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क्या कुछ भूल गये हैं हम?

ये घर, ये मेरा घर, कब क्यूँ कैसे बदल गया,
चार दिवारी बन गया,
पता ही नहीं चला।

वो दिन रात की चहल पहल, वो हँसना खिलखिलाना, बात बात पे रूठना और मनाना,
सब बदल गया।

मुख़्तसर सी बातें, औपचारिक सी लगती हैं, सब कुछ सतही सा हो गया है।
जैसे ख़ुद से जुड़ा मन किसी और से जुड़ने से सहम सा गया है।

सब तो अच्छा है, सब अपनी ज़िंदगी में आगे बढ़ रहे हैं, फिर क्या बुरा है?
पर क्या सब खरा है।

मुझे याद है वो शामें और रातें, जब बेवजह बैठ कर बातें किया करते थे,
कुछ हँसते कुछ लड़ते वक़्त बीतते थे,
फ़िल्मों के गानों पे भी आँसू आ जाते थे।

मन जुड़े हुए थे, रिश्ते सीमाओं के दायरे से परे कहीं दूर एक दूसरे की उड़ान पे निकल जाते थे।

कुछ बंध गया है, मन सीमित हो गया है, जीवन केवल अपनी उड़ान पे थम गया है।
लिप्त एहसास और निर्लिपत शब्दों के बीच रिश्ते कुछ धुँधले से हो गए हैं।

एहसास दिल में थे, शब्दों के मोहताज नहीं थे, किसी को देख कर उसके मन की बात समझ जाते थे,
उसका हाथ पकड़ कर घंटो बैठने में नहीं शर्माते थे।

अब सोच समझ कर हाथ बढ़ाने पड़ते हैं, कुछ जोड़ घाटा के वक्ति रिश्ते निभानेपड़ते हैं,
कुछ पाने का जोड़ और कुछ खोने का घटाव, ज़िंदग के एहसास समेट ले जाते हैं।

अब हार्वर्ड की ७५ साल की शोधसब बता रही है,
जीने के तरीक़े सिखा रही है,
हम तो सदियों से ऐसे ही जिये थे,
फिर हमें क्यूँ सिखा रही है।

क्या कुछ भूल गये हैं हम?