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अच्छा मुहूर्त

इस बार गर्मियों की छुट्टियों में दो-एक सप्ताह के लिए घर जाने की इच्छा को मैं टाल न सका। वह भी समय था जब मैं वर्ष में दो-दो बार घर जाया करता … | जैसे-जैसे गृहस्थी बढ़ती गई वैसे-वैसे मेरे घर जाने की आवृत्ति में भी कमी आती गई ..! अब तो तीन-तीन, चार-चार वर्षों तक घर जाने की फुर्सत ही नहीं मिलती। कभी बच्चों की परीक्षाएँ तो कभी खुद के काम, कभी रिज़रवेशन नहीं तो कभी तबियत खराब । कुल मिलाकर उम्र ढलने के साथ-साथ बाहर आने-जाने में एक तरह से पाबन्दी-सी लग गई।

मगर इन गमियों की छुट्टियों में मेरे घर जाने का निर्णय यद्यपि बहुत-कुछ मेरा अपना था, किन्तु इस निर्णय को साकार करने में मेरी श्रीमतीजी की खासी भूमिका रही। दरअसल, दो-एक दिन पूर्व मेरी माताजी उन्हें सपने में दीखी थीं और कहा था :’बहुत दिनों से देखा नहीं तुम लोगों को … | इन गर्मियों की छुट्टियों में जरूर आना … दोनों आ जाना। खूब याद आती है तुम सब की।’

अगले दिन जब यह बात मेरी श्रीमतीजी ने भावुक होकर मुझ से कही तो मेरे सामने भाभी यानी माँ का चित्र यादों की परतों को चीरता हुआ उभर आया। दया-ममता और निःस्वार्थ भावना की ऐसी मूरत जिसने शायद ही किसी का दिल दुखाया हो। जिसने शायद ही कभी अपनी चिन्ता की हो … । कर्मयोगिनी की साक्षात् प्रतिमूर्ति ! रिज़रवेशन कराकर हम अगले सप्ताह घर पहुँचे। हमें देखकर माँ के चेहरे पर अकथनीय प्रसन्नता के भाव तिर आए। ऐसी प्रसन्नता जिसका न मोल हो सकता है और न विकल्प। एक तरह से दो आत्माओं का मिलन या फिर खण्ड का सम्पूर्ण से साक्षात्कार । मौन भाषा में माँ बहुत-कुछ कह गईं। जीवन-संघर्ष की कहानी, अपने दुःख-दर्द की कहानी, मेरी कहानी, अपनी कहानी, सब कुछ। मुझे लगा कि उसकी इस अभिव्यक्ति में परमतृप्ति और सुख के भाव निहित हैं। श्रीमतीजी ने जब साड़ी दी तो उसे आँखों से लगाते हुए माँ भाव-विह्वल होकर बोलीं:

‘बहू, अब इस बुढ़ापे में मुझे कहाँ जाना है नई साड़ी पहनकर …?’

‘ये हैदराबाद गये थे … वहीं से लाए हैं आपके लिए।‘

‘अच्छा, हैदराबाद से लाया है। रंग बहुत ही अच्छा है। चलो, किसी अच्छे मुहूर्त पर पहनूंगी’, कहकर माँ ने एक बार फिर साड़ी को चूमा और आँखों से लगाया। स्टेशन से आते समय मैंने कुछ समोसे ले लिये थे, यह सोचकर कि माँ को गर्मागर्म समोसे बहुत अच्छे लगते हैं। चटनी के साथ वह समोसे बड़े चाव के साथ खाती है, यह मुझे मालूम था … | चाय के साथ समोसे हम सब ने खाए …। खूब बातें हुई। अड़ोस-पड़ौस की, रिश्तेदारों की, शादी-ब्याहों की आदि-आदि … | माँ जैसे इस गप-शप व उल्लास भरे माहौल के लिए बहुत दिनों से तरस रही थी। इस बीच मुझे लगा कि माँ बराबर मुझे तके जा रही है। मेरे चेहरे, -मेरे कपड़ों, मेरी चेष्टाओं तथा मेरी बातों को वह बड़े मुग्ध-भाव से देख-सुन रही है। उसकी आँखों से मुझे स्नेह-ममता का पारावार उमड़ता हुआ नज़र आया। मुझे एहसास हुआ कि माँ मूक-वाणी में मुझ तक कोई सन्देश पहुँचाना चाहती है, जो मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।

पिताजी इस बार मुझे कुछ ज़्यादा ही कमज़ोर दिखाई दिए। मगर हमें देख वे भी अत्यधिक हर्षित थे। सन्ध्या के समय सब ने मिलकर भजन किया। करताल की ध्वनि पर गाये साईं–भजनों ने संपूर्ण परिवेश में जैसे दिव्यता भर दी। पिताजी को बहुत वर्षों के बाद तल्लीनता की मुद्रा में देख मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। माँ मग्न होकर भजन गा रही थी। — उसका साथ मोना, छोटे भाई की लड़की, बखूबी दे रही थी। कभी ऊँचे स्वर में तो कभी धीमे स्वर में, कभी एक मुद्रा में, तो कभी दूसरी मुद्रा में। इस बीच जब कभी मेरी नजरें माँ से टकराती तो वह हल्का सा मुस्करा देती। उस मुस्कराहट में मुझे अलभ्य ममता और करुणा की भावराशि अंकित दिखाई पड़ती। कभी मुझे भरपूर नजरो से देखती तो कभी भगवान् के चित्र को- कभी भगवान् के चित्र को, तो कभी मुझे… । यह क्रम बराबर चलता रहा। भजन की समाप्ति पर मुझे माँ के चेहरे पर असीम शांति और परितृप्ति के भाव दिखाई दिए। माँ मुझे देखकर क्यों भगवान् के चित्र को बार-बार निहारती, यह मैं उस समय समझ न पाया।

रात का खाना माँ ने स्वयं सब को परोसा। कई वर्षों के बाद माँ के सान्निध्य में बैठकर खाना खाते समय मन-प्राण जैसे पुलकित हो उठे। माँ हम सब के बीच में बैठ गई और विभोर होकर हमारी थालियों में साग-सब्जी, चावल आदि परोसती गई। हमारे रोकने पर भी वह रूकी नहीं। कभी रायता, कभी सब्जी और कभी चावल डालती गई … | मेरी श्रीमतीजी से माँ बोली:

‘ले, दो-चार कौर मैं तुझे खिलाती हूँ। बहुत दिनों के बाद आई हो इस बार, जाने फिर कब मिलना हो …।’

सोने से पहले माँ ने खुद हम सब के बिस्तरों की जाँच कर ली … | मेरे ऊपर एक कम्बल और डाल दिया। सिर पर हाथ फेर कर कमरे की बत्ती बुझा दी। थकान की वजह से मुझे नींद जल्दी आ गई।

रात के बारह बजे के आसपास छोटे भाई ने मुझे जगाया। माँ की तबियत अचानक खराब हो गई थी … | मारे पीड़ा के वह कराह रही थी। कभी पेट की तरफ इशारा करती, तो कभी छाती की तरफ। माथे पर पसीना खूब झलक आया था। मैंने माँ का सिर अपनी गोदी में ले लिया। क्षण प्रति क्षण माँ की पीड़ा बढ़ती ही गई। साँस धौंकनी की तरह चलने लगी। सभी बेबस-से माँ के इर्दगिर्द एकत्र हो गए। माँ एकटक सभी को निहार रही थी। पिताजी पर भरपूर नजर डालकर तथा हम सब को आखिरी बार देखकर माँ ने हमेशा के लिए आँखे मूंद लीं।

कुछ दिन बीत जाने के बाद दान में अन्य सामग्री के साथ-साथ जब मेरी श्रीमतीजी ने वह साड़ी पंडितजी को दी, जो मैं हैदराबाद से माँ के लिए लाया था, तो सब की आँखें भर आई। मैं अपने आँसुओं को रोक न पाया। मुझे माँ की वह बात याद आई:

‘अच्छा रंग है, किसी म मुहूर्त पर पहनूँगी इसे।’

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शिवन कृष्ण रैणा
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अलवर