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हिंदी पत्रकारिता के खून में एफडीआई बहने लगा है

अंग्रेजी इस बात में तो आरंभ से सतर्क रही और उसने हिंदी का अन्य भारतीय भाषाओं से सहोदरा संबंध बनाने ही नहीं दिया, उल्टे वैमनस्य और अदम्य वैरभाव को बढ़ाये रखा- लेकिन, हिंदी की, अपनी बोलियों से जड़ें इतनी गहरी बनी और रही आयीं कि उसको वहां से उखाड़ना मुश्किल रहा। बहरहाल, ये काम अब मीडिया ने अपने हाथ में ले लिया है।

बोलियों का संहार करने में, जो काम इलेक्ट्रॉनिक-मीडिया कर रहा है, उसे दस कदम आगे जाकर हिंदी के अखबार कर रहे हैं, जो अखबार साढ़े तीन रुपए में बिकते हुए जानलेवा आर्थिक कठिनाई का रोना रो रहे थे,वे अब एक या डेढ़ रुपए में चौबीस पृष्ठों के साथ अपनी चिकनाई और रंगीनी बेच रहे हैं। स्पष्ट है, यह विदेशी चंचला धनलक्ष्मी है। क्या ये लोग नहीं जानते कि यह पूंजी ‘अस्मिताओं’ का ‘विनिमय’ नहीं, बल्कि अस्मिताओं का सीधा-सीधा ‘अपहरण’ करती हैं। यह अखबारों को अपनी ‘हवाई सेना’ बनाकर, ‘विचारों का विस्फोट’ करती है, और विस्फोट वाली जगह पर थल-सेना कब्जा कर लेती है। इसी के चलते अखबार ‘बाजारवाद’ के लिए जगह बनाने का काम कर रहे हैं। वे पहले ‘विचार’ परोसते थे, अब ‘वस्तु’ परोस रहे हैं- अलबत्ता, खुद ‘वस्तु’ बन गए हैं।

इसी के चलते अखबारों में संपादक नहीं, ब्रैंड-मैनेजर बरामद होते हैं। अखबारों की इस नई प्रथा ने, ‘मच्छरदानी’ की ‘सैद्धान्तिकी’ का वरण कर लिया है। कहने को वह ‘मच्छर-दानी’ होती है परन्तु उसमें मच्छर नहीं होता। वह बाहर ही बाहर रहता है। ठीक इसी तरह अखबार में अखबारनवीस को छोड़कर, सारे विभागों के भीतर सब वाजिब लोग होते हैं। बस सम्पादकीय विभाग में सम्पादक नहीं होता। इसीलिए, आपस में पत्रकार बिरादरी एडिटोरियल को एडव्हरटोरियल विभाग कहती है। अब इस मार्केट-ड्राइवन पत्रकारिता में सम्पादकीय-विभाग, विज्ञापन-विभाग का मातहत है। यहां तक कि प्रकाशन योग्य सामग्री भी वही तय करता है।

यों भी सम्पादकीय पृष्ठ दैनिक अखबारों में अब बुद्धिजीवियों के वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए नहीं, राजनीतिक दलों के ‘व्यू-पॉइंट’ (?) के लिए आरक्षित होते जा रहे हैं। वे राजनीतिक जनसंपर्क हेतु सुरक्षित पृष्ठ हैं। यह उसी पूंजी के प्रताप का प्रपात है, जो बाहर से आ रही है। ऐसे में निश्चय ही वे हड़का कर पूछना चाहें कि बताइए भला यह कैसे हो सकता है कि आप पूंजी तो हमारी लें और ‘भाषा और संस्कृति’ आप अपनी विकसित करें? यह नहीं हो सकता। हमें अपने साम्राज्य की सहूलियत के लिए ‘एकरूपता’ चाहिए। सब एक-सा खायें। एक-सा पीयें। एक-सा बोलें। एक-सा लिखें-लिखायें। एक-सा सोचें। एक-सा देखें। एक-सा दिखायें। तुम अच्छी तरह से जान लो कि यही संसार के एक ध्रुवीय होने का अटल सत्य है। हमारे पास महामिक्सर है- हम सबको फेंट कर ‘एकरूप’ कर देंगे। बहरहाल, उन्होंने भारत के प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को अपना महामिक्सर बना लिया। इसलिए, अब अखबार और अखबार के बीच की पहले वाली यह स्पर्धा जो धीरे-धीरे गला काट हो रही थी अब क्षीण हो गयी है।

चूंकि अब वे सब एक ही अभियान में शामिल, सहयात्री हैं। उनका अभीष्ट भी एक है और वह है, ‘वैश्वीकरण’ के लिए बनाए जा रहे मार्ग का प्रशस्तीकरण। सो आपस में बैर कैसा? हम तो आपस में कमर्शियल-कजिन्स हैं। आओ, हम सब मिलकर मारें हिंदी को। अब भारत की असली हिंदी पत्रकारिता हिंदी की ऐसी ही आरती उतार रही है।

यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि आज जिस हिंदी को हम देख रहे हैं- उसे ‘पत्रकारिता’ ने ही विकसित किया था, क्योंकि, तब की उस पत्रकारिता के खून में राष्ट्र का नमक और लौहतत्व था जो बोलता था। अब तो खून में लौह तत्व की तरह एफडीआई (फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेन्ट) बहने लगा है। अतः वही तो बोलेगा। उसी लौहतत्व की धार होगी जो हिंदी की गर्दन उतारने के काम में आएगी।

हालांकि, अखबार जनता में मुगालता पैदा करने के लिए वे कहते हैं, पूंजी उनकी जरूर है, लेकिन चिन्तन की धार हमारी है। अर्थात सारा लोहा उनका, हमारी
होगी धार। अर्थात भैया हमें भी पता है कि धार को निराधार बनाने में वक्त नहीं लगेगा। तुम्हीं बताओ, उन टाइगर इकनॉमियों का क्या हुआ, जिनसे डरकर लोग कहने लगे थे कि पिछली सदी यूरोप या पश्चिम की रही होगी, यह सदी तो इन टाइगरों की होगी। कहां गए वे टाइगर? उनके तो तीखे दांत और मजबूत पंजे थे। नई नस्ल के ये कॉर्पोरेटी चिन्तक रोज-रोज बताते हैं- हिन्दुस्तान विल बी टाइगर ऑफ टुमॉरो।

(प्रभु जोशी वरिष्ठ लेखक पत्रकार व चिंतक हैंं)

साभार- http://samachar4media.com/ से