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घर-आंगन में भी उगाएं सहजन

आज जब सब्ज़ियों के दाम आसमान छू रहे हैं और थाली में सब्ज़ियां कम होने लगी हैं। ऐसे में अगर घर में ही ऐसी सब्ज़ी का इंतज़ाम हो जाए, जो खाने में स्वादिष्ट हो और सेहत के लिए भी अच्छी हों, तो फिर क्या कहने। जी हां, हम बात कर रहे हैं सहजन की। गांव-देहात और छोटे-छोटे क़स्बों और शहरों में घरों के आंगन में सहजन के वृक्ष लगे मिल जाते हैं। बिहार की वैजयंती देवी कहती हैं कि सहजन में ख़ूब फलियां लगती हैं। वह इसकी सब्ज़ी बनाती हैं, जिसे सभी ख़ूब चाव से खाते हैं। इसके फूलों की सब्ज़ी की भी घर में बार-बार मांग होती है। वह सहजन का अचार भी बनाती हैं। अपनी मां से उन्होंने यह सब सीखा है। उनके घर में एक गाय है। अपनी गाय को वह सहजन के पत्ते खिलाती हैं। गाय पहले से ज़्यादा दूध देने लगी हैं। इतना ही नहीं, वह सब्ज़ी वालों को फलियां बेच देती हैं। वह बताती हैं कि एक सब्ज़ी वाला उनसे अकसर वृक्ष से सहजन की फलियां तोड़ कर ले जाता है। इससे चार पैसे उनके पास आ जाते हैं। उन्होंने अपने आंगन में चार और पौधे लगाए हैं, जो कुछ वक़्त बाद उनकी आमदनी का ज़रिया बन जाएंगे।

बिहार के छपरा ज़िले के गांव कोरिया के सब्ज़ी विक्रेता ओमप्रकाश सिंह कहते हैं कि जो लोग सहजन के पौष्टिक तत्वों से वाक़िफ़ हैं, वे हमेशा सहजन की मांग करते हैं। बाज़ार में सहजन की फलियां 40 से 70 रुपये किलो तक बिकती हैं। हिसार के सब्ज़ी बाज़ार में सहजन की फलियां कम ही आती हैं। इसलिए ये ऊंची क़ीमत पर मिलती हैं। बहुत-से ऐसे घर हैं, जिनके आंगन में सहजन के वृक्ष खड़े हैं, वे वहीं से पैसे देकर सहजन की फलियां तोड़ लेते हैं और उन ग्राहकों को बेच देते हैं, जो उनसे सहजन मंगाते हैं। सहजन के बहुत से ग्राहक बंध गए हैं। इनमें पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड के लोग भी शामिल हैं।

सहजन बहुत उपयोगी वृक्ष है। इसे विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है, जैसे बंगाल में सजिना, महाराष्ट्र में शेगटा, आंध्र प्रदेश में मुनग और हिंदी भाषी इलाक़ों में इसे सहजना, सुजना, सैजन और मुनगा आदि नामों से भी जाना जाता है। अंग्रेज़ी में इसे ड्रमस्टिक कहा जाता है। इसका वनस्पति वैज्ञानिक नाम मोरिंगा ओलिफेरा है। सहजन का वृक्ष मध्यम आकार का होता है। इसकी ऊंचाई दस मीटर तक होती है, लेकिन बढ़ने पर इसे छांट दिया जाता है, ताकि इसकी फलियां, फूल और पत्तियां आसानी से तोड़ी जा सकें। यह किसी भी तरह की ज़मीन पर उगाया जा सकता है। नर्सरी में इसकी पौध बीज या क़लम से तैयार की जा सकती है। पौधारोपण फ़रवरी-मार्च या बरसात के मौसम में करना चाहिए। इसे खेत की मेढ़ पर लगाया जा सकता है। इसे तीन से चार फ़ुट की दूरी पर लगाना चाहिए। यह बहुत तेज़ी से बढ़ता है। इसके पौधारोपण के आठ माह बाद ही इसमें फलियां लग जाती हैं। उत्तर भारत में इसमें एक बार फलियां लगती हैं, जबकि दक्षिण भारत में यह सालभर फलियों से लदा रहता है। हालांकि कृषि वैज्ञानिकों ने उत्तर भारत के लिए साल में दो बार फलियां देने वाली क़िस्म तैयार कर ली है और अब यही क़िस्म उगाई जा रही है। दक्षिण भारत के लोग इसके फूल, पत्ती और फलियों का इस्तेमाल विभिन्न प्रकार के व्यंजनों में करते हैं। उत्तर भारत में भी इन्हें ख़ूब चाव से खाया जाता है। इसकी फलियों से सब्ज़ी, सूप और अचार भी बनाया जाता है। इसके फूलों की भी सब्ज़ी बनाई जाती है। इसकी पत्तियों की चटनी और सूप बनाया जाता है।

गांव-देहात में इसे जादू का वृक्ष कहा जाता है। गांव-देहात के बुज़ुर्ग इसे स्वर्ग का वृक्ष भी कहते हैं। सहजन में औषधीय गुण पाए जाते हैं। इसके सभी हिस्से पोषक तत्वों से भरपूर हैं, इसलिए इसके सभी हिस्सों को इस्तेमाल किया जाता है। आयुर्वेद में इसे तीन सौ रोगों का उपचार बताया गया है। इसमें अनेक पोषक तत्व पाए जाते हैं, जैसे कैलोरी, प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, रेशा, कैल्शियम, मैग्नीशियम, फ़ास्फ़ोरस, पोटैशियम, कॊपर, सल्फ़र, ऒक्जेलिक एसिड, विटामिन ए-बीटासीरोटीन, विटामिन बी- कॊरिन, विटामिन बी1 थाइमिन, विटामिन बी2 राइबोफ़्लुविन, विटामिन बी3 निकोटिनिक एसिड, विटामिन सी एस्कार्बिक एसिड, विटामिन बी, विटामिन ई, विटामिन के, ज़िंक, अर्जिनिन, हिस्टिडिन, लाइसिन, ट्रिप्टोफन,फ़िनॊयलेनेलिन, मीथिओनिन, थ्रिओनिन, ल्यूसिन, आइसोल्यूसिन, वैलिन, ओमेगा आदि। एक अध्ययन के मुताबिक़ सहजन की पत्तियों में विटामिन सी संतरे से सात गुना होता है। इसी तरह इसकी पत्तियों में विटामिन ए गाजर से चार गुना, कैल्शियम दूध से चार गुना, पोटैशियम केले से तीन गुना और प्रोटीन दही से दोगुना होता है।

सहजन के बीज से तेल निकाला जाता है, जो दवाओं और सौंदर्य प्रसाधनों में इस्तेमाल किया जाता है। इसकी छाल पत्ती, गोंद, जड़ आदि से आयुर्वेदिक दवाएं तैयार की जाती हैं। कहा जाता है कि इसके सेवन से सेहत अच्छी रहती है और बुढ़ापा भी दूर भागता है। आंखों की रौशनी भी अच्छी रहती है। इसके पोषक तत्वों को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने दक्षिण अफ़्रीका के कई देशों में कुपोषित लोगों के आहार में इसे शामिल करने की सलाह दी है। डब्ल्यूएचओ ने कुपोषण और भूख की समस्या से लड़ने के लिए इसे बेहतर माना है। फ़िलीपींस और सेनेगल में कुपोषण उन्मूलन कार्यक्रम के तहत बच्चों के आहार में सहजन को शामिल किया गया है। इसके बेहतर नतीजे सामने आए हैं। फ़िलीपींस, मैक्सिको, श्रीलंका, मलेशिया आदि देशों में सहजन की काफ़ी मांग है। बच्चों, गर्भवती महिलाओं और बुज़ुर्गों के लिए यह वरदान है। इसकी पत्तियां पशुओं के लिए पौष्टिक आहार हैं। इसे चारे के लिए भी उगाया जाता है। चारे के लिए इसकी पौध छह इंच की दूरी पर लगाई जाती है। बरसीम की तरह इसकी कटाई 75 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए। स्वीडिश यूनिवर्सिटी ऒफ़ एग्रीकल्चरल साइंस उपासला द्वारा निकारगुआ में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक़ गायों को चारे के साथ सहजन की पत्तियां खिलाने से उनके दूध में 50 फ़ीसद बढ़ोतरी हुई है। सहजन के बीजों से पानी को शुद्ध किया जा सकता है। इसके बीजों को पीस कर पानी में मिलाया जाता है, जिससे पानी शुद्ध हो जाता है।

सहजन की खेती किसानों के लिए फ़ायदेमंद है। किसान सहजन की खेती कर आर्थिक रूप से समृद्ध बन सकते हैं। एक वृक्ष से आठ क्विंटल फलियां प्राप्त की जा सकती हैं। यह वृक्ष दस साल तक उपज देता है। इसे खेतों की मेढ़ों पर लगाया जा सकता है। पशुओं के बड़े-बड़े बाड़ों के चारों तरफ़ भी सजहन के वृक्ष लगाए जा सकते हैं। बिहार में किसान सहजन की खेती कर रहे हैं। यहां सहजन की खेती व्यवसायिक रूप ले चुकी है। बिहार सरकार ने सहजन की खेती के लिए महादलित परिवारों को पौधे मुहैया कराने की योजना बनाई है। इस योजना का मक़सद महादलित और ग़रीब परिवारों को स्वस्थ करना और उन्हें आमदनी का ज़रिया मुहैया कराना है। राज्य में समेकित जलछाजन प्रबंधन कार्यक्रम के तहत सहजन के पौधे वितरित किए जाते हैं। यहां स्कूलों और आंगनबाड़ी भवनों के परिसरों में सहजन बोया जा रहा है।

कृषि विभाग के प्रोत्साहन की वजह से यहां के किसान सहजन उगा रहे हैं। किसानों का कहना है कि वे सहजन की क़लम खेत में लगाते हैं। मार्च-अप्रैल में वृक्ष फलियों से लद जाते हैं। उत्पादन वृक्ष के अनुसार होता है। एक वृक्ष से एक से पांच क्विंटल तक फलियां मिल जाती हैं। इसमें लागत भी ज़्यादा नहीं आती। वे अन्य सब्ज़ियों के साथ सहजन की खेती करते हैं। इससे उन्हें दोहरा फ़ायदा हो जाता है। इसके साथ ही पशुओं के लिए अच्छा चारा भी मिल जाता है, जो उनके लिए पौष्टिक आहार है। छत्तीसगढ़ में किसान पारंपरिक धान की खेती के साथ सहजन उगा रहे हैं। उनका कहना है कि वे इसकी फलियां शहर की मंडियों में बेजते हैं। पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और झारखंड आदि राज्यों में सहजन की ख़ासी मांग है। सहजन की फलियां 40 से 80 रुपये प्रति किलो बिकती हैं। सहजन के फ़ायदों को देखते हुए अब पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ने इसे पंजाब में उगाने की योजना बनाई है। इसे किचन गार्डन के तौर पर प्रोत्साहित किया जाएगा। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के वेजिटेबल साइंस डिपार्टमेंट के प्रो। डीएस खुराना और डॉ। हीरा सिंह ने सहजन पर शोध करते हुए पंजाब की जलवायु के अनुकूल एक नई क़िस्म तैयार की है। इसका नाम पीकेएम टू रखा गया है।

आदिवासी इलाक़ों में भूमिहीन लोग बेकार पड़ी ज़मीन पर सहजन के वृक्ष उगाकर आमदनी हासिल कर रहे हैं। उनका कहना है कि ख़ाली ज़मीन पर जो भी वृक्ष उगाता है, वृक्ष के फल पर अधिकार भी उसी का होता है। इससे जहां बेकार पड़ी ज़मीन आमदनी का ज़रिया बन गई है, वहीं वृक्षों से पर्यावरण भी हराभरा बना रहता है। वृक्ष फल और छाया देने के साथ-साथ बाढ़ को रोकते हैं, भूमि कटाव को रोकते हैं।

कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि सहजन की विदेशों में बहुत मांग है, लेकिन जागरुकता की कमी की वजह से यहां के लोगों को इसके बारे में उतनी जानकारी नहीं है, जितनी होनी चाहिए। ऐसे में सहजन की खेती को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। पारंपरिक खेती के साथ भी सहजन उगाया जा सकता है। इसमें कोई विशेष लागत भी नहीं आती। सहजन कृषि वानिकी और सामाजिक वानिकी का भी अहम हिस्सा बन सकता है। बस ज़रूरत है जागरुकता की।
(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं)
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