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सरकार टेस्ट कराए, जान बचाए, भूख धर्मादा पर छोड़े

कोरोना से कैसे लड़े भारत-: इसलिए कि जान बचेगी तो उपवास-व्रत रख, कंद-मूल खाकर वैक्सीन आने तक जीवन चल जाएगा। लेकिन यदि वैक्सीन आने तक आबादी के अनुपात में दो-चार लाख टेस्ट प्रतिदिन नहीं करवाए, लोगों को सक्रंमण की छाया से निकाल क्वरैंटाइन, अस्पताओं के जरिए जल्द बचाने में खजाना नहीं लुटाया तो भूख महीनों-सालों खिंचेगी और आर्थिकी भी बैठी रहेगी। तभी मैं बार-बार लिख रहा हूं कि 130 करोड़ लोगों की संख्या के अनुपात में टेस्ट बढ़ाओऔर वैज्ञानिक-चिकित्सकीय मॉडल की रणनीति में आबादी को टेस्ट-इलाज की मेडिकल स्क्रीनिंग में डाला जाए। इसमें जितनी देरी होगी उतना लॉकडाउन खीचेगा।

हां, पूरी दुनिया में देश फैसला ले रहे हैं कि लोगों की जान बचाएं या आर्थिकी? और देशों ने जान बचाने का विकल्प चुना है। जाहिर है मानवता को आज पहली-अकेली चिंता लोगों की जान की है। फिर जब खुद नरेंद्र मोदी ने 21 दिन का लॉकडाउन किया तो पहली प्राथमिकता क्या टेस्ट व मेडिकल लड़ाई की नहीं बनती है? फोकस वायरस से लड़ाई पर होना चाहिए या भूख, फसल व आर्थिकी में वक्त-पैसा गंवाएं? वक्त की हार्ड, भयावह हकीकत इधर खाई-उधर कुएं के विकल्प की है। मगर है तो है! क्यों कोरोना की लड़ाई में ही सब कुछ कुरबान हो, इसकी जरूरत में अपने इन निष्कर्षों पर भी गौर करें-

1-भारत वायरस का सर्वाधिक खुला-उर्वर-हराभरा चरागाह है-130 करोड़ लोगों की आबादी है। आबादी दुनिया की सर्वाधिक गरीबी, न्यूनतम मेडिकल बिस्तर, अस्पताल, सुविधाएं लिए हुए है। अमेरिका-यूरोप में मेडिकल खर्चा कुल जीडीपी का आठ से 12 प्रतिशत हैं तो भारत में सिर्फ 1.28 से दो प्रतिशत हेल्थ-मेडिकल तैयारियों में खर्च होता रहा है। भारत अभी कोरोना से लड़ाई के लिए जिस आईसीएमआर संस्था के भरोसे है उसे इस साल के बजट में सिर्फ 1795 करोड़ रुपए अलॉट हुए थे और महामारी की आंशका की तैयारी में पैसा अलॉट था छह करोड़ रुपए। जबकि अमेरिका में इसी काम की संस्था एनआईआर हर साल 39 अरब डॉलर याकि खरबों रुपए रिसर्च, लैब आदि में सरकार से ले कर खर्च करती है। तभी भारत को इस वक्त पुरानी कमियों, जर्जर मेडिकल ढांचे (ध्यान रहे 130 करोड़ आबादी) की हकीकत में सारा खजाना केवल और केवल महामारी से लड़ने व टेस्टिंग में झोंक देना चाहिए।

2-अमेरिका-यूरोप की तरह नहीं लड़े तो भारत की लड़ाई ईरान मॉडल से गई गुजरी होगी- दुनिया के देशों में वायरस फैलाव के अभी तक के आंकड़े के पैमानों पर यदि उसका आधा भी वायरस भारत में फैला तो संक्रमण का अनुमान भयावह बनेगा। मान लें कि कुल आबादी में दस प्रतिशत लोगों तक भी कोरोना पहुंचा और हिंदुओं ने अपने जादू-मंतर, काढ़ों से मृत्यु दर को यदि एक-दो प्रतिशत (दुनिया का औसत फिलहाल तीन प्रतिशत) में ही समेटा तब भी भारत में कोरोना मॉडल लाखों लोगों की जान पर कुंडली मारे बैठे होगा। इसलिए सब कुछ झोंक कर मेडिकल लड़ाई सरकारों का अकेला काम होना चाहिए।

3-कोरोना का इलाज मंहगा है सस्ता नहीं- इतना कि अमेरिका, स्पेन, इटली, ब्रिटेन, जर्मनी का खजाना खाली हो रहा है। तथ्य जानें कि जिसने समय रहते पैसा बहा कर जल्दी टेस्ट, तुरत चिकित्सा (जर्मनी वैश्विक उदाहरण बना है) प्रबंधन किया वहां वायरस का हमला थमा। केरल के अनुभव में आई एक रिपोर्ट के अनुसार सरकार को प्रति मरीज (आईसीयू) 14 दिन के इलाज की स्थिति में 20-25 हजार का खर्च बैठता है। यदि वेंटिलेटर की नौबत में मरीज को रखना हुआ तो 50 हजार रुपए प्रति मरीज लागत बैठेगी। इंडिया टुडे ने भारत में सपुर स्पेशियलिटी प्राइवेट अस्पताल में 15 दिन के कोरोना इलाज की लागत साढ़े सात लाख रुपए प्रति मरीज संभव बताई है। यदि वेंटिलेटर की नौबत हुई तो बिल का भगवान मालिक है। अपने को खबर नहीं है कि भारत में किसी मेडिकल बीमा कंपनी ने लोगों के हुए मेडिकल बीमा में कोरोना का इलाज शामिल किया या नहीं। जबकि अमेरिका, ब्रिटेन आदि में सरकारों ने धड़ाधड़ इसकी व्यवस्था बनवाई और पूरी जनता के लिए कोरोना इलाज फ्री घोषित किया। सो, 130 करोड़ की आबादी को वायरस से बचाने के लिए सरकारों को मौजूदा पूरा बजट ही नहीं, बल्कि विदेशों से खरबों के कर्ज का जुगाड़ भी शुरू कर देना चाहिए।

4-सरकारों को ही वायरस से लड़ने का पूरा खर्चा उठाना है- प्रति मरीज खर्च का अनुमान यदि न्यूनतम पैसे की जरूरत का आधार बने तब भी 130 करोड़ लोगों में इलाज के लिए बजट कितना चाहिए इसका अनुमान लगाया जा सकता है। पर इलाज से पहले सरकारों को अस्पताल बनाने हैं, पीपीई, वेंटिलेटर, मास्क, टेस्ट किट, दवाईयां खरीदनी हैं। क्या केंद्र और राज्य सरकारों के खजाने में पैसा है? नहीं है। दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने कोरोना का खतरा जान लेने के बावजूद 65 हजार करोड़ रुपए के सालाना बजट में कोरोना के प्रावधान में सिर्फ 50 करोड़ रुपए रखे। ऐसे ही केंद्र सरकार ने भी मार्च में अपना आम बजट संसद में पास करवाया था लेकिन मोदी सरकार ने कोरोना के लिए अलग प्रावधान कराना तो दूर स्वास्थ्य मद में भी आवंटन पुराने ढर्रे का रखा। जाहिर है केंद्र भी बेसिक पैसे के जुगाड़ में है तो राज्य भी।

5-सभी सरकारें 2020-21 के पूरे बजट को महामारी कोष में डालें- लड़ाई वैक्सीन के आने तक याकि दिसंबर या अगले साल मार्च तक लड़नी है। लड़ाई लंबी है। तमाम वैज्ञानिक (अमेरिका, जापान, यूरोपीय) चेताने लगे हैं कि संक्रमण लौट सकता है। अमेरिका ने यदि जुलाई में संभावी एपेक्स पर वायरस को हरा दिया तो सितंबर-अक्टूबर याकि फॉल में वापिस लौट सकता है। आबादी की संख्या, ठंड़े से गर्म इलाके में भारत के फैलाव, टेस्ट-मेडिकल ढांचे की जर्जर हकीकत में भारत को लड़ाई लगातार क्योंकि लड़नी है तो इस वित्तीय वर्ष के बजट में इंफ्रास्ट्रक्चर, सेना के पूंजीगत खर्च से ले कर तमाम तरह की सामाजिक-जनकल्याणकारी-गरीबी उन्मूलन से लेकर मूर्ति निर्माण-जनगणना-नई दिल्ली, संसद पुनर्निर्माण जैसे तमाम कामों को रोक कर इनके प्रावधान का पूरा पैसा वायरस से लोगों की जान बचाने में झोंक देना चाहिए।

6-जनता से हो व्रत-उपवास, धर्मादा का आह्वान- मैं कोरोना की लड़ाई में भूख, बेरोजगारी, गरीबी की चिंता छोड़ने की निर्मम, संवेदनहीन एप्रोच की जरूरत इसलिए तर्कसंगत मानता हूं क्योंकि सरकारें पाई-पाई पैसा बचा कर, विश्व बैंक, एडीबी या आईएमएफ या दुनिया के तमाम देशों से कर्ज, दान, भिक्षा ले कर भी इतना फंड एकत्र नहीं कर सकती कि वे वायरस और भूख दोनों के मोर्चे पर एक जैसी ताकत से लड़ाई लड़ सकें। 200 साल का भारत इतिहास गवाह है कि अकाल की विभीषिका से ज्यादा महामारी की विभीषिका में लोग अधिक मरे हैं। भारत उपवास, भूख से संकट पार का आदी रहा है। लालबहादुर शास्त्री ने अन्न की कमी के वक्त ईमानदारी से लोगों को व्रत का आह्वान किया था। भारतीयों के अकाल के वक्त शहर, कस्बे, गांव में सेठ, दानी लोगों के लंगर, धर्मादा खोलने के संस्कार हैं। तभी नरेंद्र मोदी व मुख्यमंत्री सेठों को निर्देश दे सकते हैं कि भूखों को खिचड़ी खिलाने की जिम्मेवारी आप लोगों की है। सरकारें सिर्फ और सिर्फ 130 करोड़ लोगों को वायरस से बचाने में पैसा खर्च करेगी। अपना तर्क है केजरीवाल या तमाम सरकारों ने पिछले पंद्रह दिनों में जितना पैसा व समय लंगर खोलने, चलाने में जाया किया है उतना ही यदि दिल्ली में कोरोना की टेस्टिंग में लगता तो 21 दिनों के लॉकडाउन से यह तस्वीर निकल आती कि दिल्ली में, अपने प्रदेश में विषाणु कहां, कहां से हमले की तैयारी में है और उससे लड़ने के लिए मेडिकल सेना की तैयारियों में कितना, क्या कुछ करना है? और प्रदेश में वायरस से लड़ने का म़ॉडल क्या बनता है?

7-शेयर बाजार, कंपनियों, आर्थिकी को न बचाएं- इसलिए कि अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, चीन जैसे देशों के रिजर्व बैंक, खजाने का दस प्रतिशत भी भारत के रिजर्व बैंक, सरकारी वित्तीय संस्थाओं के पास नहीं है। न ही मोदी सरकार में अर्थशास्त्रियों, मौद्रिक-वित्तीय नीति बनाने वाले विशेषज्ञों का बौद्धिक-हार्वर्ड ज्ञान है। तभी शेयर बाजार, कंपनियां डूबें तो डूबने दें लेकिन यदि इनमें एलआईसी, पेंशन फंड, पीपीएफ, सरकारी बैंकों का पैसा और उढेला या इनके लिए नोट छाप कर पैसा बांटा, इनके खातिर वित्तीय घाटा बनवाया तो वेनेजुएला जैसा कंगला-दिवालिया बनने का खतरा होगा। प्रति डॉलर रुपया न जाने कहां पहुंचा हुआ होगा। तभी न सरकारी कंपनियों (एयर इंडिया, तेल कंपनियों, सरकारी बैंक) में पैसा उढेलने की जरूरत है और न अंबानी-अडानी जैसो की कंपनियों के शेयरों को सरकारी खर्च के इंजेक्शन देने चाहिएं। ये पहले से ही बैंकों से खरबों रुपए लिए हुए हैं। लॉकडाउन की निरंतरता में ये कर्ज-ब्याज नहीं लौटाएंगे और इससे बैंक और कंगले बनेंगे। तभी नोट छापने वाली एप्रोच को दिसंबर तक सरकारी बैंकों को बचवाने के लिए बचा कर रखना जरूरी है। कुछ भी हो आखिर आम लोगों की बचत, एफडी, बैंकों में जमा की निकासी के लिए तो सरकार को बैंकों में आगे लिक्विडिटी बनवाए रखनी है।

8-सरकारी कर्मचारियों- पेंशनधारियों का वेतन आधा करें- पूरा देश जब बेरोजगारी, खाली जेब, माली हालत में जीवन जीने वाला है और सरकारों को एक-एक पैसा बचा कर, मितव्ययिता, कंजूसी से लड़ाई में सब कुछ झोंकना है तो प्रधानमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायकों, अफसर, कर्मचारी क्यों न मितव्ययिता, व्रत-उपवास का रोल म़ॉडल बनें। मेडिकल, इमरजेंसी सेवा में लगे लोगों की तनख्वाह जरूर कम नहीं की जाए, इस संकट से भारत को भी भविष्य के लिए समझ लेना चाहिए कि देश, समाज व जीवन के लिए कौन सा प्रोफेशन, कौन से कर्मचारी, कौन सा वर्ग उपयोगी और अधिक वेतन का हकदार है। वेतन कटौती, कंजूसी के फैसले केंद्र सरकार के निर्देशों में हो ताकि पूरे देश में एक से फैसले हो। इस सबका मनोवैज्ञानिक लाभ यह भी होगा कि पूरा देश वायरस से लड़ाई की गंभीरता, चुनौती को दिल-दिमाग में उतारेगा।

आप कह सकते हैं कि लोग तो वैसे ही गंभीर हो चुके हैं। सरकारों को समझ आ गया है। पर नौ अप्रैल मतलब लॉकडाउन के 16वें दिन के हालातों पर अपना मानना है कि 130 करोड़ लोगों के प्रतिनिधि नेताओं-अफसरों के मनोविज्ञान में अभी भी यह मूर्खता पसरी हुई है कि अमेरिका, ब्रिटेन को देखो वहां लोग मर रहे हैं जबकि हमारे यहां 100-200 का मरना क्या मरना है। मोदीजी के लॉकडाउन ने वायरस को मार दिया है और आने वाले दिनों में उसे भारत की गर्मी खा जाएगी। मतलब अब लॉकडाउन खत्म कर रोजी-रोटी, आर्थिकी के इंजन को स्टार्ट करने पर सोचने का वक्त है। नरेंद्र मोदी सुझाव मांग रहे हैं कि बताओ एक्जिट कैसे हुआ जाए!

साभार- https://www.nayaindia.com/ से