड़बुन में खोया रहता है।
लाल, गुलाबी,नीले,पीले ,
कौनसे रंग उस पे लगेंगे सजीले,
कईं अरमां बुनता रहता है।
रात जिसकी इतनी इन्द्रधनुषी हो,
वो एक पिता है।

मुसीबत में जब कोई सहारा न मिला,
बचपन के सबक से ही हर सवेरा था,
हर याद पर आपका पहरा था।
वक्त का जवाब जब मिला,
अहमियत जिसकी समझ आई,
वो एक पिता है।
कहते हैं किस्मत हाथ कि लकीरों में हैं,
मुझे मोहब्बत हर लकीर से है,
न जाने कौनसी लकीर में बसते,
एक पिता है।

जो चाहूं वो मिल जाए,
ये मुमकिन नहीं,
नसीब तो नसीब है,
पिता का घर नहीं।
न जाने कौनसी उंगली पकड़कर चलना सिखाया था,
रिश्तों की ऊन से प्रेम के गोले बनाना सिखाया था,
न जाने कौनसी पेंजनीया से पांव सजाए थे,
दहलीज़ भी हम पार कर गये थे ।

मेरा सम्बल,मेरा अभिमान,
मेरा विश्वास,मेरी पहचान,
मेरी शोहरत,मेरा रुतबा,
मेरी बलाओं को हरने वाला,
वो दरख़्त है,
एक पिता।

शिखा अग्रवाल, भीलवाड़ा