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हिंदी : हमारी अस्मिता की भाषा

हिंदी दिवस के अवसर पर मैं सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ!

हिंदी दिवस क्यों मनाते हैं, इसके पीछे निहित कारण हम सब जानते ही हैं। मैं तो बस यही कहना चाहूँगी कि इसे केवल एक औपचारिकता न समझा जाए। वैसे भी, हम दूसरे तमाम त्यौहार क्यों मनाते हैं? हर त्यौहार के साथ कोई न कोई मूल्य जुड़ा हुआ होता है। चाहे ईद हो या होली, दीवाली हो या गुरुपर्व हो या फिर बड़ा दिन…. ये केवल औपचारिक तिथियाँ नहीं हैं। इनका संबंध किसी न किसी जीवन मूल्य से है। इसी तरह हिंदी दिवस भी हमारा राष्ट्रीय उत्सव है – 15 अगस्त और 26 जनवरी की तरह। इसके मूल में जो जीवन मूल्य निहित है, वह है ‘राष्ट्रीयता’। भारतवर्ष की भावात्मक एकता! यह देश बहुत बड़ा है और बहुभाषिक भी है।

भौगोलिक रूप से भले ही हमारे बीच दूरियाँ हों, लेकिन इस भावात्मक एकता के धरातल पर हम सब एक हैं। कहने का आशय है कि लद्दाख और अंडमान के बीच में लंबी दूरी हो सकती है; अथवा नागालैंड से लेकर गुजरात तक लंबी दूरी हो सकती है; लेकिन इन भौगोलिक दूरियों के बावजूद यह पूरा देश भावात्मक रूप से एक सूत्र में जुड़ा हुआ है। और हमारी इस भावात्मक एकता को मजबूत बनाने वाला तत्व है हमारी ‘भाषा’। स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गांधी ने भाषा की इस ताकत को पहचाना और स्वभाषा को स्वराज्य के लिए अनिवार्य घोषित किया था। उनकी पक्की मान्यता थी कि हिंदुस्तान की आम भाषा अंग्रेजी नहीं, बल्कि हिंदी है। क्योंकि अलग-अलग भाषा-भाषी एक-दूसरे से हिंदी में सरलता से संवाद कर सकते हैं और भावों-विचारों को समझ सकते हैं।

भाषा बहुत ही संवेदनशील वस्तु है। जरा सी गलती हो जाए, तो वह तोड़ने वाली शक्ति बन जाती है। आप जानते ही हैं कि देश भर में भाषा के नाम पर लोग लड़ते-भिड़तेे रहते हैं। अलग राज्य माँगते रहते हैं। यह भाषा की नकारात्मक भूमिका है। इसके विपरीत भाषा की एक और भूमिका है – ‘जोड़ने’ वाली भूमिका। इस सकारात्मक तत्व को हमें ग्रहण करना है। नकारात्मकता को छोड़ ही देना उचित है।

इसीलिए मेरा मानना है कि ‘हिंदी दिवस’ भाषा के संबंध में सकारात्मक सोच के प्रति अपने आपको समर्पित करने का दिन है।

14 सितंबर, 1949 को जब भारतीय संविधान के निर्माताओं ने हिंदी को ‘भारत संघ की राजभाषा’ बनाया, तो वे इसे केवल ‘राजकाज’ की भाषा नहीं बना रहे थे, बल्कि ‘भावात्मक एकता की भाषा’ भी बना रहे थे। इसीलिए उन्होंने दो और विशेष प्रावधान रखे। एक प्रावधान यह रखा कि अलग-अलग प्रांत अपनी-अपनी राजभाषाएँ रखने के लिए स्वतंत्र है। और दूसरा यह कि इन अलग-अलग राजभाषाओं को भावात्मक एकता की दृष्टि से जोड़ने के लिए अनुच्छेद 351 का प्रावधान किया। यह कहा गया कि हिंदी का विकास इस तरह से हो कि वह कम्पोज़िट कल्चर (मिश्रित संस्कृति) का प्रतिबिंब बने।

इसलिए समझने वाली बात यह है कि हिंदी केवल राजभाषा नहीं है, बल्कि अलग-अलग भाषा और बोलियाँ बोलने वाले इस महान देश के लोगों को आपस में जोड़ने वाली एक ‘सुई’ है। यहाँ मुझे एक तेलुगु कविता याद आ रही है एन.अरुणा की, जो इस प्रकार है – इनसानों को जोड़कर सी लेना चाहती हूँ/ फटे भूखंडों पर/ पैबंद लगाना चाहती हूँ/ रफ़ू करना चाहती हूँ/ चीथड़ों में फिरने वाले लोगों के लिए/ हर चबूतरे पर/ सिलाई मशीन बनना चाहती हूँ।/ असल में यह सूई/ मेरी माँ की है विरासत।/ आत्मीयताओं के टुकड़ों से मिली/ कंथा है हमारा घर।/ सीने का मतलब ही होता है जोड़ना/ सीने का मतलब ही होता है बनाए रखना/ माँ अपनी नजरों से बाँधती थी/ हम सबको एक ही सूत्र में।/ सूई की नोक चुभाकर/ होती थी कशीदाकारी भलाई के ही लिए/ नस्ल, देश और भाषाओं में विभक्त/ इस दुनिया को/ कमरे के बीचों-बीच ढेर लगाकर/ प्रेम के धागे से सीना चाहती हूँ। (मौन भी बोलता है)।

सुई की तरह ही हिंदी किसी भाषा की पहचान के लिए खतरा पैदा नहीं करती,बल्कि इनके प्रयोग करने वालों को आपस में जोड़ती है। जरा बताएँ तो सही! गाड़ी, मोबाइल या घड़ीआदि का निर्माण कैसे किया जाता है? इन तमाम चीजें को पहले टुकड़ों-टुकड़ों में बनाया जाता है। फिर इन्हें असेंबल किया जाता है, जोड़ा जाता है। तभी उत्पाद/ प्रोडक्ट तैयार होकर आपके सामने आता है। कहने का अर्थ है कि अलग-अलग टुकड़ों को असेंबल करने पर ही किसी भी उपकरण का निर्माण होता है। अगर आप इन टुकड़ों को अलग अलग ही रखा रहने दें, तो क्या कोई उपकरण बन सकता है?नहीं। इसी प्रकार, राष्ट्र के निर्माण में वह जो एक तत्व है, प्राण है, आत्मा है जो दिखाई नहीं देती, वह है हमारी संपर्क भाषा। इस संपर्क भाषा के द्वारा ही सारी भाषाएँ जुड़कर ‘भारतीय चिंतन की भाषा’ का निर्माण करती हैं। इसी भाषा को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया है। अतः आज हम यह संकल्प लें कि असेंबल करने वाले इस तत्व को खत्म न होने देंगे। हिंदी भाषा की सीमेंटिंग पावर को पहचान कर इसके साथ जुड़ना होगा। इसके लिए हमें राजभाषा नियम और अधिनियम मिले हैं। आज तक यदि नहीं किया तो आज से हस्ताक्षर हिंदी में करें। हम निर्धारित वार्षिक टार्गेट के अनुरूप हिंदी में काम कर रहे हैं या नहीं, इसे पहचानें।

देश के संविधान ने अपने नागरिकों को तमाम तरह की आजादियाँ दी है और वह हमसे एक माँग करता है कि संघ के कर्मचारी होने के नाते सारा कामकाज हिंदी में करें। सारा नहीं कर सकते, तो कोई बात नहीं; आज से गिलहरी की तरह थोड़ा-थोड़ा ही कर लें।

साथ ही, यह भी ध्यान रहे कि सरकारी हिंदी और हमारी सामाजिक हिंदी में अभी बहुत दूरी है। यह इसलिए कि हम मूल रूप से हिंदी में काम नहीं कर रहे हैं; अनुवाद कर रहे हैं। जब तक हम अनुवाद करते रहेंगे, तब तक भाषा नकली ही बनी रहेगी। अनुवाद करना गलत नहीं है। अनुवाद पूरे विश्व के भाषा-समूहों को एक-दूसरे के नजदीक लाने वाली एक बड़ी ताकत है। लेकिन भाषा की प्रकृति को ध्यान में रखकर अनुवाद करें ताकि वह नकली न लगे और सहज प्रतीत हो। यदि हम सरकारी और सामाजिक हिंदी के बीच के अंतर को मिटाना चाहते हैं तो हमें मूल रूप में हिंदी में काम करने की आदत डालनी होगी।

आज यह स्थिति है कि हम अंग्रेज़ी से हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में कामकाज की ओर बढ़ने में संकोच करते हैं; स्विच ओवर नहीं करते। ऐसा करके अंग्रेजी को ही बनाए रखेंगे तो एक गलत संदेश जाएगा कि हमारे पास ‘अस्मिता की भाषा’ नहीं है। अतः ‘निज भाषा’ को अपनाइए।

आने वाले समय में जो भाषाएँ आज के ग्लोबल विश्व में प्रभावशाली रहेंगी उनके लिए कुछ पैरामीटर्स सामने आए हैं। जैसे – कंप्यूटर फ्रेंडली और बाजार फ्रेंडली होना। खुशी की बात है कि हिंदी ने यह साबित कर दिया है कि वह कंप्यूटर-दोस्त और बाजार-दोस्त भाषा है।

दूसरी चीज यह भी है कि अगर हम राजभाषा के रूप में हिंदी को पूरे भारत की भाषा मानें तो एक बहुत बड़ी शक्ति उसके पक्ष में जाती है। हिंदी और दूसरी भाषाओं के बीच एक बड़ा फर्क है और वह यह कि हिंदी दूसरी भाषाओं की तरह एक क्षेत्र तक सीमित नहीं है। उसने भूगोल की सब प्रकार की सीमाओं को तोड़ दिया है। एक तरफ वह उस पूरे इलाके की भाषा है जिसे हिंदी पट्टी कहा जाता है। लेकिन दूसरी तरफ वह अपने पड़ोसी राज्यों से लेकर दक्षिण और पूर्वोत्तर राज्यों तक दूसरी और तीसरी भाषा के रूप में फैली हुई है। दुनिया भर में भारतवंशियों के साथ वह अनेक देश-देशांतर में पहुँच चुकी है। यह पूरा वैश्विक फैलाव उसकी बहुत बड़ी ताकत है। इस ताकत के सहारे वह एक ओर तो विज्ञापन की दुनिया में छाती जा रही है तथा दूसरी ओर दुनिया भर के हिंदी भाषियों को इंटरनेट के माध्यम से जोड़ रही है। वह एक ऐसी भाषा बन चुकी है जिसमें पहले तो भक्ति आंदोलन चला और फिर स्वतंत्रता आंदोलन। आज वह राजनीति के शिखर तक पहुँचने की भाषा बन गई है। फिल्मों के माध्यम से हिंदी मोटी कमाई भी करा रही है। इसलिए अब अगर हिंदी की उपेक्षा की जाएगी तो शायद भविष्य की दौड़ में हम पीछे छूट सकते हैं। इसलिए आज ही से कार्यालय के अपने कामकाज हिंदी में शुरू करें। और हाँ, यदि भारत विश्व की तीसरी अर्थ शक्ति बनने की कामना रखता है तो उसे हिंदी भाषा को अपनी अस्मिता की भाषा के रूप में दुनिया के सामने रखना ही होगा।

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गुर्रमकोंडा नीरजा
असिस्टेंट प्रोफेसर
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा
खैरताबाद, हैदराबाद – 500004
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http://hyderabadse.blogspot.in