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भूल जाइए कि सब कुछ फिर पहले जैसा हो जाएगा… !

देश के आर्थिक हालात बेहद खराब हैं। सुधरने की गुंजाइश कम है। करोड़ों लोग बेकार और बेरोजगार बैठे हैं। भूल जाइए कि जिंदगी फिर गुलजार होगी। इसलिए, जो कुछ आपके पास है उसे बचाकर रखिए, आगे काम आएगा। अगर आप सोच रहे हैं कि कोरोना की वैक्सिन के आते ही सब कुछ फिर से ठीक हो जाएगा, तो भूल जाइए। हालात सुधरने में पांच साल से भी ज्यादा का वक्त लग सकता है।

हमारे हिंदुस्तान में अब बहुत कुछ पहले जैसा नहीं होगा। बहुत कुछ बदल गया है। एकदम उलट हालात में चला गया है। फिर भी आपको, अगर लग रहा हो कि फिर से वही पुरानेवाले दिन आ जाएंगे। सब कुछ पहले जैसा होगा। जीना आसान होगा और हालात सुधरेंगे। तो भूल जाइए। कम से कम 5 साल तक तो यह सब दिमाग से बिल्कुल ही निकाल दीजिए कि जिंदगी फिर से ठीक ठाक हो जाएगी। वैसे हम भगवान भरोसे जीने वाले देश हैं। मान्यताओं के मुताबिक जीते हैं। जो, सब कुछ हरि इच्छा के नाम कर देते हैं। हमारी इसी मान्यता को मान देते हए हमारी वित्त मंत्री निर्मला सीतारामन तक ने भी कह दिया है कि देश में जो हालात हैं, वह ‘एक्ट ऑफ गॉड’ है… मतलब भगवान की मर्जी है। अर्थात, सब कुछ भगवान भरोसे।

वैसे, तो हमारे ज्यादातर लोगों को जीडीपी क्या होती है, इसकी बिल्कुल समझ नहीं है। समझने से फायदा भी क्या। भोली जनता को जीडीपी समझने के लिए जितना दिमाग लगाना पड़ेगा, उतना दिमाग दो जून रोटी कमाने में लगा लेंगे, तो जीवन सफल हो जाएगा। लेकिन फिर भी जानना जरूरी है, तो आइए, सबसे पहले जानते है कि यह जीडीपी क्या बला है। दरअसल, जिस तरह स्कूल की मार्कशीट से पता चलता है कि छात्र किस विषय में मजबूत है और किसमें कमज़ोर, उसी तरह जीडीपी हमारी आर्थिक गतिविधियों का आंकलन है। साल भर में अर्थव्यवस्था ने कितना अच्छा या खराब प्रदर्शन किया है। अगर जीडीपी डेटा कम है, तो मतलब यह है कि अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही है। क्योंकि पिछले साल के मुकाबले उस अवधि में पर्याप्त उत्पादन नहीं हुआ और सेवा क्षेत्र में भी गिरावट रही। इसीलिए जीडीपी का कम होना, मतलब बरबादी की तरफ बढ़ना। पिछली 31 अगस्त को जीडीपी के अप्रैल, मई और जून, इन तीन महीनों के जो आंकड़े जारी हुए, वे बहुत, बहुत और बहुत चिंताजनक है। क्योंकि जीडीपी का यह ग्राफ शून्य यानी भूतल से भी बहुत नीचे रसातल की तरफ 23.90 फीसदी नीचे गिर गया है।

अर्थशास्त्रियों ने सरकार को बहुत पहले से चेताना शुरू किया था। कहा था कि चार साल से जीडीपी लगातार घटती जा रही है। सन 2016 में हमारी जीडीपी साढ़े 8 और साढ़े 9 फीसदी पर थी। लेकिन, लगातार गिरते-गिरते बेसलाइन से भी 23.90 फीसदी नीचे पहुंच गई। मतलब, हमारी जीडीपी रसातल में पहुंच गई है। सरकार ने सिर्फ जीडीपी को गिरते हुए देखने का काम किया, उसे बचाने, स्थिर करने या बढ़ाने का कोई रास्ता ही नहीं खोजा। अर्थशास्त्री मानते हैं कि सरकार की तरफ से खपत बढ़ाने के लिए कदम उठाने चाहिए थे। जबकि सरकार डिमांड बढ़ाने की कोशिश करती रही। कोरोना नहीं आता, तो भी तो हम गिर ही रहे थे। बचने के हालात नहीं थे। मारवाड़ी में एक कहावत है – ‘रो रही थी, और पीहरवाले मिल गए, सो, रोने का बहाना भी मिल गया’। सरकार को जीडीपी का बरबादी का ठीकरा कोरोना के माथे फोड़ने का बहाना मिल गया। हम गिरते रहे, रसातल की ओर जाते रहे। फिर कोरोना ने हमें टक्कर मारी, तो हम अचानक खड्डे में गिरते – गिरते गहरी खाई की तरफ लुढ़क गए।

वित्त, व्यापार, उद्योग, बाजार, उत्पाद, व्यय, लागत, मुनाफा और ऐसे ही बहुत सारे तत्वों को मिलाकर जो कुछ बनता है, उस अर्थ जगत के जानकारों की राय में भारत जैसे अल्प और मध्यम आयवाले देश के लिए साल दर साल अधिक जीडीपी का विकास हासिल करना जरूरी है। जिससे देश की बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा किया जा सके। बीते चार साल से लगातार नौकरियां जा रही थी और व्यापार भी बरबाद हो रहा था। लेकिन कोरोनाकाल में लॉकडाउन की वजह से एक झटके में धंधे बंद हुए, तो 22 करोड़ लोग बेकार हो गए। अप्रेल से जून के तीन महीनों में कुल 1 करोड़ 89 लाख लोगों की नौकरियां छिन गईं। 3 करोड़ लोग से ज्यादा आधी तनख्वाह पर काम करने को मजबूर हैं।

यही हालात आनेवाले पांच साल तक रहेंगे। बाजार खुलेंगे, तो ट्रेडिंग शुरू होगी, ऐसे में व्यापारी खुश होंगे। लेकिन यह खुशी भी लंबी नहीं होगी। क्योंकि जब खरीदने को ही पैसा नहीं होगा, तो बिकेगा क्या। और जब बिकेगा ही नहीं, तो उत्पादन क्यों होगा। इसलिए अव्वल तो हमारी कंपनियां अब 3 या 4 साल से पहले अपनी पुरानी ग्रोथ फिर से पाने की उम्मीद में ही नहीं हैं। फिर, यह भी तथ्य है कि आनेवाले 5 सालों में देश में ही नहीं दुनिया भर में शिक्षित बेरोजगारों की बहुत बड़ी फौज खड़ी होनेवाली है। क्योंकि इन सालों में शिक्षण संस्थाओं से जो छात्र पढ़ लिखकर बाहर निकलेंगे, उनको रोजगार कहीं नहीं मिलेगा। वह बेरोजगारी देश को कहां ले जाएगी, कोई नहीं जानता।

यह भी सत्य है कि देश में 15 लाख करोड़ की उत्पादक गतिविधियां हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगी। साथ ही भारत में 26 फीसदी डिमांड भी पूरी तरह समाप्त हो जाएगी। ऐसे में, जो भारत आनेवाले दिनों में हमारे सामने होगा, वह वैसा बिल्कुल नहीं होगा, जैसा इसी साल के फरवरी और मार्च 2020 तक था। मुंबई सहित देश के दूसरे शहरों, कस्बों और गांवों तक में सुबह शाम करोड़ों लोग बड़े बड़े बाजारों में टहलते, अनाप शनाप खर्च करते और बड़े-बड़े मॉल व रेस्टोरेंट में बेतहाशा पैसा उड़ाने के नजारे आगे अब जल्दी शायद ही दिखें। हालात बहुत डरावने हैं। फिर भी अगर आप मानते हैं कि सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा, तो आप धन्य है। निर्मला सीतारामन ने आप जैसों के लिए ही कहा है कि यह सब ईश्वर की मर्जी है। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शायद ईश्वर की इसी मर्जी के मारे इस मामले में चुप हैं!

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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