1

नोआखली में हिन्दुओं के नरसंहार का बदला लेने वाले गोपाल पाठा

बात 16 अगस्त की है, मुसलमानों ने *कलकत्ता* व आसपास के क्षेत्रों में जघन्यता व बेरहमी से हिन्दुओं का कत्ल किया था, यह कथानक तो सब पढ़ समझ ही चुके होंगे, कहानी इसके बाद की है, अगले दिन 17 अगस्त को हिन्दुओं की इस जघन्य सामूहिक हत्या, लूटपाट और बलात्कार की खबर कलकत्ता के एक खटीक तक पहुँची, ये थे – *गोपाल पाठा*, उनका वास्तविक नाम *गोपाल मुखर्जी* था परन्तु बकरे का माँस विक्रय करने के कारण उनका नाम ‘गोपाल पाठा’ प्रसिद्ध हो गया था, *पाठा* बंगाली में बकरे को कहते हैं। उनके घर के सामने एक पान की दुकान थी, *Direct Action Day* के दिन जिहादी मुसलमानों ने उनके घर के सामने दंगा किया, गन्दगी का ढेर घर के दरवाज़े पर लगाकर आग लगा दी तथा पान की दुकान भी जला दी। घर की महिलाएं दरवाजा अन्दर से बन्द करके घर के अन्दर ही बैठी रहीं। परन्तु गोपाल पाठा के मुहल्ले के पुरुष रक्त से साहसी थे, जब वे प्रतिकार हेतु केवल इकट्ठा भर हुए, तो उस जिहादी भीड़ ने उल्टे पैर रास्ता पकड़ लिया, *खटिकों से भिड़ने के लिए देह कटानेवाला साहस चाहिए जो इन महालोलुप, भोगी, कपटी जिहादियों के पास हो ही नहीं सकता था*।

गोपाल पाठा जानते थे कि शहर के एक कोने से आरम्भ हुई आग अपने घर तक पहुँचेगी ही। उनके ही समान उनका एक और मित्र थे *जुगल चन्द्र घोष*, ये एक अखाड़ा चलाते थे, इसमें स्थानीय लड़के पहलवानी किया करते थे, जुगलजी के प्रति उनके लड़के समर्पित थे तथा गुरु भाव होने के कारण उनकी आज्ञा अकाट्य रूप से मानते थे। जुगल घोष के ही साथ एक वाहन में गोपाल पाठा 17 अगस्त की सुबह इस क्रूर हत्याकाण्ड का वीभत्स दृश्य देखने निकल पड़े, उन्होंने जो देखा वो सब दुहराने की आवश्यकता नहीं है। गोपाल पाठा ने जो कुछ भी देखा, सुना, समझा उससे अर्जित अपार दु:ख व क्रोध से उन्होंने जुगल घोष से केवल एक बात कही *”तुम देखना, इसका भयंकर प्रतिशोध होगा”*

गोपाल पाठा केवल खटीक ही नहीं थे, उन्होंने प्राकृतिक विपदा के समय लोगों की सहायता के लिए एक राष्ट्रीय संगठन बनाया था जिसमें नवयुवकों को सम्मिलित किया गया था, वे *सुभाष चन्द्र बोस* के घोर समर्थक थे तथा क्रान्तिकारियों से भी उनका मेलजोल था।


वापस लौटकर उन्होंने अपने मोहल्ले के पुरुषों को इकट्ठा किया, फिर अपने संगठन के लड़कों को, फिर जुगल घोष के अखाड़े के पहलवानों को, जिसे जो बेहतर हथियार मिला उसे वही लेकर आने को कहा गया। ये सभी पुरुष डण्डे, rod, फावड़े, छोटे-बड़े हथौड़े, कुदाल, टंगिया, खुरपी, छेनी, चाकू, फरसे, हँसिया, गंडासे, गैंती, धारदार चाकू और तलवारें, यहाँ तक कि चारपाई खटिया के पाए भी, लेकर एक हिन्दू लड़ाके बन गए थे जिनके क्रोध की सीमा नहीं थी। इसके बाद जिन-जिन दुकानों को लूट लिया गया था उन मारवाड़ियों से, जिन फैक्टरी और saw mill को लूटा जाना था उनके मालिकों से उसकी सुरक्षा हेतु, धन इकट्ठा किया गया। उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था जिसके चलते बंगाल में नीग्रो सैनिकों का भी पड़ाव होता था, इन सैनिकों से पैसे के बदले बन्दूकें, grenades तथा गोलियाँ मिलीं। अन्त में हर उस हिन्दू को दल में शामिल किया गया जो बच गया था, जिसने अपने लोगों को मरते-कटते बलात्कार होते देखा था, जिसने अपने पड़ोसी मुसलमान को धोखा देते अपना सब कुछ लूटते देखा था। ये सब उन जिहादियों को जानते थे, इनका मुख्य कार्य ही उन विश्वासघातियों की पहचान करना था।

अब गोपाल पाठा ने इन धधकते हिन्दुओं से कहा, *”हिन्दुओं के शव गिनो, देखो कि उन्हें कैसे मारा गया है, मैं हर एक हिन्दू के बदले इन दस जिहादी मुसलमानों की लाशें चाहता हूँ। जब तक तुम एक के बदले दस नहीं मार डालोगे तब तक ये रुकेगा नहीं। अगर हिन्दू के शरीर में पाँच घाव दिखाई दें तो मुसलमान के शरीर में पचास घाव करो।”*

इस प्रकार का एक दल हर हिन्दू मुहल्ले में सुनियोनित तरीके से गुप्त प्रकट रूप से बना दिया गया। मुसलमानों ने यह सोचा नहीं था कि हिन्दुओं में इस तरीके का प्रतिरोध तैयार हो चुका है।


18 अगस्त की सुबह उन्होंने फिर हमला किया। हृदय में क्रोध की भट्टी लिए तथा बुद्धि में शत्रु के समूल विनाश का लक्ष्य लिए हिन्दू पूरी तरह तैयार थे, हिन्दू लड़ाकों ने इतनी जोर का जवाबी आक्रमण किया कि मुसलमानों की आँखें हैरत से फटते फटते रह गईं, किसी ने तलवार के जोरदार वार से उनकी खोपड़ी फाड़ दी, तो किसी ने टंगिया से उनका चेहरा फाड़ दिया, किसी ने हथौड़े से उनका सिर फोड़कर भेजा निकाल फेंका तो किसी ने फरसे से उनका सीना चीर दिया। एक ने गंडासे से जिहादियों का झटका करना प्रारम्भ कर दिया तो दूसरे ने गैंती से इनकी पीठ ही खोद डाली। जो अधमरे गिर पड़ते उनकी पसलियों में हँसिया घुसेड़ के घसीटा जाता और गंडासेवाले के पास आने पर उसका सिर उड़ा दिया जाता। जिन्होंने कभी हिन्दुओं के घर लूटे, बर्बरता से हत्या की, क्रूर बलात्कार किया उन जिहादियों के पेट हिन्दू लड़ाकों ने फरसे से फाड़ डाले तथा अपने हाथों से उनकी अंतड़ियाँ निकालकर उन्हीं के मुँह में ठूँस दीं, जिहादियों के पैर अपनी चेतना भूल गए, आधे तो वहीं मार डाले गए जो वापस भागने लगे उन्हें इन नरसिंहों ने दौड़ाना आरम्भ किया। यदि किसी हिन्दू को चोट आती भी थी तो उसे उसका पता भी नहीं चलता था, क्रोध तथा प्रतिशोध की भावना इतनी प्रबल थी, किसी भी जिहादी को छोड़ना अब उन्हें गँवारा नहीं था, जब तक वो वापस अपने इलाके में पहुँचते इससे पहले ही उन्हें 72 हूरों के पास भेज दिया गया।

गोपाल पाठा का साफ निर्देश था कि यदि मुसलमान तुम्हें सुबह सुबह मारते हैं तो तुम सारा दिन चौबीसों घण्टे उनकी कटाई करो। जिसने भी हिन्दुओं की हत्या की है उसे ढूँढ़ो, घात लगाओ व मार डालो। इसलिए हिन्दू ज्वालामुखियों का दल जिहादियों की बस्ती पर टूट पड़ा, जिहादी अगले हमले की तैयारी कर रहे थे, उन्होने सोचा था कि सुबह गया हुआ झुण्ड माल-ए-गनीमत लेकर लौटता होगा, *हिन्दू लड़ाकों ने ऐसा विध्वंस मचाया कि देखनेवाले की रूह काँप गयी, खटिकों ने जो चीर-फाड़ मचाई उससे मुसलमानों की औरतें उल्टियाँ करते-करते बेहोश हो गईं, किसी की पीठ फटी पड़ी थी तो किसी की खोपड़ी, मोहल्ले की ज़मीन पर आँतों का ढेर लग गया था, जो भागने का प्रयास करता उसे गंडासे फेंककर मारा जाता, गंडासा इतनी जोर से पड़ता कि पीठ में धँसकर सीने के पार हो जाता।* उस समय वे बंगाली वीर ऐसे जान पड़ते थे मानों साक्षात शिव के गण ही वहाँ रक्त यज्ञ कर रहे हों, जैसे वीरभद्र ने माँ सती के प्रतिशोध स्वरूप दक्ष के सिर को काटकर हवनकुण्ड में होम दिया था वैसे ही वे वीर उन नीच दुर्जनों के मुण्ड, हाथ-पैर तथा चिथड़े उड़ा रहे थे। *’हर हर महादेव’* तथा *’जय माँ काली’* के गगनभेदी जयघोष से पूरा इलाका गूँज उठा, जगदम्बा के उन उपासकों ने उन अष्टभुजावाली माँ का अपने भीतर पलनेवाला प्रताप दिखला दिया।

*अनेक जिहादियों का मूत छुट गया तथा कईयों के मल*… ऐसी हालत में उन्हें भागने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। अब बारी थी फहीम चाचा जैसे लोगों की, हिन्दुओं के दल में जो पीड़ित हिन्दू थे उन्होंने ऐसे विश्वासघाती पड़ोसियों को पहचानकर अलग से लड़ाकों को इंगित किया, *इन धोखेबाज़ों ने ये सोचा नहीं था कि इनकी वीभत्स दुर्गति होगी, हिन्दू पहलवानों ने इन्हें इनके घरों से खींचकर निकाला, फिर कुछ लड़ाके धोखेबाज जिहादियों को घेरकर खड़े हो जाते, एक लड़ाका ज़मीन में लकड़ी का एक टुकड़ा रख देता जिस पर दो मुँहा चाकू गड़ा हुआ होता, अब इस हत्यारे, बलात्कारी जिहादी से कहा जाता कि उसकी जान बख्श दी जाएगी अगर वो अपनी दोनों हथेलियाँ इस चाकू के पार कर दे, ऐसा करने में ज़रा-सा भी न नुकुर करने पर एक पहलवान उस जिहादी का सिर पकड़कर उस चाकू पर दे मारता था, इससे उसका सिर कभी नाक से बिंध जाता था तो कभी मुँह से तो कभी आँख से।

इस प्रकार की अधमरी हालत में जब वह पहुँच जाता तब उसके हाथ में एक चाकू पकड़ाया जाता और कहा जाता कि अपने शिश्न में चिरा लगा तो तुझे ज़िन्दा छोड़ देंगे, वह ये नहीं कर पाता, यह स्पष्ट था कि उसे बलात्कार का फल दिया जा रहा था, ये शब्द उसकी आत्मा तक पहुँचकर उसे इज़्ज़त जाने का भाव देते थे, इसके बाद उसे डण्डों से इतना पीटा जाता कि सिर को छोड़कर उसका सारा शरीर सूज जाता, हड्डियाँ चटक जातीं। अन्त में उसके अण्डकोश को खटिया के पाये से फोड़कर शिश्न को पूरी तरह कुचल दिया जाता, ये उस बलात्कारी जिहादी की विदाई का अन्तिम चरण होता।*

जिन लोगों ने अपनी स्त्रियों के स्तन काटनेवालों को पहचाना उन्हें भी मन की शान्ति मिली, ऐसे वहशियों को दो पहलवान इंगित किए जाने पर पकड़ लेते तथा लिटाकर एक लड़ाका पेट पर इनके बैठ जाता तथा खुरपी-छेनी से इनकी छातियाँ तब तक छिलता जब तक सारी त्वचा व माँस न हट जाए, जब फेफड़े तथा हृदय दिखाई देने लगते तो उसे छोड़ दिया जाता, कुछ इस वेदना में ही मर जाते एवं कुछ के फावड़े के प्रहार से शिश्न अण्डकोश समेत उखाड़ लिए जाते। यह सब बड़ी ही शीघ्रता से होता, *सबको रेकी कर करके मारा गया, पूरे क्षेत्र में ऐसा कोई मुसलमान नहीं बचा जिसने हत्याकाण्ड में साथ दिया हो तथा जीवित बच गया हो,* गोपाल पाठा ने औरतों तथा बच्चों को छोड़ देने को कहा था, परन्तु जिहादियों को बचाने जो भी पुरुष आया वह भी मार दिया गया, बन्दूकें तथा grenades से हमला कर करके उन्हें भी मार गिराया गया जो किसी कि आड़ लेकर छुपे थे। गोपाल पाठा कहते थे कि *”जो माँ काली का अपमान करता है उसे काली का ग्रास बना देना ही हमारा काम है।”

इस तरह *पूरे क्षेत्र में ऐसा कोई मुसलमान जिहादी परिवार नहीं बचा था जिसके सारे पुरुष मार नहीं दिये गए हों। केवल वही रिश्तेदार मर्द बचे जो उस वक़्त उस क्षेत्र में नहीं थे। जिहादियों की औरतें बेवा हो गईं, बच्चे अनाथ हो गए, यद्यपि हिन्दुओं ने उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचाया था परन्तु प्रकृति ने उन्हें क्षमा नहीं किया, वो सारी बेवा औरतें वेश्या बनने पर मजबूर हो गईं। शौहर न होने पर परिवार में कोई पुरुष न होने पर उन्हें आजीविका के लिए ये करना पड़ा।* वैसे भी उनके समुदाय में बिना किसी स्वार्थ के कोई किसी का नहीं होता, बच गए मुसलमानों ने देह के बदले ही उनको पैसे दिये, बच्चों को भुखमरी, प्रताड़ना व शोषण का शिकार होना पड़ा, जिन्होंने कभी हिन्दुओं की महिलाओं का वीभत्स बलात्कार किया था, बच्चों को काट फेंका था उनकी औरतें अब सारी उम्र नोचे जाने पर मजबूर थीं, बच्चे प्रताड़ना तथा भीख माँगने पर विवश थे।

इस भयानक रक्तपात, चीर-फाड़, उल्टी-टट्टियाँ मचा देनेवाले वीभत्स दृश्य को देखकर *गुलाम रसूल* की रूह सिहर गयी, उसे इतना अधिक भय व्यापा कि उसने गोपाल पाठा के सामने अपनी बात कह भेजी – *”बहुत खून खराबा हो गया, आपने भी बहुत खून बहा लिया और हमने भी, अब ये खून खराबा हम और नहीं सह सकते, आप रुक जाइए। ”

परन्तु *गोपाल पाठा* इसके लिए राजी नहीं हुए, वे जानते थे कि ये *अल तकिया* ही है, उन्होने कोई समझौता नहीं किया, परिणामतः गुलाम रसूल लाहौर भाग गया, जाते-जाते किसी ने रात में उसकी रेकी कर उसे चाकू मार दिया था, जिससे वह भयंकर पीड़ा के साथ लाहौर पहुँचा था।

*सुहरावर्दी* की योजना थी हिन्दुओं का कत्ल-ए-आम करवा के वो उस क्षेत्र को मुस्लिम बहुल इलाका बना देगा, परन्तु इसके बदले उसे कई मुस्लिम बहुल क्षेत्र गँवाने पड़े, उसकी योजना थी *हावड़ा ब्रिज* को उड़वा देने की, इससे कलकत्ता के उस पारवाला इलाका *पूर्वी पाकिस्तान* में चला जाता, परन्तु गोपाल पाठा की मुँहतोड़ देनेकवाली कार्यवाही ने उसकी सारी योजना उड़ा दी। *जिन्होंने हिन्दुओं को निरीह पशु समझा था उन्हें हिन्ओं ने ऐसा भयंकर पाठ पढ़ाया कि उन्हें भुलाए नहीं भूलता।

गोपाल पाठा उन दिनों की याद करते हुए कहते थे, *”मुझे केवल बकरे की जगह हिन्दुओं को मारनेवाले मुसलमान की गर्दन रखनी होती थी।”* जब अंग्रेजों ने सुहरावर्दी की कुर्सी हटा दी तथा नए मुसलमानों को वहाँ का शासन दे दिया तो *दुरात्मा गाँधी* कलकत्ता आया। *जब तक हिन्दुओं की हत्या होती रही उस पापी के पैर कलकत्ता की ओर नहीं बढ़े, जैसे ही मुसलमानों की जान पर बन आयी वो ढोंगी दौड़ा आया* तथा उसने गोपाल पाठा से कहा कि हथियार डाल दे, इस पर गोपाल पाठा ने कहा, *”जिन शस्त्रों ने मेरे स्वजनों के प्राण तथा स्त्रियों के सम्मान की रक्षा की है उन शस्त्रों को मैं कभी नहीं समर्पित करूँगा।”

अन्ततः अंग्रेजों को कलकत्ता में सेना उतारनी पड़ी तथा मारकाट दोनों ओर से रोकी गयी। *इस मुँहतोड़ मार का प्रभाव इतना गहरा था कि आनेवाले तीन दशकों तक मुसलमानों ने हिन्दुओं की तरफ एक ढेला तक नहीं फेंका, यहाँ तक उन इलाकों में जहाँ मुस्लिम संख्या में अधिक थे।*

जब कभी आपको *नोआखाली* याद दिलाया जाए तब तब आप उन्हें *पाठागिरी* का स्मरण कराएं। आज भी कलकत्ता के हिन्दू अपने घरों में उनकी जयंती मनाते हैं। अपने पूर्वजों के प्रति आदर रखें, उन्हें याद करके सिर झुकाएँ नहीं, गर्व से मस्तक उठाकर जियें।