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शिक्षा परिसर राजनीति मुक्त नहीं, संस्कार युक्त हों

हमारे कुछ शिक्षा परिसर इन दिनों विवादों में हैं। ये विवाद कुछ प्रायोजित भी हैं, तो कुछ वास्तविक भी। विचारधाराएं परिसरों को आक्रांत कर रही हैं और राजनीति भयभीत। जैसी राजनीति हो रही है, उससे लगता है कि ये परिसर देश का प्रतिपक्ष हैं। जबकि यह पूरा सच नहीं है। कुछ मुट्ठी भर लोग भारतीय युवा और उसकी समझ को चुनौती नहीं दे सकते। देश का औसतन युवा देशभक्त और अपने विवेक पर भरोसा करने वाला है। उसे अपने देश की शक्ति और कमजोरियों का पता है। वह भावुक है, पर भावनात्मक आधार पर फैसले नहीं लेता। दुनिया की चमकीली प्रगति से चमत्कृत भी है, पर इसके पीछे छिपे अंधेरों को भी पहचानता है।

कई स्थानों से यह विमर्श सुनने में आता है कि शिक्षा परिसरों को राजनीति मुक्त कर देना चाहिए और विद्यार्थी सिर्फ पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दें। उन्हें राजनीति से क्या मतलब? जबकि यह सोच एकांगी है। देश के एक महत्वपूर्ण छात्र संगठन का मानना है कि “छात्र कल का नहीं, आज का नागरिक है।” अतएव छात्र शक्ति को सही मार्गदर्शन देते हुए राष्ट्रहित में उसका योगदान सुनिश्चित करना जरूरी है। हम एक लोकतांत्रिक समाज में रहते हैं, हमारे परिसर भी इसी व्यवस्था का हिस्सा हैं। राजनीति, छात्रों का इस्तेमाल कर अपने वोट बैंक को मजबूत तो करना चाहती है, किंतु छात्रसंघों के चुनाव अनेक राज्यों में प्रतिबंधित हैं। छात्रसंघों से राजनीति और सत्ता को घबराहट होती है। यहां तक कि जो राजनेता छात्रसंघों के माध्यम से राजनीति में आए, वे भी छात्रसंघों के प्रति उदार नहीं हैं।

होना यह चाहिए कि छात्रसंघ विद्यार्थियों के सांस्कृतिक, वैचारिक और राजनीतिक रूझानों के विकास में सहायक बनें। ताकि छात्र नेतृत्व और उसकी गंभीरता को समझकर अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकें। छात्रसंघ और छात्र राजनीति कहीं न कहीं इस भूमिका से विरत हुयी है, इसलिए देश के राजनेताओं व अन्य प्रशासकों को इनका गला दबाने का अवसर मिला। कहा जाता है कि इसके चलते परिसर में तनाव और हिंसाचार भी बढ़ता है। हम देखते हैं कि जब अनेक बुराइयों के बावजूद भी हम संसदीय राजनीति के खिलाफ नहीं हो जाते, बल्कि उसमें सुधार का ही प्रयास करते हैं। इसी तरह छात्रसंघों के रचनात्मक इस्तेमाल की भूमिका बनाने के बजाए, उनका गला दबा देने का विचार लोकतांत्रिक नहीं है। हमें देखना होगा कि छात्र संगठन क्यों राजनीतिक दलों के हस्तक बन रहे हैं। सभी प्रकार के आंदोलनों की तरह छात्र आंदोलन भी मर रहे हैं। विचारधारा के आधार पर विभाजित राजनीति कब पंथ और जाति की गलियों में भटक जाती है, कहा नहीं जा सकता।

ऐसे समय में शिक्षकों, शिक्षाविदों और परिसरों को जीवंत देखने की आकांक्षा रखने वाले लोगों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। सत्ता- राजनीति तो चाहती ही है कि परिसरों में फेयरवेल पार्टियां हों, फ्रेशर्स पार्टियां हों, मनोरंजन प्रधान आयोजन हों। किंतु ऐसे आयोजन जिससे बहस का प्रारंभ हो, नए विचार सृजित हों-उन्हें किए जाने से परिसरों के अधिपति घबराते हैं। एक लोकतंत्र में होते हुए हमें असहमतियों के लिए स्थान बनाना होगा। विमर्शों को जगह देनी होगी और असुविधाजनक सवालों के लिए भी तैयार रहना होगा। एक लोकतंत्र का यही सौंदर्य है और यही उसकी ताकत भी है। विद्यार्थियों को इस तरह से तैयार करना कि वे भावी चुनौतियों से टकराने का साहस अर्जित कर सकें, जरूरी है। यहां यह कहना आवश्यक है कि यह सारा कुछ अपने तिरंगे और देश को मजबूत करने के लिए होगा। देश को तोड़ने और खंडित करने वाले विचारों के लिए, यहां जगह नहीं होनी चाहिए- अगर ऐसा होगा तो परिसर आतंक की जगह बनेंगे। राज्य की ताकत को हम जानते हैं, इसलिए परिसर विमर्शों का केन्द्र तो बनें, किंतु देशतोड़कों की पनाहगाह नहीं। अपने शोध-अनुसंधान और शिक्षण-प्रशिक्षण से हमें इस देश को बनाना है, बर्बाद नहीं करना है, यह सोच हमेशा केन्द्र में रहनी चाहिए। कोई भी विश्वविद्यालय अपने अध्यापकों और विद्यार्थियों के अवदान से ही बड़ा बनता है। हमें हमारे परिसरों को जीवंत बनाने के लिए इन्हीं दो पर ध्यान देना होगा। ऊर्जावान, नए विचारों से भरे हुए अध्यापक ही अपने विद्यार्थियों को नई रोशनी दे सकते हैं। वे ही नवाचारों के लिए प्रेरणा बन सकते हैं।

एक विद्यार्थी जब किसी भी परिसर में आता है तो एक उम्मीद के साथ आता है। उसे अपने दल का कैडर बनाने के बजाए, एक विचारवान नागरिक बनाना, शिक्षकों का पहला कर्तव्य है। वे उसे आंखें दें पर उधार की आंखें न दें। शिक्षकों का यह कर्तव्य है कि वे चाणक्य बनें और उनके विद्यार्थी चंद्रगुप्त। अध्यापकों के सामने सर्वश्री डा. राधाकृष्णन, हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डा.एपीजे अबुल कलाम, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, श्यामाचरण दुबे, विद्यानिवास मिश्र जैसे अनेक उदाहरण हैं, जिनके सानिध्य में जाकर कोई भी साधारण बालक भी एक असाधारण प्रतिभा में बदल जाता है। विद्यार्थी के इस रूपांतरण के लिए ऐसे शिक्षकों का राष्ट्र भी आदर करता है। गुरू-शिष्य परंपरा ऐसी हो, जिससे राष्ट्र के लिए हर क्षेत्र में नायक गढ़े जाएं।

सही बात तो यह है कि कुछ शिक्षकों को यह खबर ही नहीं कि उनके विद्यार्थी क्या कर रहे हैं, वे एक वेतन भोगी कर्मचारी की तरह अपनी कक्षा को बहुत निरपेक्ष तरीके से करते हुए, बस जिए जा रहे हैं तो कुछ ऐसे हैं, जिन्हें अपनी कक्षा से ही अपनी विचारधारा के लिए वैचारिक योद्धा और अपने राजनीतिक दल के लिए कैडर गढ़ने हैं। ऐसी दोनों प्रकार की अतियां गलत हैं। हमारी शिक्षा और उकसावे से हमारे किसी विद्यार्थी का जीवन बदल जाए तो ठीक है पर बिगड़ जाए तो…। हमारे क्रांतिकारी विचार उसे जेल की यात्राएं करवा दें, तो विचार करना होगा कि हमने शिक्षा में क्या गड़बड़ की है। हमारे विद्यार्थी हमारी अपनी संतानों की तरह हैं। हम उनसे वही अपेक्षा करें, वही मार्ग दिखाएं जिस पर हमारी अपनी संतानों के चलने पर हमें आपत्ति न हो। यही एक ही सूत्र है जो हमारी खुद की परीक्षा के लिए काफी है। हमारे विद्यार्थी बहुत सी उम्मीदों, आशाओं, आकांक्षाओं और सपनों के साथ परिसर में आते हैं। उनके सपनों में रंग भरने की उन्हें ताकत देना, हम शिक्षकों की जिम्मेदारी है। दिल पर हाथ रखकर सोचिए कि क्या हम उनके साथ ऐसा कर पा रहे हैं। परिसरों को राजनीति मुक्त नहीं, संस्कार युक्त बनाकर ही हम देश की प्रतिभाओं को उचित मंच दे पाएंगे। हम शिक्षकों ने आज ही यह शुरूआत नहीं की, तो कल बहुत देर हो जाएगी।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

– संजय द्विवेदी,
अध्यक्षः जनसंचार विभाग,
माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,
प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल-462011 (मप्र)
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